मध्य पूर्व में स्थिति 'तनावपूर्ण' से कहीं ज्यादा गंभीर है, खास कर इस्राएल और फलीस्तीन के बीच. और यह बिगड़ती ही जा रही है. युवा फलीस्तीनी इस्राएलियों पर अंधाधुंध हमले कर रहे हैं, सेना हर मुमकिन तरीकों से जवाब दे रही है. इस्राएली नेताओं और सेना के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता अपने नागरिकों की सुरक्षा है.
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने बर्लिन में जर्मन सरकार के साथ मिलकर मध्य पूर्व की स्थिति को सुधारने की बहुत कोशिश की. लेकिन क्या वे इसमें सफल हुए? कोई भी यह दावा करने की हिम्मत नहीं करता. क्योंकि बेन्यामिन नेतन्याहू के बर्लिन आने से पहले भी यह बात साफ थी कि इस्राएली प्रधानमंत्री राजनीतिक रूप से कितने घबराए हुए हैं. उन्होंने यह दावा कर दिया कि फलीस्तीन के सबसे बड़े मुफ्ती हज अमीन अल-हुसैनी ने 1940 के दशक में अडोल्फ हिटलर को यहूदियों को मारने के लिए उकसाया. नेतन्याहू की मानें तो हिटलर का इरादा सिर्फ यहूदियों को निकाल बाहर करने का था, मारने का नहीं.
तो क्या ग्रैंड मुफ्ती यहूदियों से नफरत करते थे? जी हां, बिलकुल. लेकिन हिटलर तो खुद अपनी किताब "माइन काम्प्फ" में अपनी यहूदी विरोधी भावनाओं के बारे में लिख चुका था. वह नियोजित तरीके से जर्मनी और यूरोप में यहूदियों का कत्ल करना चाहता था. अपनी योजनाओं को अमल में लाने के लिए वह खुद जिम्मेदार था. फिर चाहे वह आउश्वित्स, त्रेबलिंका और मायदानेक के यातना शिविर हों, या फिर बेर्गेन बेलसेन, बूखेनवाल्ड या वारसा में बनाई गयी यहूदी बस्तियां. हिटलर को ना तो मुफ्ती की मदद की जरूरत थी और ना हौसला अफजाही की.
इस्राएली प्रधानमंत्री भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए उन्होंने इतिहास के पन्नों से यह घातक तुलना एक अलग कारण के चलते की है. वे मुफ्ती से लेकर फलीस्तीन के मौजूदा राष्ट्रपति महमूद अब्बास तक एक लकीर खींच रहे हैं. वे दिखाना चाह रहे हैं कि यहूदी विरोधी भावना अब इस्राएल के खिलाफ पनप रही है. बहुत से इस्राएली भी यही मानते हैं. इसलिए उनके दृष्टिकोण से बातचीत और समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं है. इस तरह से नेतन्याहू खुद ही आग में घी डालने का काम कर रहे हैं और मध्य पूर्व में शांति बहाली की छोटी सी उम्मीद को भी जिंदा नहीं रहने दे रहे हैं.