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तीस्ता पर चीन-बांग्लादेश समझौते से भारत को कितना नुकसान

राहुल मिश्र
२१ अगस्त २०२०

बांग्लादेश भारत का वह पड़ोसी है जिसके साथ पिछले सालों में उसका कोई विवाद नहीं रहा है. लेकिन रिश्ते मुश्किलों से बचे नहीं हैं. अब तीस्ता नदी पर बांध बनाने के लिए चीन के साथ आर्थिक समझौते की पहल से भारत परेशान है.

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तस्वीर: DW/A. Chatterjee

कोविड-19 महामारी और इससे जुड़े तमाम खतरों को अनदेखा करते हुए भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने इस हफ्ते बांग्लादेश का दौरा किया. अचानक लिए इस फैसले के पीछे बड़ी वजह थी चीन और बांग्लादेश का 1 बिलियन डॉलर का तीस्ता परियोजना से जुड़ा समझौता. पिछले कई वर्षों से भारत सरकार के सबसे भरोसेमंद मित्रों में से एक – प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार ने चीन से एक बिलियन डॉलर की मदद मांगी और चीन इसके लिए सहमत भी दिख रहा है. सूत्रों के अनुसार परियोजना पर दिसम्बर से काम शुरू होने की संभावना है.

बड़ी बात यह है कि चीन की इस आर्थिक सहायता का मुद्दा ही तब सामने आया जब भारत ने तीस्ता नदी परियोजना को आर्थिक सहायता देने में अपनी असमर्थता दिखा दी थी. बांग्लादेश के वित्त मंत्रालय ने भारत से 853 मिलियन डॉलर मांगे थे जिसकी मदद से सरकार रंगपुर में तीस्ता नदी पर जल प्रबंधन की अपनी योजना को पूरा करना चाह रही थी. भारत के इंकार के बाद बांग्लादेश ने चीन से सम्पर्क साधा और चीन को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गयी. चीन दक्षिण एशिया में अपनी साख मजबूत करने के लिए पाकिस्तान के अलावा नेपाल और श्री लंका जैसे देशों के साथ अपने संबंध बढ़ाने में कई वर्षों से जुटा हुआ है. बांग्लादेश में भी उसने काफी निवेश कर रखा है. लेकिन यह पहली बार होगा कि चीन बांग्लादेश की नदी प्रबंधन से संबंधित किसी परियोजना में आर्थिक सहायता दे रहा है.

तीस्ता पर जल प्रबंधन की कोशिश

बांग्लादेशी सरकार पिछले कई वर्षों से तीस्ता नदी से जुड़ी मेगा परियोजना शुरू करने की कोशिश कर रही है. इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य तीस्ता के जलस्तर को गर्मी के मौसम में उस स्तर पर बनाए रखना है जिससे आम लोगों और किसानों की पानी से जुड़ी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी हो सकें. इसके अलावा परियोजना का एक और अहम मकसद है बाढ़ और जलजमाव से होने वाले नुकसान को रोकना. तीस्ता उन 54 नदियों में से एक है जो भारत से बहकर बांग्लादेश जाती है और जिसका पानी दोनों देश साझा करते हैं. उत्तरी सिक्किम में स्थित सो-ल्हामो झील से निकलने वाली 315 किलोमीटर लंबी यह नदी पश्चिम बंगाल के रास्ते बांग्लादेश के चिलमारी में ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती है.

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तीस्ता पर बने कई बांधों में से एकतस्वीर: DW/A. Chatterjee

तीस्ता नदी के संदर्भ में बांग्लादेश की शिकायत रही है कि तीस्ता के पानी पर भारत का नियंत्रण है जिसके चलते आवश्यकता के समय भारत इससे लाभ उठाता है, जैसे कि गर्मी और जलस्तर कम होने वाले महीनों के दौरान. बाढ़ आने पर अपने क्षेत्रों को बाढ़ से बचाने के लिए भारत में पानी रोका नहीं जाता बल्कि उसे नदी में छोड़ दिया जाता है. तीस्ता के जल-स्तर को लेकर बांग्लादेश की चिंताएं स्वाभाविक हैं. पिछले कई वर्षों से बांग्लादेश साल के कुछ महीनों, खास तौर पर दिसम्बर और मई में नदी में पानी के घटे स्तर को लेकर परेशान रहा है. इससे उत्तरी बांग्लादेश के किसानों को मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता है.

