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इस्राएल के करीब आ रहे हैं अरब देश, ईरान में खलबली क्यों?

१४ सितम्बर २०२०

यूएई के बाद एक और अरब देश बहरीन ने इस्राएल से राजनयिक संबंध कायम करने की घोषणा की है. अब सवाल है कि क्या जल्द सऊदी अरब की तरफ से भी ऐसी घोषणा होगी. जो भी हो, लेकिन अरब दुनिया के बदलते समीकरणों से ईरान में खलबली मची है.

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Kombolbild Benjamin Netanyahu und König Hamad bin Isa Al Khalifa
तस्वीर: Getty Images/AFP/R. Zvulun/F. Nureldine

मध्य पूर्व में इस्राएल के साथ बढ़ती नजदीकियों को अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की बड़ी कामयाबी बताया जा रहा है. नॉर्वे के एक सांसद ने तो ट्रंप का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी भेज दिया. उनका कहना है कि ट्रंप देशों के बीच शांति कायम कर रहे हैं. लेकिन इलाके पर नजर रखने वाले जानकारों का कहना है कि जिन देशों के बीच "शांति" कायम करने का श्रेय ट्रंप ले रहे हैं, उनके बीच तो कभी युद्ध नहीं हुआ.

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) अमेरिका का नजदीकी सहयोगी रहा है. उसने कभी इस्राएल से कोई युद्ध नहीं लड़ा. इस्राएल के साथ राजनयिक संबंध कायम करने की औपचारिक घोषणा यूईए ने भले ही अब की हो, लेकिन ईरान के खिलाफ बने गठबंधन में तो यूईए इस्राएल के साथ कई साल से अनौपचारिक सहयोग कर रहा है. अब नई डील होने के बाद यूईए को अत्याधुनिक अमेरिकी हथियार मिलने का रास्ता साफ होगा. वहीं इस्राएल और फलीस्तीनियों के बीच दशकों से चल रहे विवाद का समाधान अब शायद सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है. यही विवाद दशकों तक इस्राएल और अरब देशों के रिश्तों में बाधा रहा. लेकिन अब इलाके की हकीकत बदल रही है.

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यूएई के बाद अब बहरीन ने भी इस्राएल के साथ राजनयिक संबंध कायम करने को हरी झंडी दिखा दी है. बहरीन के फैसले के बाद यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या सऊदी अरब भी जल्द ऐसा कदम उठाएगा? ऐसा होता है तो यह इस्राएल के लिए शायद सबसे बड़ी जीत होगी. बहरीन के सुन्नी शासकों के सऊदी अरब से नजदीकी रिश्ते हैं. जब 2011 में बहरीन में सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए तो उन्हें दबाने में सऊदी अरब ने बहुत मदद की थी. यूएई और इस्राएल के बीच समझौते को भी सऊदी अरब का मूक समर्थन रहा है. यही नहीं, जब इस्राएल और यूएई के बीच सीधी व्यावसायिक उड़ानों की बात आई, तो सऊदी अरब ने अपने वायुक्षेत्र को खोल दिया.

इस्राएल-फलस्तीनी विवाद की गांठ

दरअसल मध्य पूर्व में कूटनीति और रणनीति की असल धुरी ईरान से इस्राएल और अरब देशों की प्रतिद्वंद्विता है. लेकिन बहुत से लोगों का मानना है कि लंबी अवधि में बहुसंख्यक यहूदी और लोकतांत्रिक देश इस्राएल को अगर किसी से खतरा है तो वह है फलीस्तीनियों से उसका विवाद. भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच बसे क्षेत्र में जल्द ही फलस्तीनी आबादी में यहूदियों को पीछे छोड़ सकते हैं.

