मई 1945: एक ठंडी शांति की शुरुआत
८ मई २०२०यूरोपीय महाद्वीप के लिए दूसरा विश्व युद्ध 9 मई, 1945 को खत्म हुआ माना जाता था. 8 मई के बजाय इस तारीख को हिटलरविरोधी बल ‘विजय दिवस' के रूप में मनाने के लिए सहमत हुए थे. जबकि जर्मन सेना की कुछ टुकड़ियां इस तारीख पर भी सैन्य कार्यवाई में लगी थीं. वे राइम्स में आत्मसमर्पण के इस कदम के खिलाफ अपना विरोध जता रही थीं. इसी समय पूरब में जापान और अमेरिका आपस में पूरे दम खम के साथ युद्ध लड़ने में जुटे थे.
लेकिन जब अमेरिका ने अपने दो परमाणु बम हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए और दूसरी ओर जब पूर्वोत्तर चीन के मंचूरिया की लड़ाई में सोवियत संघ भी घुस गया, तब 2 सितंबर, 1945 को जाकर जापानी साम्राज्य बिना शर्त समर्पण को राजी हुआ. अंत में इस के साथ छह सालों से चल रहे वैश्विक टकराव का अंत हुआ.
‘कम्युनिस्ट खतरे' की चेतावनी
इसके बाद उठी शांति की उमंगों के बीच ही मैत्री बलों की एकता में दरारें दिखनी शुरु हो गई थीं. उस समय के गवाह रहे कई लोगों और इतिहासकारों का मानना रहा है कि 5 मार्च, 1946 को अमेरिका के फुल्टन, मिसूरी में हुए विंस्टन चर्चिल के "आयरन कर्टेन" वाले भाषण से उनके बीच एक बिल्कुल नए तरह के खुलेआम टकराव की शुरुआत हो गई थी.
अमेरिका के अपने दौरे पर पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन की मौजूदगी में पश्चिमी दुनिया को ‘कम्युनिस्ट खतरे' की चेतावनी देते हुए कहा था: "बॉल्टिक सागर में स्टेटिन से लेकर एड्रिआटिक सागर में ट्रिएस्ट तक, पूरे महाद्वीप में एक लोहे का परदा सा पड़ गया है. उस रेखा के पीछे हैं पहले के केंद्रीय और पूर्वी यूरोप की वे सब मशहूर राजधानियां - वॉरसॉ, बर्लिन, प्राग, विएना बुडापेस्ट, बेलग्रेड, बुखारेस्ट और सोफिया - जैसे मशहूर शहर और उनकी आबादी, जिसे मैं सोवियत क्षेत्र कहूंगा जो किसी ना किसी तरह ना केवल सोवियत प्रभाव में हैं बल्कि जिन पर मॉस्को का नियंत्रण बढ़ता ही जा रहा है."
हालांकि चर्चिल ने अपने भाषण में "बहादुर रूसी लोगों के लिए अपनी प्रशंसा और सम्मान" भी जताया था और अपने "युद्धकाल के कॉमरेड, मार्शल स्टालिन" को भी याद किया था लेकिन काफी साफ साफ शब्दों में पश्चिमी शक्तियों का आह्वान भी किया था कि वे सोवियत बल के साथ युद्ध के लिए तैयारी रखें. उन्हें इसका पूरा भरोसा था कि "[सोवियत] केवल ताकत का सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं और उनकी नजर में सबसे कम कद्र है कमजोरी की, वो भी सैन्य कमजोरी की."
अपने निबंध "यू एंड दि एटॉमिक बॉम,” में ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने एक आकर्षक शब्द गढ़ा था "कोल्ड वॉर" जिससे उस वक्त की दुनिया के हालातों का सही सही पता चलता है.
