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मजदूरों का पलायन रोकने में क्यों नाकाम है भारत

शिवप्रसाद जोशी
६ मई २०२०

भारत में लॉकडाउन शुरू होने के हफ्तों बाद प्रवासी मजदूर घर वापस लौटने लगे हैं. उनके इन दिनों में जो अनुभव रहे हैं उनकी वजह से शायद ही वे जल्द काम पर लौटना चाहें. उनके अपने प्रदेशों में उनके भविष्य की कोई योजना नहीं है.

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Coronavirus Indien Delhi Wanderabeiter sind gestrandet
तस्वीर: DW/Murali Krishnan

कोरोना महामारी के फैलाव और लॉकडाउन की लंबी अवधियों के बीच भारत में श्रमिकों के हालात और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान और श्रम रोजगार से जुड़ी राजनीतिक आर्थिकी के कुछ अनछुए और अनदेखे अध्याय भी खुल गए हैं. पहली बार श्रम शक्ति की मुश्किलें ही नहीं, राज्यवार उससे जुड़ी पेचीदगियां भी खुलकर दिखी हैं. एक साथ बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूरों का अपने घरों को लौटने के असाधारण फैसले के जवाब में राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के पास कोई ठोस कार्रवाई या राहत प्लान नहीं दिखा, जिससे समय रहते हालात सामान्य हो पाते. प्रवासी मजदूरों के बीच जान बचाने और अपने घरों को लौट जाने की देशव्यापी दहशत के बीच सरकारों की मशीनरी भी असहाय सी दिखी.

गुजरात, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्य भले ही विकास के कई पैमानों पर अव्वल राज्यों में आते हों लेकिन अपने अपने घरों को बेतहाशा लौटते मजदूरों को रोके रखने के उपाय करने में वे भी पीछे ही रहे. हालांकि ये भी एक सच्चाई है कि भारत में प्रवासी मजदूरों की स्थिति विभिन्न राज्यों के असमान विकास के साथ जुड़ी हुई है. मजदूरों की मनोदशा के अलावा उन्हें काम देने वाले उद्यमों की जरूरत को भी समझने की जरूरत है. सच्चाई ये भी है कि सरकारें सहानुभूति दिखा सकती हैं लेकिन खर्च वही कर सकती हैं जो उनके पास है. राज्यों को इस तरह का विकास करने की जरूरत है कि उनके पास जरूरी कुशल मजदूर रहें, उन्हें उचित मजदूरी मिले और मजदूरों का कल्याण भी हो. अप्रैल में केंद्र सरकार ने गरीबों और जरूरतमंदों के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज का ऐलान किया था. लेकिन आर्थिक विशेषज्ञों ने एक व्यापक वित्तीय पैकेज की मांग उठायी है. इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में एक कार्यबल का गठन कर दिया है.

Menschen bei der Arbeit |  Purulia, Indien
तस्वीर: DW/Prabhakar

लोगों को काम से जोड़ने की चुनौती

कोरोना संकट के बीच आने वाले दिनों के लिए श्रम शक्ति में सुधार से जुड़े सवाल भी उठे हैं और संघीय ढांचे वाले भारत के लिए विकास कार्यक्रमों और नीतियों पर नये सिरे से चिंतन और क्रियान्वयन की जरूरत भी आ पड़ी है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे कार्यालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत में श्रम शक्ति भागीदारी दर करीब आधा रह गयी है. यानी पहली बार ऐसा हुआ है कि 15 साल से ऊपर काम करने वाली भारत की आधी आबादी, किसी भी आर्थिक गतिविधि में योगदान नहीं दे पा रही है. दिसंबर 2019 में श्रम शक्ति भागीदारी दर गिरकर 49.3 प्रतिशत हो गई. 2018 में ये 49.4 प्रतिशत आंकी गयी थी. इस साल मार्च में भारत की आबादी एक अरब 31 करोड़ से ज्यादा हो गई है. और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी (सीएमआईई) के ताजा आंकडों के मुताबिक अप्रैल माह तक भारत में बेरोजगारी की दर 27 प्रतिशत की डरावनी ऊंचाई पर जा चुकी है.

