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मीडिया

पत्रकारिता पर राजद्रोह के आरोपों का दबाव

चारु कार्तिकेय
३ जून २०२१

सुप्रीम कोर्ट बार बार पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज कराने के बढ़ते चलन के खिलाफ आगाह रहा है. राजद्रोह पत्रकारिता के रास्ते में अड़चन बनता जा रहा है. इसका खामियाजा लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी उठाना पड़ सकता है.

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Indien | Demonstration gegen das Sedition-Gesetz aus der Kolonialzeit
तस्वीर: DW/M.Krishnan

ताजा प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार विनोद दुआ पर एक मामले में लगे राजद्रोह के आरोपों को खारिज कर दिया और कहा कि 1962 में राजद्रोह को परिभाषित करने वाले 'केदार नाथ सिंह फैसले' के तहत हर पत्रकार को सुरक्षा मिलनी चाहिए. अदालत ने आदेश दिया कि इस मामले में दुआ के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर रद्द कर दी जाए. एफआईआर मई 2020 में हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के एक नेता ने दर्ज कराई थी.

बीजेपी नेता ने शिकायत की थी कि दुआ ने यूट्यूब पर प्रसारित किए गए दिल्ली दंगों से संबंधित अपने एक कार्यक्रम में केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री पर गलत आरोप लगाए थे. मामले में दुआ के खिलाफ राजद्रोह, पब्लिक न्यूसेंस, अपमान करने वाली सामग्री छापने और पब्लिक मिस्चीफ की धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे. दुआ ने एफआईआर को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और मांग की थी कि ना सिर्फ एफआईआर रद्द की जाए बल्कि उसे दायर करने वाले को आदेश दिया जाए कि वो उत्पीड़न के लिए हर्जाना भी दें.

इस समय अस्पताल में कोविड-19 से लड़ रहे दुआ राजद्रोह का आरोप झेलने वाले अकेले पत्रकार नहीं हैं. आए दिन पत्रकारों के खिलाफ इस तरह के आरोप दर्ज किए जा रहे हैं. एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के महासचिव और हार्ड न्यूज पत्रिका के संपादक संजय कपूर ने डीडब्ल्यू को बताया कि खास कर पिछले सात सालों में पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के मामलों में उछाल आया है और पत्रकारों को महामारी से जुड़ी खबरों के लिए और यहां तक कि बलात्कार जैसे जुर्म पर खबर करने के लिए भी गिरफ्तार कर लिया गया है.

Indien Oberster Gerichtshof in Neu Dehli
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि राजद्रोह का मामला तभी बनेगा जब हिंसा फैलाने की मंशा साबित होतस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/N. Kachroo

सभ्य समाज में 'राजद्रोह' की जगह

संजय कपूर ने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने कई बार पत्रकारों को मिली अभिव्यक्ति की सुरक्षा के बारे में बताया है, लेकिन निचली अदालतें अक्सर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को नजरअंदाज करती आई हैं. उन्होंने मांग की कि राजद्रोह जैसे कानून की सभ्य समाजों में कोई जगह ही नहीं है, और समय आ गया है कि इसे अब भारतीय दंड संहिता से ही हटा दिया जाए. राजद्रोह भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत एक जुर्म है.

इसे सबसे पहले अंग्रेजों के शासन के दौरान 1870 में लाया गया था. फिर 1898, 1937, 1948, 1950 और 1951 में इसमें कई संशोधन किए गए. इसे 1958 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने और पंजाब हाई कोर्ट ने भी असंवैधानिक करार दिया था, लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट के केदार नाथ सिंह फैसले ने इसे वापस ला दिया. हालांकि इसी फैसले में अदालत ने इसे लगाने की सीमाएं तय कीं और कहा कि इसका उपयोग तभी किया जा सकता है जब "हिंसा के लिए भड़काना" साबित हो.

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य नाम के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सरकार की आलोचना करने या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. राजद्रोह का मामला तभी बनेगा जब किसी वक्तव्य के पीछे हिंसा फैलाने की मंशा साबित हो.

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