नीदरलैंड्स ने इंडोनेशिया से माफी मांगी
१८ फ़रवरी २०२२इंडोनेशिया 17वीं शताब्दी से लेकर 1949 तक नीदरलैंड्स के अधीन रहा. लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नीदरलैंड्स खुद जर्मनी के नियंत्रण में आ गया. ऐसे में हजारों किलोमीटर दूर इंडोनेशिया को कंट्रोल में रखना उसके लिए मुश्किल होने लगा. जापान ने इस स्थिति का फायदा उठाया और इंडोनेशिया में आजादी के आंदोलन को हवा देनी शुरू की. 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका के परमाणु हमले के बाद एशिया में दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हो गया. जापान के राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया.
जापानी राजा के आत्मसमर्पण के दो दिन बाद 17 अगस्त 1945 को इंडोनेशिया के नेताओं ने आजादी का एलान कर दिया. लेकिन विश्वयुद्ध में जापान की हार का फायदा उठाकर नीदरलैंड्स की सेना ने इंडोनेशिया को फिर से नियंत्रण में लेने की कोशिश की. और इस तरह इंडोनेशिया में आजादी का युद्ध शुरू हो गया. स्वतंत्रता के इस युद्ध को डच फौजों ने बर्बर तरीके से कुचलने की कोशिश की.
अनुमानों के मुताबिक इस संघर्ष में 45 हजार से लेकर एक लाख स्वतंत्रता सेनानियों की मौत हुई. मरने वाले आम लोगों की संख्या 25 हजार से एक लाख तक आंकी जाती हैं. 1949 में इंडोनेशिया के आजाद होने के बाद भी नीदरलैंड्स में यही आम धारणा रही कि फौज सिर्फ छिटपुट संघर्ष में शामिल रही और सैन्य कार्रवाइयों का मकसद सिर्फ उपनिवेश पर नियंत्रण बनाए रखना था.
तीन रिसर्च इंस्टीट्यूटों का शोध
अब नीदरलैंड्स में इतिहास पर काम करने वाले तीन रिसर्च इंस्टीट्यूटों के शोध ने इस धारणा को तोड़ा है. चार साल लंबी रिसर्च के बाद प्रकाशित शोध में दावा किया गया है कि नीदरलैंड्स के सैनिकों ने तत्कालीन डच ईस्ट इंडीज (इंडोनेशिया का औपनिवेशिक नाम) में योजनाबद्ध तरीके से बर्बरता को अंजाम दिया. शोध कहता है, "डच सशस्त्र बलों की चरम हिंसा सिर्फ व्यापक ही नहीं थी बल्कि ये अक्सर जानबूझकर की गई कार्रवाई होती थी."
रिसर्चरों के मुताबिक, रिसर्च दिखाती है कि डच पक्ष में ऐसे कई लोग हैं जो इसके जिम्मेदार हैं. इनमें राजनेता, अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, जज और अन्य भी शामिल हैं, इन्हें योजनाबद्ध तरीके से हो रही उस बर्बर हिंसा की भनक या जानकारी थी. इस हिंसा को राजनीतिक, सैन्य और कानूनी, हर स्तर पर नजरअंदाज किया गया. रिसर्चर कहते हैं, "इन वारदातों को बिना सजा के नजरअंदाज करने, जायज ठहराने और छुपाने के पीछे एक सामूहिक सोच थी. यह सब कुछ एक बड़े लक्ष्य के लिए हो रहा था: वो था युद्ध जीतना."
शोध के रिव्यू में साफ लिखा गया है कि, "गैर न्यायिक कार्रवाइंया, बदसलूकी और यातनाएं, अमानवीय परिस्थितियों में हिरासत में रखना, घरों और गांवों में आग लगाना, संपत्ति और भोजन आपूर्ति को चुराना और बर्बाद करना, हवाई हमले और गोलीबारी करना और अकसर बड़ी संख्या में गिरफ्तारी और नजरबंदी, ये सब बहुत आम था." रिसर्चरों के मुताबिक डच सेना के अपराधों और उनका शिकार बने पीड़ितों की सटीक संख्या जुटाना अब नामुमकिन है.
डच सेना का हिस्सा रहे चुके एक भूतपूर्व फौजी ने 1969 में पहली बार इन युद्ध अपराधों का खुलासा किया. उस खुलासे के दशकों बाद भी नीदरलैंड्स की सरकारें लगातार युद्ध अपराध के आरोपों से इनकार करती रहीं. सरकारों ने हमेशा यही तर्क दिए कि हमले गिने चुने थे और पूरी तस्वीर को देखें तो सेना का व्यवहार सही था. शोध साफ कहता है कि यह धारणा बिल्कुल गलत है.
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क्षमा मांगते हुए प्रधानमंत्री ने क्या कहा?
नीदरलैंड्स के प्रधानमंत्री रुटे ने सिर्फ अतीत की बर्बरता के लिए ही माफी नहीं मांगी, बल्कि अब तक डच सरकार द्वारा इन तथ्यों को स्वीकार न करने के लिए क्षमा मांगी. पीएम मार्क रुटे ने कहा, "उन बरसों में डच पक्ष की तरफ से की गई योजनाबद्ध और व्यापक बर्बरता के लिए और पुरानी सरकारों द्वारा लगातार इसे नजरअंदाज किए जाने के लिए, मैं तहेदिल से इंडोनेशिया के लोगों से माफी मांगता हूं."
रुटे ने कहा कि शोध में सामने आने वाले तथ्य असहज करने वाले हैं, लेकिन इन्हें स्वीकार करना होगा, सरकार "सामूहिक नाकामी" की पूरी जिम्मेदार लेती है.
यह पहला मौका नहीं है जब नीदरलैंड्स ने इंडोनेशिया से माफी मांगी हो, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब डच सरकार ने यह स्वीकार किया है कि इंडोनेशियाई लोगों को साथ जानबूझकर और एक सिस्टम बनाकर बर्बरता की गई. इससे पहले मार्च 2020 में डच राजा किंग विलियम-आलेक्जांडर ने भी डच सेना की बर्बरता के लिए माफी मांगी. 2016 में नीदरलैंड्स के तत्कालीन विदेश मंत्री ने भी डच सेना द्वारा इंडोनेशिया के एक गांव में 400 लोगों के जनसंहार के लिए माफी मांगी.
ओएसजे/एके (रॉयटर्स, डीपीए, एएफपी, एपी)