रिया और सुशांत एक दूसरे के प्यार में थे और सुशांत की मौत के कुछ दिन पहले तक एक साथ उनके घर में लिव-इन में रहते थे. ये दोनों उसी बॉलीवुड से आते हैं, जो हिंदी फिल्में देखने वालों को सौ साल से दिखाता आया है कि प्यार और तकरार, रूठना और मनाना, मिलना और बिछड़ना रोमांटिक संबंधों में लगा ही रहता है. ऐसे एक रोमांटिक जोड़े के बीच क्या हुआ होगा, यह तो किसी को ठीक ठीक पता नहीं लेकिन सबने अपनी अपनी फिल्मी कहानियां रच डालीं.
इस पूरे मामले पर मीडिया की मनमानी और गैरजिम्मेदाराना कवरेज ने समाज के तमाम रूढ़िवादी धारणाओं से ग्रस्त लोगों की सोच को हवा दे दी, जो अव्वल तो अपनी मर्जी से किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला की इज्जत नहीं करते और मौका मिलने पर उसे डायन करार देने से भी पीछे नहीं हटते. ऐसे लोगों की चले तो वे बिना किसी के दोषी साबित हुए ही आज के युग में भी महिला को चिता सजा कर जिंदा जला दें. सैकड़ों साल पहले तमाम संघर्ष के बाद जिन कुप्रथाओं को मिटाया गया, उसकी जड़ें कहीं ना कहीं आज भी इस सोच के रूप में हमारे अंदर मौजूद हैं.
ऋतिका पांडेय
आर्थिक और सामाजिक रूप से भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल बिहार से आकर भी सुशांत ने अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर अपना सपना पूरा किया. नहीं पता कि इसके बाद उनके अपने परिवार से रिश्ते कितने बदले, लेकिन रिया के साथ उनके 'लिव-इन' रिश्ते में होना सबको खटका और दोनों पक्षों के रवैये से साफ है कि रिया और सुशांत के परिवार के किसी भी सदस्य की आपस में नहीं बनती थी. लेकिन एक प्रतिभाशाली अभिनेता के इस दुखद अंत के बाद से तो उनके परिवार से रिश्ते खराब होने से लेकर खुद उनकी मौत के लिए भी सीधे तौर पर एक ही इंसान पर निशाना साधा गया और वह रहीं गर्लफ्रेंड रिया.
बिहार में जेडीयू नेता महेश्वर हजारी ने रिया को विष-कन्या का विशेषण देते हुए बयान दिया कि "उन्हें एक सोची-समझी साजिश के तहत भेजा गया सुशांत को प्यार के जाल में फंसाने के लिए और उन्होंने उनका क्या हाल किया हम सब जानते हैं.” ऐसे बयानों की सोशल मीडिया पर तो जैसे झड़ी लग गई जिसमें रिया ही नहीं सभी "बंगाली औरतों” पर लैंगिक भेदभाव के साथ साथ क्षेत्रवाद में लिपटी हुई टिप्पणियां की गईं. बिहार समेत समूचे गोबर पट्टी से लिव-इन करने वाली, अंग्रेजी बोलने वाली, शादी के पहले यौन संबंध को पाप ना मानने वाली और ऊंचे स्वर में स्पष्टता से अपनी बात रखने वाली तमाम बंगाली औरतों के चरित्र की बधिया उधेड़ दी गई "जो काला जादू कर उत्तर भारत के मर्दों को बिगाड़ देती हैं.”
इतिहास के मध्यकाल में ऐसे ही काला जादू करने का आरोप लगा कर महिलाओं को निशाना बनाया जाता था. उन्हें घर से बाहर खींच कर सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा किया जाता और कभी पत्थर मार कर तो कभी सूली चढ़ाकर इसकी ‘सजा' दी जाती. आज रिया भी उसी सलीब पर टांगी गई हैं. भारत समेत दुनिया भर में पहले न्याय व्यवस्था से बाहर समाज में ही कभी अपने किसी फायदे तो कभी कोई कुंठा निकालने के लिए तमाम महिलाओं को डायन, चुड़ैल बता कर उनका अपमान करने और क्रूर अंजाम तक पहुंचाने की अनगिनत मिसालें रही हैं.
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एक दिन के लिए चुड़ैलों का शहर
कहां से आती हैं इतनी चुड़ैलें
राजधानी बर्लिन से करीब 200 किलोमीटर दूर इस इलाके में 30 अप्रैल के आसपास आने वाले लोग अपने इर्दगिर्द इतनी बड़ी संख्या में चुड़ैलों को देख कर हैरान हो जाते हैं. दरअसल यह स्थानीय लोग ही हैं जो इस दिन चुड़ौल का वेष धरते हैं.
