आखिर क्यों नहीं सुलझ रहा है तीस्ता के पानी पर विवाद?
५ सितम्बर २०२२भारत आने से पहले ही बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा है कि तीस्ता के पानी पर विवाद समेत कई दूसरे अनसुलझे मुद्दों के कारण बांग्लादेश के लोगों को काफी दिक्कतें हो रही हैं. हसीना के पिछले भारत दौरे के दौरानभी उम्मीद की जा रही थी कि तीस्ता के पानी के बंटवारे के मुद्दे पर दोनों देशों के बीच जमी बर्फ पिघलेगी. हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कड़े रुख की वजह से ऐसा संभव नहीं हो सका. ममता ने तब कहा था, "मुझे बांग्लादेश से प्यार है. लेकिन उत्तर बंगाल के किसान मेरे लिए प्राथमिकता हैं."
आखिर तीस्ता का पानी दोनों देशों के आपसी संबंधों में रोड़ा क्यों बना है और दशकों से जारी इस विवाद को अब तक सुलझाया क्यों नहीं जा सका है? इन सवालों के जवाब की तलाश के लिए अतीत के पन्ने पलटना जरूरी है.
आजादी के बाद से ही विवाद
तीस्ता नदी के पानी पर विवाद दरअसल देश के विभाजन के समय से ही चला आ रहा है. तीस्ता के पानी के लिए ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने साल 1947 में सर रेडक्लिफ की अगुवाई में गठित सीमा आयोग से दार्जिलिंग व जलपाईगुड़ी को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने की मांग उठाई थी. हालांकि कांग्रेस और हिंदू महासभा ने इसका विरोध किया था.
इस विरोध को देखते हुए सीमा आयोग ने तीस्ता का ज्यादातर हिस्सा भारत को सौंप दिया था. उसके बाद यह मामला ठंढे बस्ते में रहा. लेकिन साल 1971 में पाकिस्तान से आजाद होकर बांग्लादेश के गठन के बाद पानी के बंटवारे का मामला दोबारा उभरा. साल 1972 में इसके लिए भारत-बांग्लादेश संयुक्त नदी आयोग का गठन किया गया. वर्ष 1996 में गंगा के पानी पर हुए समझौते के बाद तीस्ता के पानी के बंटवारे की मांग ने जोर पकड़ा. उसी समय से यह मुद्दा लगातार विवादों में है.
शुरुआती दौर में दोनों देशों का ध्यान गंगा, फरक्का बांध, मेघना और ब्रह्मपुत्र नदियों के पानी के बंटवारे पर ही केंद्रित रहा. 1996 में गंगा के पानी पर हुए समझौते के बाद तीस्ता के पानी के बंटवारे की मांग ने जोर पकड़ा. इससे पहले वर्ष 1983 में तीस्ता के पानी पर बंटवारे पर एक तदर्थ समझौता हुआ था. इसके तहत बांग्लादेश को 36 फीसदी और भारत को 39 फीसदी पानी के इस्तेमाल का हक मिला. बाकी 25 फीसदी का आवंटन नहीं किया गया.
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गंगा समझौते के बाद दूसरी नदियों के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक साझा समिति गठित की गई. इस समिति ने तीस्ता को अहमियत देते हुए वर्ष 2000 में इस पर समझौते का एक प्रारूप पेश किया. वर्ष 2010 में दोनों देशों ने समझौते के अंतिम प्रारूप को मंजूरी दे दी. वर्ष 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ढाका दौरे के दौरान दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व के बीच इस नदी के पानी के बंटवारे के एक नये फॉर्मूले पर सहमति बनी. हालांकि ममता के विरोध की वजह से यह फार्मूला भी परवान नहीं चढ़ सका.
गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना के बाद तीस्ता भारत और बांग्लादेश होकर बहने वाली चौथी सबसे बड़ी नदी है. सिक्किम की पहाड़ियों से निकल कर भारत में लगभग तीन सौ किलोमीटर का सफर करने के बाद तीस्ता नदी बांग्लादेश पहुंचती है. वहां इसकी लंबाई 121 किमी है. बांग्लादेश के 14 फीसदी इलाके सिंचाई के लिए इसी नदी के पानी पर निर्भर हैं. इससे वहां की 7.3 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है.
भारत-बांग्लादेश संबंधों में रोड़ा
तीस्ता समझौता लंबे समय से दोनों देशों के आपसी संबंधों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार के इसके पक्ष में होने के बावजूद मुखयमंत्री ममता बनर्जी मौजूदा प्रारूप में इसके लिए राजी नहीं हैं. इस मुद्दे पर बांग्लादेश में भी भारी नाराजगी है. कोलकाता स्थित प्रेसीडेंसी कॉलेज, जो अब विश्वविद्यालय हो गया है, के पूर्व प्रिंसिपल अमल मुखर्जी कहते हैं, ‘तीस्ता विवाद से दोनों देशों के आपसी रिश्तों में कड़वाहट बढ़ रही है.'
ममता यह कहते हुए इस मुद्दे का विरोध करती रही हैं कि बांग्लादेश को ज्यादा पानी देने की स्थिति में उत्तर बंगाल में खेती चौपट हो जाएगी. वह जितना पानी देने के लिए तैयार हैं बांग्लादेश उतने पर सहमत नहीं है. वह इस पानी में बराबर का हिस्सा मांग रहा है. दोनों पक्षों के अपने-अपने रुख पर अडिग होने की वजह से केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इस समस्या के समाधान की कोई राह नहीं निकल सकी है.
