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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताएशिया

अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडराता राजद्रोह का साया

शिवप्रसाद जोशी
६ नवम्बर २०२०

ऐसे समय में जब सरकारों की आलोचना करने वाले नागरिक, राजद्रोह जैसे कठोर कानूनों के तहत जेल में डाल दिए जाते हों, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट का एक आदेश याददिहानी की तरह आया है. लेकिन क्या अदालती हिदायतों की परवाह हो रही है?

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Indien Neu Delhi | Protest gegen Staatsbürgerschaftsgesetz | CAB, CAA
तस्वीर: DW/A. Ansari

कोरोना महामारी की वजह से किए गए लॉकडाउन के दौरान केंद्र और पंजाब सरकार के निर्देशों की आलोचना के लिए राजद्रोह के आरोप में बंद एक व्यक्ति को रिहाई का आदेश देते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि राजद्रोह और धार्मिक मनमुटाव से जुड़े कानूनों का इस्तेमाल करते हुए राज्य को ज्यादा सहिष्णु और सजग रहने की जरूरत है. खबरों के मुताबिक छह महीने से जेल में बंद एक अभियुक्त की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले दिनों कोर्ट ने ये कहा. जसबीर नाम के उस व्यक्ति पर राष्ट्र की एकता और अखंडता के विरुद्ध और धार्मिक वैमनस्य पैदा करने वाले बयान देने के आरोप लगे थे. जमानत देते हुए जस्टिस सुधीर मित्तल ने कहा कि अभियुक्त लॉकडाउन से नाराज था और भारत सरकार और पंजाब सरकार ने जिस तरह महामारी पर काबू पाने के लिए कदम उठाए उन्हें लेकर भी नाखुश था और उसने उक्त सरकारों की कार्यप्रणाली की आलोचना की थी.

जस्टिस मित्तल के कोर्ट ने माना कि सरकारों के उच्च अधिकारियों और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के प्रति अनर्गल और निंदात्मक भाषा जरूर इस्तेमाल की गयी लेकिन उसमें सरकार के प्रति नफरत या वैमनस्य भड़काने जैसी कोई बात नहीं है. इससे सामुदायिक सद्भाव बाधित नहीं हुआ और न ही धार्मिक मनमुटाव पैदा हुआ. जज के मुताबिक ये सरकार के कामकाज के तरीकों पर असंतोष और उसकी नीतियों की आलोचना की अभिव्यक्ति है. कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र में सरकार की कार्यप्रणाली की आलोचना करना या अपना मत प्रकट करना हर नागरिक का अधिकार है, हालांकि ये आलोचना सभ्य तरीके से की जानी चाहिए और असंसदीय भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

राजद्रोह के आरोप पर संयम का मशविरा

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की तरह पहले भी अदालतें कई मौकों पर और खुद सुप्रीम कोर्ट भी अपनी हिदायतों, मशविरों और आदेशों के जरिए सरकारों और पुलिस प्रशासन को राजद्रोह के कानून के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर आगाह कर चुका है लेकिन देखने में आता है कि सरकारें अपनी आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाती और मौका मिलने पर राजद्रोह कानून का धड़ल्ले से इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. तमिलनाडु के कुडनकुलम एटमी संयत्र का विरोध कर रहे किसान प्रदर्शनकारियों के खिलाफ 2011 में राजद्रोह के 8856 मामले ठोक दिए गए थे. इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार अरुण जनार्दन की सितंबर 2016 में प्रकाशित एक विस्तृत रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु का इदिनिथाकराई गांव तो राजद्रोह कानून का ग्राउंड जीरो है जहां के किसान आंदोलनकारियों पर सबसे ज्यादा राजद्रोह मामले दर्ज बताए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक जेल भले ही न हो लेकिन बड़ी तादाद में मामले किसानों को डराए रखने के लिए भी लादे रखे जाते हैं.

Indien Neu Delhi Citizen Amendment Act Protest
नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों पर लगाए गए हैं राजद्रोह के आरोप तस्वीर: Mohsin Javed

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो  (एनसीआरबी) के मुताबिक 2014 से 2018 के बीच 233 लोगों पर इस कानून का इस्तेमाल किया जा चुका है. सबसे ज्यादा 37 लोग असम और 37 झारखंड में गिरफ्तार किए गए हैं. 2018 में 70, 2017 में 51, 2016 में 35, 2015 में 30 और 2014 में 47 लोग इस भीषण कानून की चपेट में आ चुके है. एनसीआरबी ने 2014 से राजद्रोह के मामलों पर आंकड़े जुटाना शुरू किया है. लेकिन इनसे ये भी पता चलता है कि राजद्रोह के आरोपों में सिर्फ गिनती के मामलों में ही अदालतों में दोष सिद्ध हो पाया है. 2016 में सिर्फ चार मामले ही अदालतों में ठहर पाए. भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत ब्रिटिश दौर में बनाया राजद्रोह कानून अभी तक चला आ रहा है. जबकि खुद ब्रिटेन अपने विधि आयोग की सिफारिश के बाद 2010 में इस कानून से मुक्ति पा चुका है.