भारत की लोकतांत्रिक जटिलता, भौगोलिक विस्तार और विविधता और विकास नीति की एक अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त सी प्रकृति रही है. औद्योगिकीकरण और वृद्धि के आगे राजनीति और संरक्षण ने भी रोड़े अटकाए हैं. विकास और स्थायित्व से जुड़े साक्षरता, गरीबी और गैरबराबरी जैसे पहलुओं को भी नजरअंदाज किया जाता रहा. समावेशी विकास की रणनीति से अभी भी ऐसे परहेज किया जा रहा है मानो इसे छू लेने भर से तरक्की का ग्राफ भरभराकर नीचे आ गिरेगा. राज्यों को न सिर्फ कौशल आधारित उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा बल्कि उन्हें अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा से भी जोड़ना भी होगा ताकि कामगारों के पास नकदी का अभाव न रहे, उनके सामने वेतन और पगार का संकट न रहे और उन्हें काम पर रखने वाले उद्योगों के पास उन्हें देने के लिए पर्याप्त धनराशि बनी रहे और खपत के लिए एक बाजार भी बना रहे. ऐसे उत्पाद कृषि और बागवानी के अलावा खाद्य सेक्टरों से तलाशे जा सकते हैं. प्रकाशन, मनोरंजन, मीडिया, प्रसाधन, प्रबंधन, होटल और पर्यटन जैसे सेवा सेक्टरों में भी अपार विस्तार की संभावनाएं हैं. पूंजी निवेश की एक सुनियोजित व्यवस्था तो राज्यों को बनानी ही होगी.

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रोजगार और आर्थिक सुरक्षा का सवाल

वित्तीय सुरक्षा की जिम्मेदारी नियोक्ताओं की भी है और सरकारों की भी. और उनके हालात पर भी गौर करना चाहिए जो स्वरोजगार से जुड़े हैं. ये प्लम्बर, मैकेनिक, रेहड़ी चलाने वाले, फल सब्जी विक्रेता से लेकर नाई, धोबी, रिक्शा चलाने वाले, कूड़ा बीनने वाले और दिहाड़ी मजदूर और यौनकर्मी तक कुछ भी हो सकते हैं. ये श्रम बाजार के लगभग अदृश्य लेकिन उपयोगी और उपेक्षित समुदायों में आते हैं. कोरोना संकट के दौरान हुए हाल के अध्ययनों के मुताबिक असंगठित क्षेत्र में सिर्फ 17 प्रतिशत कामगार ऐसे हैं जिनके नियोक्ता पहचाने जा सकते हैं. शेष 83 प्रतिशत कामगारों का नियोक्ता कौन है, कोई नहीं जानता, फिर उनकी आमदनी या आय कैसे सुरक्षित रह पाएगी. उन्हें काम पर रखा जाएगा या नहीं, ये कैसे सुनिश्चित हो पाएगा. गांव से शहर, फिर शहर से वापस गांव या गांव से अन्य गांवों की ओर पलायन करने वाले लोगों की संख्या करीब 10 करोड़ आंकी गयी है, कमोबेश हर दस भारतीयों में एक. सर्कुलर माइग्रेशन करने वाले ये लोग शहरी इलाकों में अंसगठित कामगारों का बड़ा हिस्सा हैं, जो श्रम बाजार की सबसे कम आमदनी या सबसे न्यूनतम वेतन वाली जरूरतों में खपा दिए जाते हैं.

कोरोना संकट के दौर में ये भी एक सबक है कि असंगठित क्षेत्र के इस स्वरूप को बदलने के नीतिगत फैसले होने चाहिए. उसपर असुरक्षित, अस्थायी, गारंटीविहीन या सामाजिक सुरक्षा विहीन होने का जो ठप्पा लगा है, उसे मिटाना होगा. कुशल या अकुशल मजदूरों के पलायन को रोकने और आर्थिक विकास का मजबूत आधार बनाने के लिए हर राज्य में वहां की परिस्थितियों के अनुरूप प्रयास जरूरी है. नौकरी की तलाश में वही लोग निकलते हैं जिन्हें अपने यहां कोई संमभावना नहीं दिखती. आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण में राज्यों के बीच एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी होनी चाहिए. अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए, केंद्र सरकार खुद को राज्यों के साथ सहयोग वाले मॉडल का पक्षधर बताती है लेकिन अब कोरोना पश्चात के समय में ये दिखना भी चाहिए.

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