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हर तरफ हर जगह चुड़ैल
इस दिन गुड़ियों को भी चुड़ैल की शक्ल दे दी जाती है. बिजली के खंभों से लेकर पेड़ों, पार्क की बेंचों पर तो खिड़कियों या दीवारों से लटकती हुई अलग अलग रंग और आकार की चुड़ैलें आपको नजर आएंगी, लेकिन घबराइए मत, ये नुकसान नहीं पहुंचाएंगी.
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चुड़ैल बनाने वाली औरतें
ब्राउनलागे नाम के इस पहाड़ी शहर में 10 औरतों का एक क्लब है वालपुर्गिस. क्लब की औरतें नए नए डिजाइन की डरावनी चुड़ैल बनाती या मरम्मत करती हैं. इसके बाद इन्हें किराए पर दे दिया जाता है या फिर ये खुद ही इन्हें जगह जगह जा कर लगा आती हैं.
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चुड़ैलों की साजसज्जा
डरावने चेहरे, लंबी टेढ़ी नाक, उलझे हुए बाल, पुराने पर्दे या चादर से बने कपड़े और लंबी नुकीली टोपियां या फिर एप्रन पहना कर गुड़ियों को चुड़ैलों की शक्ल दी जाती है. क्लब में आने वाले लोग अपनी अपनी पसंद से चुडैलों को चुनते हैं.
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पहले से तैयारी
चुड़ैलों का मेला तो अप्रैल के आखिर में लगता है लेकिन इसकी तैयारी क्रिसमस के तुरंत बाद से ही शुरू हो जाती है. चुड़ैल पाने के ख्वाहिशमंद हर शख्स को चुड़ैल मिल जाए, इसके लिए क्लब के लोग काफी मेहनत करते हैं, तब जा कर मांग पूरी होती है.
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सैकड़ों साल पुरानी परंपरा
वालपुर्गिस त्योहार की परंपरा ईसाईयत से पहले के वक्त से ही चली आ रही है. यह पर्व स्थानीय लोग वसंत के स्वागत में मनाते थे. बाद में चर्च ने इसके नए मायने गढ़ दिए. एक मई को सेंट वालपुर्गा के जन्मदिन के रूप में मनाया जाने लगा, जो अंधविश्वास और आत्माओं से लोगों को बचाते थे.
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घर घर में चुड़ैल
स्थानीय लोग चुड़ैल लेकर जाते हैं और कोई इसे अपने दरवाजे पर लगाता है तो कोई पेड़ की डालियों पर. कोई झाड़ियों की झुरमुट में छिपा कर रख देता है. छोटी बड़ी चुड़ैलें पूरे शहर में दिखने लगती हैं और ऐसा लगता है जैसे वो इसी शहर का एक हिस्सा हों.
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आसपास के इलाकों में विस्तार
चुड़ैलों का पर्व अब सिर्फ ब्राउनलागे में ही नहीं बल्कि आसपास के दूसरे शहरों में भी मनाया जाने लगा है. इस साल 20 शहरों में 10 हजार से ज्यादा लोग चुड़ैलों को अपने घर ले कर गए हैं. अगले दिन मई दिवस की छुट्टी है तो कोई चिंता की भी बात नहीं.
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सैलानियों का आकर्षण
धीरे धीरे इस पर्व ने लोकप्रियता भी हासिल कर ली है. अब तो इस दिन चुड़ैलों को देखने के लिए सैलानियों की भी भीड़ उमड़ती है. बहुत सारे लोग खुद भी चुड़ैलों की पोशाक और मुखौटे लगाकर चुड़ैल बन जाते हैं.
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चुड़ैलों की वापसी
त्योहार खत्म होने के बाद सारी चुड़ैलें लोग वापस कर जाते हैं. अब तक ऐसा नहीं हुआ कि कोई चुड़ैल चोरी हो जाए या फिर वापस ना लौटे. इन्हें अगले साल फिर से इस्तेमाल करने के लिए सुरक्षित रख दिया जाता है. जो टूट फूट हुई हो, उसकी मरम्मत कर दी जाती है.
