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समाज

एक कपड़े पर मिलती है एक रुपया मजदूरी

१ फ़रवरी २०१९

बड़े बड़े ब्रांड के कपड़े भी किफायती दामों पर मिल जाते हैं, इसलिए कि उन्हें बनाने वालों को मजदूरी ना के बराबर दी जाती है. अगर सही मेहनताना देना पड़े, तो शायद आप ब्रांड वाले कपड़े पहनना ही छोड़ देंगे.

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Textilarbeiterin in Indien
तस्वीर: AP

जहां एक तरफ राहुल गांधी भारत में न्यूनतम आय लागू करने की बात कर रहे हैं, वहां दूसरी तरफ एक सच्चाई वह असंगठित वर्ग भी है जो बेहद कम मेहनताने पर काम कर रहा है, वह अपने साथ हो रहे शोषण को सह रहा है और उसका कहीं किसी कागज पर जिक्र भी नहीं है. कपड़ा उद्योग में इस तरह के मजदूरों की कोई कमी नहीं है.

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने ऐसी ही एक मजदूर त्रिपुरा की मेहला सेकर से बात की. फैक्ट्री का एक ठेकेदार मेहला के पास कुछ कपड़े छोड़ जाता है. रात में जब बच्चे खाना खा कर सो जाते हैं, तब मेहला इन कपड़ों पर काम शुरू करती है. किसी में बटन लगाना है, किसी में टांका, तो किसी में गिरे हुए मोती को दोबारा पिरोना है. हर कपड़े के लिए उसे कुछ एक रुपया मिल जाता है. वह बताती है, "अगर किसी फैक्ट्री में काम करती तो ज्यादा पैसा मिलता, ओवर टाइम, बोनस और बाकी की चीजें भी. लेकिन मुझे अपने तीन बच्चों का भी ख्याल रखना होता है, इसलिए फैक्ट्री में नहीं जा सकती. उसकी ये कीमत चुकानी पड़ती है."

भारत में कपड़ा उद्योग में करीब सवा करोड़ लोग फैक्ट्रियों में काम करते हैं. इनके अलावा लाखों लोग मेहला की तरह घर से काम करते हैं. किसी को स्लीव काटने का काम दिया जाता है, तो किसी को कढ़ाई करने का. एक रिसर्च के अनुसार घर बैठे इस तरह का काम करने वाले अधिकतर मजदूर महिलाएं या फिर युवा लड़कियां हैं. और इन्हीं की बदौलत बड़े बड़े ब्रांड सस्ते दामों में कपड़े बेच पा रहे हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की रिपोर्ट कहती है कि अगर इन मजदूरों को सही मेहनताना मिलने लगे, तो कंपनियां किफायती दामों पर कपड़े बेच ही नहीं पाएंगी.

रिपोर्ट लिखने वाले सिद्धार्थ कारा ने इस बारे में कहा, "ये समाज का कमजोर तबका है जिनकी मजबूरी का फायदा ठेकेदार और उनके जरिए पूरा कपड़ा उद्योग उठाता है." उन्होंने आगे कहा कि इस उद्योग में पारदर्शिता न होने और संगठित रूप से मजदूरों के काम के ब्योरे के अभाव में बाजार का हाल यह है कि कामगारों को एक घंटे के लगभग दस रुपये ही मिल पाते हैं.

सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी

इस रिपोर्ट के लिए कुल 1452 मजदूरों से बात की गई और इनमें सबसे कम उम्र की मजदूर थी एक दस साल की बच्ची. मजदूरी कर रहे 19 फीसदी लोगों की उम्र 10 से 18 के बीच देखी गई. 85 फीसदी लोग ऐसी सप्लाई चेन का हिस्सा हैं जिनके जरिए कपड़ा अमेरिका और यूरोप भेजा जाता है. और पश्चिमी देशों से विपरीत इन मजदूरों की न्यूनतम आय का हरगिज ध्यान नहीं रखा जाता. इतना ही नहीं अपने साथ हो रहे शारीरिक और मानसिक शोषण की भी ये कहीं पर शिकायत नहीं कर सकते हैं.

रिपोर्ट में हिदायत दी गई है कि भारत सरकार इस असंगठित व्यवस्था को संगठित बनाए ताकि मजदूरों की स्थिति को सुधारा जा सके. मजदूरों के अधिकारों के लिए काम कर रहे वरुण शर्मा का कहना है, "उद्योग ने अपने काम करने के तरीके बदल लिए हैं और अब वह मजदूरों के घरों में घुस आया है ताकि सरकारी निगरानी से बच सके और फैक्ट्रियों की शिनाख्त करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से छिप सके."

वरुण का कहना है कि बड़े ब्रांड अकसर इस बात से अनजान होते हैं कि मजदूर किस हालात में काम कर रहे हैं. वे बस अपने काम को आउटसोर्स कर देते हैं और फिर उनके पास जांच करने का कोई जरिया नहीं रहता है. श्रम और रोजगार मंत्रालय के अजय तिवारी भी मानते हैं कि घर से काम कर रहे मजदूरों का बहुत ज्यादा शोषण होता है. वे कहते हैं, "हम 125 असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों का ब्योरा लेंगे. इसमें कपड़ा उद्योग भी शामिल है. और हम सभी मजदूरों को आइडेंटिफिकेशन नंबर भी देंगे जिससे वे सरकार की योजनाओं का फायदा उठा सकेंगे."

मेहला जैसी कई औरतों के लिए घर से काम करना मजबूरी भी है और जरूरत भी. जब तक सरकार से इन्हें मदद नहीं मिलती, इनके शोषण का थमना मुमकिन नहीं दिखता.

आईबी/एनआर (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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