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समाजजापान

जापान में एक बार फिर चुनावी घमासान

राहुल मिश्र
२५ अक्टूबर २०२१

31 अक्टूबर को होने वाले चुनाव में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) के नेता और नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री फुमियो किशीदा और कॉन्स्टिट्यूशनल डेमोक्रैटिक पार्टी के नेता युकिओ इदानो के बीच सीधी टक्कर है.

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तस्वीर: Carl Court/REUTERS

इन चुनावों में नेशनल डायट के निचले सदन की 465 संसदीय सीटों पर 1050 से अधिक उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला होना है. 2020 में शिंजो आबे के प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के बाद से ही लग रहा था कि चुनाव कभी भी हो सकते हैं. बहरहाल, अगर इन चुनावों की बात की जाय तो स्पष्ट है कि हाल ही में सत्तारूढ़ हुए प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के लिए यह चुनाव बहुमत बरकरार रखने का है. वहीं विपक्षी कॉन्स्टिट्यूशनल डेमोक्रैटिक पार्टी अपने चुनावी गठबंधन के सदस्यों के साथ किशिदा को टक्कर देने में लगी है.

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किशिदा बहुत काम समय पहले प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठे हैं, और उनसे पहले कुर्सी छोड़े योशिहिदे शुगा की कमजोर अप्रूवल रेटिंग किशिदा के लिए चिंता का सबब है. एलडीपी के पास फिलहाल 276 सीटें हैं और प्रधानमंत्री किशिदा की यह पूरी कोशिश होगी कि वह अक्टूबर चुनाव में कुल 465 सीटों में से कम से कम 233 सीटें उनकी झोली में आ गिरें. वैसे यह इतना मुश्किल नहीं है लेकिन भूतपूर्व प्रधानमंत्री योशिहिदे शुगा की तेजी से घटी लोकप्रियता और फुमिओ किशिदा का सत्ता संभालना - दोनों ही बातों से साफ है कि जनता और एलडीपी दोनों ही चुनाव को हलके में नहीं ले रहे.

पहली बार कम हैं उम्मीदवार

अगर उम्मीदवारों की बात करें तो फाइल किये गए नामांकनों की कुल संख्या पिछले करीब एक दशक के मुकाबले में सबसे कम के स्तर पर जा पहुंची है. जानकारों का मानना है कि 1996 में प्रपोरशनल रिप्रजेंटेशन सिस्टम या आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लांच होने के बाद से यह पहली बार हुआ है कि जापान के निचले सदन के चुनावों में उतने उम्मीदवार देखने को नहीं मिल रहे हैं. कहीं न कहीं यह संख्या कोविड महामारी और उससे उपजी चुनौतियों के चलते है. लेकिन इसके पीछे जापानी जनमानस में बढ़ता चुनावी थकान का अहसास भी हो - इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है. अगर भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे के कार्यकाल को छोड़ दिया जाए तो जापान में आम तौर पर चुनी सरकारों की हालत आयाराम- गयाराम के ढर्रे पर ही चलती दिखती है.

इन चुनावों में सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रैटिक पार्टी की नीतियां चुनाव का रुख तय करेंगी जिसके रुझान साफ तौर पर दिखने शुरू भी हो गए हैं. एलडीपी के कामकाज का मूल्यांकन तो जनता जनार्दन करेगी ही लेकिन मुद्दों की फेरहिस्त में सबसे बड़ा मुद्दा रहेगा - कोविड महामारी के दौरान सरकार का कामकाज और कोविड से जुडी तमाम आर्थिक, सामजिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी चुनौतियों से जूझने में सरकार की मुस्तैदी.

कोविड के अलावा, अगर नीतिगत स्तर पर देखा जाए तो जापान की आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा भी राजनीतिक विश्लेषकों और मीडिया की तरफ से पेश किया जा रहा है. एलडीपी पिछले नौ सालों से जापान की सत्ता पर काबिज रही है. इस सन्दर्भ में भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की फ्लैगशिप आर्थिक नीति "आबेनोमिक्स” न सिर्फ मशहूर रही बल्कि आर्थिक तौर पर सफल भी रही. आबे की "आबेनोमिक्स” ने जापान की आर्थिक व्यवस्था में व्यापक सुधारों का बीड़ा उठाया और उसमें वह काफी सफल भी रही. यह आबेनोमिक्स के चलते ही हुआ कि जापान आर्थिक अपस्फीति या डिफ्लेशन से खुद को उबार सका.

बढ़ती उम्र का असर

आबे के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय निवेश और घरेलू व्यापार दोनों को बढ़ाने पर खासा जोर दिया गया. जहां एक ओर सरकार की तरफ से फिस्कल (राजकोषीय) और मोनेटरी (मौद्रिक) प्रोत्साहन दिए गए तो वहीं कारपोरेट टैक्स में भी कमी की गयी.

चुनाव से जुड़े सर्वे में भी यही मुद्दे सामने आ रहे हैं. इन्ही बातों के मद्देनजर किशिदा ने स्वास्थ्य सेवा से जुड़े कर्मचारियों और नर्सों इत्यादि के वेतनमान में वृद्धि करने और उनके लिए कई सहूलियतों को बढ़ाने का वादा भी किया है.

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जापान एक एजिंग सोसाइटी है जहां 65 से ऊपर की आयु वर्ग के लोगों की तादात तेजी से बढ़ती जा रही है. ऐसे में वृद्धजनों की देखभाल और उनके लिए सरकारी सुविधाओं की मांग भी चुनावी बहसों में उठ रही है. जापान की इंटरनल अफेयर्स मिनिस्ट्री की सितम्बर 2021 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार 65 साल से अधिक उम्र के लोगों की संख्या इस साल बढ़ कर 3 करोड़ 64 लाख हो गयी है. यह संख्या जापान की कुल जनसंख्या का 29.1 प्रतिशत है जो दुनिया के 201 देशों की सूची में सबसे ज्यादा है.

वृद्धों की देखभाल, कोविड वैक्सीन के बूस्टर डोज, कोरोना महामारी और ऐसी अन्य महामारियों की रोकथाम से जुडी मेडिकल रिसर्च जैसे मुद्दों का जापान सरीखे विकसित और आधुनिक देश की चुनावी राजनीति में लाइमलाइट में आना कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन एलडीपी के वादों और इरादों से लगता है कि विपक्षी कम्युनिस्ट दलों को नाकाम करने की कोशिश में भी कुछ मुद्दों को लाया गया है जिनमें प्रमुख है कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में व्यापक बढ़ोत्तरी.

विदेश नीति

जहां तक विदेशनीति का मामला है तो किशिदा की पारिवारिक पृष्ठभूमि से साफ है कि उनका झुकाव चीन के मुकाबले ताइवान की तरफ रहेगा और आबे के कार्यकाल में हासिल सफलताओं को वो और आगे ले जाने की कोशिश करेंगे.

जो भी हो, फिलहाल के रुझानों से तो यही लगता है कि एलडीपी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरेगी. एलडीपी को अकेले बहुमत मिलता है और किशिदा अपनी कुर्सी पर काबिज रह पाते हैं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.

जापान की अर्थव्यवस्था और विदेशनीति के लिए जरूरी है कि जीत किसी भी पार्टी/गठबंधन की हो उसे स्पष्ट बहुमत मिले. घरेलू राजनीतिक अस्थिरता जापान के लिए इस समय सबसे बड़ा संभावित खतरा है. आशा की जाती है कि जापान की जनता जनार्दन इस खतरे को अपनी सूझबूझ से टालने में समर्थ रहेगी.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

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