एक ‘ठंडा शांति प्रस्ताव'
चर्चिल के "आयरन कर्टेन" का रूपक तब चरितार्थ होता दिखा जब एक तरह की "तकनीकी बाधा और किलाबंदी तंत्र” ने पूर्वी ब्लॉक को सील कर उसे पश्चिमी देशों से दूर कर दिया. केवल हंगरी और ऑस्ट्रिया के बीच ही करीब 243 किलोमीटर लंबी कांटेदार तारों की दोहरी कतारें खिंच गई थीं और 30 लाख लैंडमाइन बिछे थे. कई "असली सोशलिस्ट" देशों ने भी अपनी सीमाओं से भीतर ही ऐसी कुरूपता को जन्म दे दिया जो कभी बर्लिन की दीवार तो कभी अल्बानिया के 170,000 इमरजेंसी बंकरों के रूप में सामने आया.
ऐसा नहीं है कि आयरन कर्टेल वाले भाषण से ही पूर्व सहयोगियों और विजेताओं के बीच इस दीर्घकालीन विवाद की शुरुआत हुई थी. बल्कि युद्ध के बाद के काल में भी यह उनके मिलजुल कर योजनाबद्ध तरीके से चलने की उसी पुरानी सोच का नतीजा था जिससे चर्चिल जैसी हस्तियां नई विश्व व्यवस्था स्थापित करना चाहती थीं. युद्ध के दौरान ही पश्चिमी सहयोगियों को यह समझ में आ गया होगा कि सोवियत संघ के बढ़ चढ़ कर दिखाई प्रतिबद्धता और त्याग के बदले वह आगे चलकर उसके बदले अपनी मांगें रखेगा और उन्हें मनवाने के लिए अपनी सैन्य शक्ति का वजन भी डालेगा.
चर्चिल की चिंताएं थीं कि कैसे मॉस्को बिना अपनी सीमाओं का विस्तार किए अपने प्रभाव क्षेत्र को इतनी दूर तक फैला सकता है. इसी भावना के साथ उन्होंने वो भाषण दिया था और ऐसी ठंडी शांति की एक सोची समझी पेशकश भी की. डर और परमाणु शक्तियों के बीच संतुलन के इस "ठंडी शांति” के साये में कई पीढ़ियां बड़ी हुईं. इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं कि 40 साल बाद इन सीमाओं को खोलने और दीवार को गिराने को लेकर इतनी तत्परता दिखाई दी. ऐसा लगा कि इसके साथ जाकर सब तरह के युद्धों का अंत हुआ और ऐसी शांति हासिल हुई जिसमें ना तो कोई जीता और ना ही हारा. इसी के साथ "हाउस ऑफ यूरोप" के जादुई विचार का जन्म हुआ.
यूरोप की परीक्षा की घड़ी
इसके बाद हुए तमाम बंटवारों के बावजूद 1945 में हिटलर-विरोधी गठबंधन की जीत ने यह सुनिश्चित किया कि कभी तनाव हुआ तो कभी शांति लेकिन इस पस्त यूरोपीय महाद्वीप में कमोबेश स्थायित्व बना रहा. दूसरी ओर, मध्य पूर्व को देखें या अफ्रीका और एशिया को, या फिर कुछ सालों से यूक्रेन को भी, तो वहां सशस्त्र संघर्ष है. इसका नतीजा यूरोप को हर दिन पहुंचते शरणार्थियों के रूप में दिखता है.
यूरोपीय क्षेत्र में सापेक्ष रूप से शांति बरकरार है. ऐसा नहीं कि यहां जिस एकीकरण की शुरुआत 1989 में हुई वह अब तक बिना किसी चुनौती के चल रहा है. यूरोस्केप्टिक और यूरोप-विरोधी राजनीतिक दल लगभग सभी देशों में मौजूद हैं और कहीं कहीं तो सत्ता में भी. वैश्विक महामारी के आजकल के माहौल में नई चुनौतियां पैदा हुई हैं. इस खतरनाक बीमारी को हराने में यूरोप कितनी एकता दिखाता है और उसके बाद पैदा होने वाले हालातों से कैसे निपटा जाता है, यह सब मिलकर एक बार फिर यूरोप की परीक्षा लेगा.
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