ममता की दलील है कि पानी के बंटवारे से राज्य के किसानों को भारी नुकसान होगा. वह कहती हैं, "उत्तर बंगाल के किसानों की आजीविका तीस्ता के पानी पर निर्भर हैं. पानी की कमी से लाखों लोग तबाह हो सकते हैं." वैसे, ममता यह भी कहती रही हैं कि बातचीत के जरिए तीस्ता के मुद्दे को हल किया जा सकता है. बावजूद इसके मौजूदा राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए इसके आसार कम ही हैं.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस समझौते के तहत किस देश को कितना पानी मिलेगा, फिलहाल यह साफ नहीं है. इसी वजह से ममता इसका विरोध करती रही हैं. जानकारों के मुताबिक, समझौते के प्रारूप के मुताबिक बांग्लादेश को 48 फीसदी पानी मिलना है. ममता की दलील है कि ऐसी स्थिति में उत्तर बंगाल के छह जिलों में सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह ठप हो जाएगी.
बंगाल सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति से अध्ययन कराने के बाद बांग्लादेश को मानसून के दौरान नदी का 35 या 40 फीसदी पानी उपलब्ध कराने और सूखे के दौरान 30 फीसदी पानी देने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन बांग्लादेश को यह मंजूर नहीं है. वहां दिसंबर से अप्रैल तक तीस्ता के पानी की जरूरत सबसे ज्यादा होती है. गर्मी के सीजन में उन इलाकों को भारी सूखे का सामना करना पड़ता है. इस समझौते की राह में सबसे बड़ा रोड़ा यह है कि बांग्लादेश ज्यादा पानी मांग रहा है. लेकिन ममता इसके लिए तैयार नहीं हैं. केंद्र सरकार को पड़ोसी देशों के साथ पानी पर समझौते का कानूनी अधिकार तो है, लेकिन वह संबंधित राज्य सरकार की मंजूरी के बिना ऐसा नहीं कर सकती.
हसीना के लिए अहम है तीस्ता का पानी
हसीना के लिए तीस्ता के पानी का बंटवारे का मुद्दा काफी अहम हो गया है. विरोधी दल तीस्ता के बहाने उन पर भारत के हाथों की कठपुतली होने के आरोप लगाते रहे हैं. वह तीस्ता के पानी से अपनी छवि पर लगे इस दाग को धो सकती हैं. तीस्ता समझौता नहीं होने के विरोध में बांग्लादेश सरकार ने वहां पद्मा नदी से आने वाली हिल्सा मछलियों के निर्यात पर भी लंबे अरसे तक रोक लगा रखी थी, लेकिन ममता टस से मस नहीं हुईं. शायद ममता पर दबाव बनाने के लिए शेख हसीना ने अपने भारत दौरे से पहले एक इंटरव्यू में कहा है, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो पानी की समस्या को हल करने के लिए उत्सुक हैं. लेकिन समस्या आपके देश में है." उन्होंने अपने बयान में ममता का नाम नहीं लिया और मौजूदा दौरे में ममता की उनसे मुलाकात का कोई कार्यक्रम भी नहीं है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि हसीना के मौजूदा दौरे में भी तीस्ता के पानी पर समझौते की कोई उम्मीद नहीं है. पर्यवेक्षकों के मुताबिक, यह मुद्दा बेहद जटिल स्थिति में पहुंच गया है.
सबके लिये राजनीतिक मुद्दा
नदिया जिले के विद्यासागर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर शिवाजी प्रतिम बसु कहते हैं, "देश की कट्टरपंथी ताकतें हसीना पर लगातार दबाव बढ़ा रही हैं. सवाल उठ रहे हैं कि उनको भारत से आखिर क्या मिला है? अब तक तीस्ता समझौता तक लागू नहीं हो सका है." वह कहते हैं कि ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के लिए भी तीस्ता एक राजनीतिक मुद्दा है. ममता अपनी राजनीतिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश को ज्यादा पानी देने का खतरा नहीं मोल ले सकतीं.
यही समस्या वामपंथी शासन के दौर में भी थी. यह नदी उत्तर बंगाल के किसानों के लिए जीवन रेखा है. कोई भी सरकार या राजनीतिक पार्टी इस कृषिप्रधान इलाके के किसानों को नाराज नहीं कर सकती. यही वजह है कि यह मुद्दे इतने लंबे समय से विवाद की जड़ बना हुआ है.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफेसर जितेंद्र नाथ गांगुली कहते हैं, "ममता की दलीलों में कुछ दम जरूर है. लेकिन केंद्र के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा ही फिलहाल इन समझौतों की राह में सबसे बड़ी बाधा है. ऐसे में यह समस्या राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर बातचीत से ही सुलझ सकती है." लेकिन सवाल यह है कि क्या ममता मौजूदा केंद्र सरकार की पहल पर होने वाले ऐसे किसी समझौते के लिए तैयार होंगी? मौजूदा परिस्थिति में तो इसकी संभावना बहुत कम ही नजर आती है.