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नफरत का पाठ पढ़ते लेबनान के बच्चे

२१ दिसम्बर २०१७

छह-छह साल के बच्चे अभी ठीक से पढ़ना भले ही ना जानते हों लेकिन अपने दुश्मन का नाम उन्हें अच्छी तरह पता है और उसके मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं. यह बच्चे लेबनान के हैं जिन्हें बाकायदा नफरत करना सिखाया जा रहा है.

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Libanon Beirut Proteste gegen Jerusalem-Entscheidung von Trump
तस्वीर: DW/Anchal Vohra

अली की उम्र छह साल है और बेरुत में होने वाली एक रैली में वह अपने परिवार के साथ पूरे जोश के साथ "अमेरिका मुर्दाबाद" और "इस्राएल मुर्दाबाद" के नारे लगाता है. इस रैली का आयोजन लेबनान के कट्टरपंथी गुट हिज्बुल्लाह ने किया और इसमें येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के फैसले की मुखालफत की गई.

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अली की मां फातिमा कहती है, "वह इतना बड़ा हो चुका है कि उसे यहां लाया जा सके." अली के छोटे भाई को भी वे इस रैली में लाई हैं और अपने इस कदम को वह सही मानती हैं. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस तरह बच्चों को नफरत का पाठ पढ़ाया जा रहा है.

फातिमा शिया हैं और इस रैली में जमा हुए हजारों लोगों की तरह हिज्बुल्लाह की समर्थक हैं. जिस सड़क से यह प्रदर्शन निकला, वह महिला और पुरुषों से भरी थी. रैली में हिज्बुल्लाह नेता हसन नसरल्लाह का यह बयान भी स्क्रीन पर दिखाया गया, "सीरिया और ईरान में जीत के बाद हम इस्राएल पर ध्यान केंद्रित करेंगे." इस पर वहां मौजूद लोगों ने हर्षध्वनि की.

इस रैली में जितनी तादाद पुरुषों की थी, उतनी ही महिला और बच्चों की. महिलाएं इसलिए भी बच्चों को रैली में ले आती है क्योंकि उनके बाद घर पर कोई बच्चों की देखभाल करने वाला नहीं होता. लेकिन इसका एक मकसद बच्चों को हिज्बुल्लाह की सोच और उद्देश्य से वाकिफ भी कराना है जिसका मकसद है इस्राएल का विरोध करना.

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फातिमा का कहना है, "बच्चों की यही उम्र है कि वे जानें कैसे यहूदियों ने हमारी जमीन को ले लिया." वह जोश के साथ 1948 के उस घटनाक्रम को बयान करती हैं जब फलस्तीनी जमीन पर इस्राएल खड़ा किया गया था. फातिमा के मुताबिक, "अमेरिका बराबर इस्राएल की मदद करता है और हम पर युद्ध थोपता है और अब शैतान हमारी मस्जिद यहूदियों को देना चाहता है."

अल अक्सा मस्जिद इस्लाम धर्म में तीसरा सबसे पवित्र धार्मिक स्थल है जो पूर्वी येरुशलम में मौजूद है. 1967 में छह दिन तक चले युद्ध में इस्राएल ने पूर्वी येरुशलम पर नियंत्रण कर उसे अपने क्षेत्र में मिला लिया था. तभी से फलस्तीनी और अरब दुनिया मांग करती रही है कि पूर्वी येरुशलम वापस दिया जाए.

Libanon Beirut Proteste gegen Jerusalem-Entscheidung von Trump
तस्वीर: DW/Anchal Vohra

येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के ट्रंप के फैसले की दुनिया भर में आलोचना हो रही है. संयुक्त राष्ट्र ने भी इसका विरोध किया है लेकिन ट्रंप अपने रुख पर कायम है. इसके चलते मुस्लिम दुनिया भर में अमेरिका विरोधी भावनाएं एक बार फिर प्रबल हो गई हैं. लेबनान में भी लोग इस बात को लेकर गुस्सा है. लेबनान इसलिए भी खास है क्योंकि वह इस्राएल का पड़ोसी है.