राजद्रोह के आरोप का अत्यधिक इस्तेमाल

आंदोलनकारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, किसानों, मजदूरों, लेखकों, पत्रकारों, कवियों, कार्टूनिस्टों, राजनीतिज्ञों और एक्टिविस्टों पर तो इसकी गाज गिरायी ही जाती रही है और उन्हें गाहेबगाहे विरोध न करने और चुप रहने के लिए इस तरह धमकाया जाता है. दिल्ली में जेएनयू और जामिया विश्वविद्यालयों के छात्रों पर भी इस कानून की तलवार लटक रही है. कर्नाटक में तो एक स्कूल पर ही ये मामला सिर्फ इसलिए दर्ज हो गया क्योंकि वहां बच्चे सीएए से जुड़ा एक नाटक खेल रहे थे. राजद्रोह एक गैरजमानती अपराध है और इसकी सजा भारीभरकम मुआवजा राशि के साथ न्यूनतम तीन साल और अधिकतम उम्रकैद रखी गयी है. सरकारें भले ही इस कानून को खत्म करने के बजाय उसे बनाए रखने की वकालत करती हैं लेकिन न्यायपालिका इस कानून की संवैधानिक वैधता को विभिन्न मौलिक अधिकारों और उन पर लगे निर्बंधों की रोशनी में विश्लेषित करती आयी है.

Indien Proteste JNU Campus Neu Delhi Kanhaiya Kumar Student
जेएनयू छात्र संघ के तत्कालीन प्रमुख कन्हैया कुमार पर भी लगाए गए थे राजद्रोह के आरोप तस्वीर: Reuters

1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के विख्यात मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार के बारे में, या उसके कदमों के बारे में नागरिक को टिप्पणी या आलोचना के जरिए कुछ भी करने या लिखने का अधिकार है, जब तक कि वो विधि द्वारा स्थापित सरकारों के खिलाफ लोगों को हिंसा के लिए न उकसाता हो या पब्लिक ऑर्डर को बिगाड़ने का इरादा न रखता हो. कोर्ट का कहना था कि राजद्रोह की दंडात्मक कार्रवाई, अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर संवैधानिक रूप से वैध निर्बंध के रूप में तभी मान्य होगी जबकि जो शब्द कहे गए हैं वो हिंसा के जरिए सार्वजनिक शांति को भंग करने के मकसद से कहे गए हों. मुश्किल ये है कि पब्लिक ऑर्डर के दायरे में कौन सी अभिव्यक्ति या ऐक्शन होगा या नहीं होगा, ये भी बहुत स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है. शब्दों की अर्थवत्ता की जांच कैसे होगी. इस तरह सरकारें अपनी सुविधा से इस कानून का इस्तेमाल कर लेती हैं. और मामला अंततः कोर्ट में आकर ही सुलझ पाता है.

आजादी से पहले से ही विवादों में है ये कानून

वैसे आजादी से पहले से ही इस कानून को रद्द करने की मांग की जाती रही है और सबसे प्रमुखता से इस मांग को महात्मा गांधी ने उठाया. 1922 में राजद्रोह का मामला अपने ऊपर थोपे जाने के बाद उन्होंने कहा था कि राजद्रोह, नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए बनाया गया कानून है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि जितना जल्दी इस कानून से मुक्ति पा ली जाए उतना अच्छा. लेकिन भारत में आजादी के सात दशक पूरे हो जाने के बाद भी ये नहीं हो पाया है.

कांग्रेस की सरकारें हों या बीजेपी की सरकारें इस कानून के प्रति सरकारों का मोह लगता है नहीं जाता. अब सवाल यही है कि आखिर प्रतिरोध के प्रति लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकारें इतनी असंवेदनशील और भयभीत सी क्यों दिखती हैं और क्यों उन्हें इस कानून की जरूरत है. राजद्रोह की गतिविधियों और सार्वजनिक-व्यवस्था भंग होने का खतरा इतना तीव्र और वास्तविक होता तो फिर न्यायपालिका क्यों समय समय पर इसके इस्तेमाल को गैरवाजिब ठहराती और इसकी कमियों को रेखांकित करती रहती.

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