पानी को लेकर पड़ोसियों में विवाद

भारत भी अपने अन्य पड़ोसियों के साथ इसी तरह की समस्याओं से जूझता रहा है.मानसून के समय नेपाल से बाढ़ का पानी भारत आ जाने से दोनों देशों के बीच आए दिन आपसी तनाव की स्थिति उत्पन्न होती रहती है. खास तौर पर जब बिहार में बाढ़ की स्थिति खराब होती है. वहीं दूसरी ओर चीन और पाकिस्तान नदियों के पानी को राजनीतिगत कारणों से भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए वर्षों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं. भारत-बांग्लादेश सबंधों में भारत के पश्चिम बंगाल प्रदेश की बड़ी भूमिका है. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने भारत-बांग्लादेश के साथ संबंधों में रुकावटें ही पैदा की हैं और यह समीकरण मोदी और उनसे पहले मनमोहन सिंह सरकार के समय में भी एक जैसे ही रहे हैं. मिसाल के तौर पर सितंबर 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ढाका यात्रा के दौरान भी तीस्ता समझौते का मसौदा अजेंडे में था लेकिन ममता बनर्जी के विरोध के चलते इसे दरकिनार कर दिया गया.

भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता के विभिन्न आयामों को लेकर पिछले कई वर्षों से बातचीत होती रही है. तीस्ता के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार आश्वासन भी दिए लेकिन अभी तक इन वादों को मूर्त रूप नहीं दिया गया है. उदाहरण के तौर पर 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो नेबरहुड फर्स्ट नीति के तहत बांग्लादेश के साथ संबंधों को सुधारने पर और बल दिया गया. जून 2015 में जब मोदी बांग्लादेश गए तो उनके साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी गयीं. मोदी ने आश्वासन भी दिया कि वह तीस्ता का मुद्दा जल्द ही सुलझाएंगे. लेकिन विदेश नीति की भूलभुलैया में यह मुद्दा कहीं पीछे छूट गया.

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भारत में तीस्ता नदी पर एक पुलतस्वीर: DW/A. Chatterjee

भारत बांग्लादेश के अहम रिश्ते

बांग्लादेश का भारत की दक्षिण एशिया नीति में महत्वपूर्ण स्थान रहा है. मोदी की नेबरहुड फर्स्ट नीति में भी बांग्लादेश बड़ा स्थान रखता है. भूटान के अलावा बांग्लादेश ही ऐसा देश है जिसके साथ पिछले छह वर्षों में कोई विवाद नहीं रहा है. मोदी मंत्रिमंडल के कई मंत्रियों ने बार-बार इस बात का उल्लेख भी किया है. इन मधुर और मजबूत संबंधों के पीछे दोनों ही देशों का साझा योगदान है. खास तौर पर 2009 से जब बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार सत्ता में आयी. पिछले कई वर्षों में बांग्लादेश ने भारत की आतंकवाद और चरमपंथियों के खिलाफ मुहिम में डट कर भारत का साथ दिया है. चाहे वह लड़ाई उल्फा (यूनाइटेड लिबरेशन फ़्रंट आफ असम) उग्रवादियों के खिलाफ हो, उल्फा और अन्य उग्रवादी नेताओं का प्रत्यर्पण हो या पाकिस्तानी आईएसआई समर्थित आतंकवादियों का बांग्लादेश से सफाया.

शेख हसीना से पहले खालिदा जिया सरकार के समय भारत में उल्फा और उत्तर-पूर्वी भारत में सक्रिय कई उग्रवादी संगठनों के लिए भारत में अपराध कर बांग्लादेश में शरण लेना आसान था. भारत का आरोप रहा है कि आईएसआई के लिए भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए बांग्लादेश में अपना ठिकाना बनाना भी आसान था. शेख हसीना के प्रधानमंत्री बनने के बाद इन सभी भारत विरोधी गतिविधियों पर बड़ा अंकुश लगा. पिछले एक साल में बांग्लादेश में भारत सरकार की कुछ नीतियों को लेकर चिंताएं दिखी हैं जिनमें असम और उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों में एनआरसी लाने के पीछे बांग्लादेशी नागरिकों को कारण बताना और बीएसएफ की भारत-बांग्लादेश सीमा पर कार्रवाई प्रमुख हैं. लेकिन इसे प्रधानमंत्री शेख हसीना का प्रभाव ही कहा जाएगा कि विरोध के स्वर मुखर नहीं हुए.

जहां तक तीस्ता का सवाल है तो बात अभी भी बिगड़ी नहीं है. दोनों देशों की सरकारों को आपसी बातचीत के जरिए एक समाधान निकालना चाहिए. जहां चाह है वहां राह भी है लेकिन अप्रैल 2021 तक उस राह के आगे रोड़ा है पश्चिम बंगाल में प्रस्तावित चुनाव और भारत-बांग्लादेश संबंधों का कोई हितैषी नहीं चाहेगा कि तीस्ता पश्चिम बंगाल के चुनावों में मुद्दा बने और आपसी संबंधों को ठेस पहुंचे.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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