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विरोध प्रदर्शनों में आए बच्चे अपने माता पिता के पीछे पीछे वहां लगने वाले नारों को दोहराते हैं. भले ही वे गंभीर मुद्दों की पेचीदगियों से नावाकिफ हों लेकिन नारे पूरे जोश के साथ लगाते हैं. वे उन अमेरिकियों और यहूदियों की मौत के नारे बुलंद कर रहे हैं जिनसे ना वे कभी मिले हैं और ना ही कभी बात की है. छह साल के बच्चे से जब पूछा गया कि वह नारे क्यों लगा रहा है, तो अपनी मां की तरफ देखते हुए वह कहता है, "क्योंकि अमेरिकी और यहूदी हमारे दुश्मन हैं."

हर साल गर्मियों में हिज्बुल्लाह बच्चों के लिए समर कैंप भी लगाता है जहां उन्हें लड़ाई के कुछ तौर तरीकों के अलावा ईरान के क्रांतिकारी नेता अयातोल्लाह खमेनेई की विचारधारा के बारे में सिखाया जाता है. इसलिए ये बच्चे भी वही बोलते हैं जो हिज्बुल्लाह उनसे बुलवाना चाहता है. 14 साल का अब्बास कहता है, "मैं इस्राएल को अपने पैरों के तले कुचलना चाहता हूं." पिछली बार 2006 में जब इस्राएल और लेबनान की लड़ाई हुई थी तो अब्बास बहुत छोटा था. लेकिन अब वह एक हिज्बुल्लाह लड़ाका बनना चाहता है ताकि लेबनान को "इस्राएली आक्रमण से बचा सके." जब उससे पूछा गया कि वह लेबनान की सेना में भर्ती क्यों नहीं होना चाहता तो उसका जवाब था, "लेबनानी सेना ईसाई और सुन्नियों के लिए है. हिज्बुल्लाह ही लेबनान की असली सेना है और बहुत मजबूत है."

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तस्वीर: DW/Anchal Vohra

हिज्बुल्लाह को अमेरिका भले ही एक आतंकवादी गुट मानते हो लेकिन लेबनान में वह बहुत ताकतवर है. हिज्बुल्लाह का मतलब अल्लाह का पक्ष होता है. लेबनान में रहने वाले बहुत से लोगों के लिए, खास कर शिया लोगों के लिए हिज्बुल्लाह ना सिर्फ उन्हें इस्राएल से बचाता है बल्कि "इस्लामिक स्टेट" और अल कायदा जैसे सुन्नी जिहादी गुटों से भी बचाता है.

वैसे अब्बास को यह पता नहीं है कि 1980 के दशक में दक्षिणी लेबनान में शियाओं को फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) से बचाने के लिए जब इस्राएल आगे आया तो हिज्बुल्लाह ने उसका स्वागत किया था. पीएलओ एक सुन्नी संगठन है और वह शियाओं से लड़ रहा था. अब्बास को यह भी नहीं पता है कि अमेरिका मुर्दाबाद का नारा हिज्बुल्लाह के जरिए ईरान से लेबनान पहुंचा है. हिज्बुल्लाह भले ही "लेबनान के लिए" लड़ने की बात कहे, लेकिन आखिरकार पर वह ईरान के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है.

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तस्वीर: DW/Anchal Vohra

लेबनान में 16 साल तक चले गृह युद्ध में शामिल रहे लोग मानते हैं कि अब्बास जैसे बच्चे एक जाल में फंस रहे हैं. जियाद 12 साल के थे जब उन्होंने 1970 के दशक में बंदूक उठाई. वह बच्चों का ब्रेनवॉश करने को एक अपराध मानते हैं क्योंकि इसके जरिए उन्हें एक तरह से लड़ाई में धकेला जा रहा है. वह कहते हैं, "हिज्बुल्लाह हो, इस्राएली हो या फिर अमेरिकी, वे बच्चों को छोटी सी उम्र में किलिंग मशीन बना रहे हैं."

एक बाल सैनिक रहे जियाद कहते हैं कि यह देख कर उन्हें बहुत दुख होता है कि बच्चों को सियासत के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. उनके मुताबिक, "अगर अल्लाह मुझसे कहे कि कोई एक ख्वाहिश बताओ तो मैं कहूंगा कि वे मुझे मेरा बचपन और किशोरावस्था के साल लौटा दे." वह अब अलग अलग जगहों पर व्याख्यान देते हैं ताकि नई पीढ़ी अतीत से कुछ सबक ले सके.

आंचल वोहरा (बेरुत)