अरब इस्राएल में कब दोस्ती होगी

ट्रंप प्रशासन को उम्मीद है कि इस्राएल के साथ ज्यादा से ज्यादा देश अपने रिश्ते सामान्य करेंगे, तो इससे फलस्तीनियों पर शांति वार्ता में लौटने का दबाव बढ़ेगा, जो बीते दस साल से अटकी पड़ी है. पिछले तीन साल में ट्रंप ने फलस्तीनियों को दी जाने वाली मदद में कटौती कर दी, येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के तौर पर मान्यता दे दी, इस्राएली बस्तियों पर अमेरिका की लंबे समय से चले आ रही आपत्तियों को छोड़ दिया और मध्य पूर्व के लिए ऐसी योजना तैयार की जिसमें खुले तौर पर इस्राएल का पक्ष लिया गया है.

उधर फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने यह कहते हुए मई में अमेरिका और इस्राएल से अपने सारे संबंध तोड़ लिए कि फलस्तीनी किसी भी पुराने समझौते से नहीं बंधे हैं. फलस्तीनियों ने इस्राएल और यूएई के बीच डील को धोखेबाजी कहते हुए खारिज किया और यह भी कहा कि उनकी तरफ से किसी भी देश को कोई समझौता करने का हक नहीं है. एक वरिष्ठ फलीस्तीनी अधिकारी हनान अशरवी कहते हैं, "इस्राएल के साथ संबंध सामान्य करने से इस विवाद पर कोई असर नहीं होगा. ऐसी कोशिशों के जरिए आजादी और संप्रभुता के फलस्तीनी लोगों के अधिकार को व्यवस्थित तरीके से खारिज किया जा रहा है."

फलस्तीनी लोग पिछले तीन दशक से पूर्वी येरुशलम, वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में अपने अलग देश के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इस्राएल ने 1967 में अरब देशों के साथ युद्ध में इन इलाकों पर कब्जा कर लिया था. इस्राएल 2005 में गाजा से हट गया, लेकिन दो साल बाद वहां चरमपंथी गुट हमास के सत्ता में आने के बाद गाजा पट्टी की नाकाबंदी कर दी गई.

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ईरान की प्रतिक्रिया

दूसरी तरफ, इस्राएल के साथ अरब देशों  के बढ़ते संबंध ईरान को परेशान कर रहे हैं. इस्राएल के साथ राजनयिक रिश्ते कायम करने की बहरीन की घोषणा को ईरान ने "शर्मनाक और नीच कदम" करार दिया है. ईरानी विदेश मंत्रालय ने कहा कि इस्राएल से रिश्ते सामान्य करने का बहरीन का कदम "शोषित और दबे कुचले फलस्तीनी लोगों और दुनिया के आजाद देशों की ऐतिहासिक स्मृति में दर्ज होगा."

ईरान के ताकतवर अर्धसैनिक बल रेवोल्यूशनरी गार्ड्स ने भी ऐसी भाषा इस्तेमाल करते हुए इसे फलीस्तीनी लोगों के साथ धोखा करार दिया है. उसने इस कदम को "पश्चिमी एशिया और मुस्लिम दुनिया में सुरक्षा के लिए खतरा" बताया है. यूएई और बहरीन का फैसला फलस्तीनी नेताओं के लिए एक बड़ा झटका है, जो चाहते थे कि आजाद और सुरक्षित फलस्तीनी राष्ट्र बनने के बाद ही अरब देश इस्राएल को मान्यता दें. लंबे समय तक अरब देश इस बात पर कायम रहे. लेकिन अब हालात तेजी से बदल रहे हैं.

ईरान की तरह बहरीन भी शिया बहुल देश है. लेकिन वहां राज करने वाला अल खलीफा परिवार सुन्नी है. ईरान में 1979 की क्रांति से बाद से ही बहरीन के शासकों का आरोप रहा है कि ईरान उनके यहां चरमपंथियों को हथियार मुहैया कर रहा है. हालांकि ईरान ऐसे आरोपों से इनकार करता है. बहरीन की बहुसंख्यक शिया आबादी का आरोप है कि उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार होता है. 2011 में शियाओं ने लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन किए और बहरीन के शासकों से ज्यादा राजनीतिक आजादी मांगी. लेकिन सऊदी अरब और यूएई ने वहां अपने सैनिक भेजे और सरकार विरोधी प्रदर्शनों को हिंसक तरीके से दबा दिया गया.

एके/एमजे (एपी)

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