महिलाओं पर अत्याचार करने से भी ज्यादा मजा कई कुंठित लोगों को उन पर अत्याचार होते देखने मे आता है. इसका प्रमाण मध्यकाल में खुले मैदानों में इकट्ठे हुए लोगों से लेकर, आज के गावों में चुड़ैल बता कर रस्सी से बांध कर, मुंह काला कर, कपड़े फाड़ कर और अंतत: पेड़ से बांध कर तब तक कष्ट देने की घटनाओं में साफ समझ आता है, जब तक वह महिला टूट कर खत्म ना हो जाए. महिला-सशक्तिकरण की थीम पर बनी पुरानी से लेकर इस साल आई बुलबुल जैसी कुछ फिल्में देखिए तो पता चलता है कि इनमें महिलाओं पर हिंसा और अत्याचार को कितने विस्तार से दिखाया जाता है. ऐसा लगता है कि फिल्म बनाने वाले भी इसका एक एक पल इत्मीनान से दिखाना चाहते हैं क्योंकि दर्शकों में इसे देखने की इतनी भूख है. अंत में महिला (या उसके भूत) के हाथों अत्याचारियों की हत्या करवा कर कहानी खत्म कर दी जाती है.
इस समय मीडिया में जैसी कहानी रिया के इर्द गिर्द बुनी गई है, वैसा कुछ दशक पहले सदाबहार अभिनेत्री रेखा के साथ भी हुआ था. जो रेखा 1970 और 1980 के दशक तक आजादख्याल और अपने ख्यालों को बेबाकी से रखने के लिए जानी जाती थीं, अचानक उनके पति की आत्महत्या के बाद बदल गईं. इतनी बड़ी निजी त्रासदी से किसी का थोड़ा बदल जाना समझा जा सकता है लेकिन उस समय भी मीडिया ने रेखा का जैसा चरित्र हनन किया और उनके पति मुकेश अग्रवाल की मां ने उन्हें "बेटे को खाने वाली डायन” बताया था, उसका असर यह रहा कि अपने स्वभाव के विपरीत रेखा ने तबसे खुद को बाकी दुनिया से काट कर जिया है. कम उम्र में केवल कुछ महीनों की शादी के बाद अपने पति को खोने वाली महिला से सहानुभूति दिखाने के बजाए रेखा को ही डायन, चुड़ैल और ना जाने क्या क्या कहा गया और अब कुछ वैसा ही रिया के साथ होता दिख रहा है.
सच तो ये है कि घर के बेडरूम, किचन और बच्चों के कमरे से बाहर निकल कर कुछ भी करने वाली हर आम महिला पर यह खतरा हमेशा मंडराता रहता है. अभिनेत्रियां तो आमतौर पर औसत से ज्यादा खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व वाली होती हैं, इसलिए उन पर इसका खतरा और ज्यादा है. जिस महिला के लिए पितृसत्तात्मक समाज ने घर में खाना पकाने और परोसने का काम तय किया था, वो अगर ऐसा नहीं करती तो खाने में जहर देने वाली औरत हो सकती है. जिसे बच्चे पैदा करने और परवरिश करने का काम दिया था, वो अगर अपने बच्चे पैदा नहीं करना चाहती, तो उसे भी चुड़ैल करार दिया जा सकता है क्योंकि ऐसी हर औरत इन एकतरफा मानकों पर खरी ना उतरने वाली एक ‘मिसफिट' है. सुशांत के परिवार का दुख तो समझ आता है लेकिन बाकी लोग जो इस मामले में रिया का खून मांग रहे हैं, उन्हें एक बार सोचना चाहिए कि वे खुद क्या बन गए हैं.
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सिर्फ डिप्रेशन ही नहीं, दीपिका कई वर्जनाओं को तोड़ने में लगी हैं. एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने खुल कर अपने डिप्रेशन के बारे में बात की. उन्होंने कहा, "मुझे समझ नहीं आता था कि मैं कहां जाऊं, क्या करूं. मैं बस रोती रहती थी." दीपिका के इस बयान को बहादुरी भरा बताया गया और इसने सोशल मीडिया पर डिप्रेशन के मुद्दे पर बहस छेड़ दी.
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2013 में जिया खान की खुदकुशी की खबर से सब सकते में रह गए. महज 25 साल की उम्र में जिया ने अपने जीवन का अंत करने का फैसला ले लिया और मुंबई के अपने अपार्टमेंट में आधी रात को गले में फंदा डाल लिया. माना जाता है कि खूबसूरत मुस्कुराहट वाली जिया पर करियर का बहुत दबाव था.
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रिपोर्ट: ईशा भाटिया