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समानतानाइजीरिया

सीरम इंस्टीट्यूट की मदद से पहली मेड इन नाइजीरिया वैक्सीन

१६ सितम्बर २०२२

कोरोना महामारी के दौर में जब अमीर देश वैक्सीन की बूस्टर डोज ले रहे थे, तब अफ्रीका के ज्यादातर देश पहली डोज के लिए संघर्ष कर रहे थे. अब भारत के सीरम इंस्टीट्यूट की मदद से नाइजीरिया इस समस्या को खत्म करना चाहता है.

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मंकीपॉक्स की वैक्सीन
तस्वीर: Joe Raedle/AFP/Getty Images

दुनिया में वैक्सीन का सबसे बड़ा निर्माता सीरम इंस्टीट्यूट, अफ्रीका के लिए मेड इन नाइजीरिया वैक्सीन बनाने जा रहा है. भारतीय कंपनी और नाइजीरिया के बीच इस बारे में समझौता हो चुका है. अफ्रीकी महाद्वीप के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश नाइजीरिया के स्वास्थ्य मंत्री ओसगी एहानिरे ने इसकी जानकारी दी है.

दक्षिण अफ्रीका में कोविड टीकाकरण
दक्षिण अफ्रीका में कोविड टीकाकरणतस्वीर: Siphiwe Sibeko/AP Photo/picture alliance

तेल से समृद्ध नाइजीरिया अफ्रीकी महाद्वीप की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. हालांकि देश सारी वैक्सीनें विदेशों से खरीदता है. आयात की जाने वाली वैक्सीनों में पोलियो, टीबी और खसरे का सामान्य टीका भी शामिल है. यही हालत अफ्रीका के ज्यादातर देशों की है. महंगी और आसानी से मिलने वाली बेसिक वैक्सीनों का अभाव वहां एक बड़ा संकट है. अफ्रीका के 10 से ज्यादा देश तो टीकाकरण के लिए विदेशी राहत संस्थाओं और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अभियानों पर निर्भर हैं.

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स्टैंडर्ड वैक्सीनेशन प्रोग्राम की मदद

सीरम इंस्टीट्यूट को नाइजीरिया में वैक्सीन बनाने की अनुमति देश की कैबिनेट ने दी है. एहानिरे कहते हैं, "हमें आशा है कि कुछ वैक्सीनें जो सीरम इंस्टीट्यूट इंडिया बनाता है वो हम भी बनाना शुरू कर पाएंगे और वैक्सीन निर्माण की टेक्नोलॉजी और क्षमता हमारे लोगों तक ट्रांसफर होगी."

समझौते के अन्य बिंदुओं की जानकारी देते हुए नाइजीरियाई स्वास्थ्य मंत्री ने कहा, "हम सबसे पहले रुटीन वैक्सीनों की बात कर रहे हैं, वो वैक्सीनें जो इम्युनाइजेशन के स्टैंडर्ड प्रोग्राम का हिस्सा हैं. कोविड-19 की वैक्सीन की बात नहीं हो रही है."

डील के तहत बायो वैक्सीन नाइजीरिया और सीरम इंस्टीट्यूट मिलकर स्थानीय टीकाकरण अभियान के लिए 15 फीसदी वैक्सीनें प्रोड्यूस करेंगे. बायो वैक्सीन नाइजीरिया में सरकार की हिस्सेदारी 49 फीसदी है, बाकी शेयर निजी निवेशकों के पास हैं.

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घाना में वैक्सीन प्रोडक्शन शुरू करेगी जर्मन कंपनी बायोनटेकतस्वीर: Luke Dray/Getty Images

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वैक्सीन के मामले में अमीर बनाम गरीब

2021 के आखिरी में अमीर देशों में 63 फीसदी आबादी कोविड-19 वैक्सीन की दो डोज ले चुकी थी. अमीर देशों में लोगों के पास यह भी विकल्प था कि वे तीन या चार वैक्सीनों में से किसी एक का चुनाव कर सकें. वहीं गरीब देशों में इस दौरान सिर्फ 1.4 फीसदी लोगों को वैक्सीन लग पाई. यह टीकाकरण भी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं या भारत जैसे कुछ देशों की मदद से संभव हो सका.

कोरोना महामारी के दौरान कनाडा और ब्रिटेन समेत कई समृद्ध देशों के पास अपनी जरूरत से ज्यादा वैक्सीन थी, वहीं दूसरी तरफ दुनिया के बड़े हिस्से में डर और इंतजार पसरा हुआ था.

मुद्दा सिर्फ कोविड की वैक्सीन का नहीं हैं. दुनिया की बड़ी दवा निर्माता कंपनियां, ज्यादातर उन्हीं इलाकों के लिए दवा बनाती हैं, जहां से उन्हें फायदा हो. अफ्रीका में ही पाई जाने वाली कुछ बीमारियों के लिए टीका बनाने में दवा कंपनियां ना के बराबर दिलचस्पी लेती हैं और इसकी वजह है आर्थिक नुकसान.

दिसंबर 2019 मे चीन के वुहान से शुरू हुई कोविड महामारी फरवरी-मार्च 2020 तक दुनिया के अमीर देशों में भी फैल गई. इसके करीब 12 महीने बाद बड़ी दवा कंपनियों ने एक के बाद एक चार वैक्सीनें लॉन्च की. वहीं अफ्रीका में 1976 से फैल रहे इबोला के लिए 2019 में वैक्सीन आई. इबोला से भी पहले से फैल रहे मलेरिया के लिए वैक्सीन बनाने में कई दशक लग गए. 2021 में मलेरिया के खिलाफ कारगर वैक्सीन बनाई जा सकी.

अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों में वैक्सीन और दवाओं की भारी किल्लत
अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों में वैक्सीन और दवाओं की भारी किल्लततस्वीर: Themba Hadebe/AP Photo/picture alliance

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क्यों जरूरी है मेड इन अफ्रीका वैक्सीन

दुनिया में ऐसी कई बीमारियां हैं जो टीके से टाली या थामी जा सकती हैं. इनमें पोलियो, हेपिटाइटस बी, टिटनेस, रेबीज, खसरा, डायरिया, टीबी और मेनिनजाइटिस जैसी बीमारियां हैं. स्वास्थ्य सेवाओं और दवाओं के अभाव में सबसे ज्यादा मौतें हर साल गरीब देशों में होती हैं. ऐसे में अपने यहां दवा और वैक्सीन का प्रोडक्शन मेडिसिन की कमी को कुछ हद तक कम करने में मददगार साबित होता है. अभी अफ्रीका समेत दुनिया के ज्यादातर देश सस्ती दवाओं के लिए भारत पर निर्भर रहते हैं. भारत दुनिया की 60 फीसदी वैक्सीन और 20 फीसदी जेनेरिक दवाएं बनाता है.

ओंकार सिंह जनौटी (रॉयटर्स)