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ऑस्ट्रेलिया का इतना पेचीदा संकट कि मजाक बन गया

विवेक कुमार, सिडनी से
२७ अक्टूबर २०१७

ऑस्ट्रेलिया में काफी लोगों का कहना है कि देश ने अब तक इतना उलझा हुआ लेकिन मजेदार, प्रभावकारी और फिजूल मामला राजनीतिक इतिहास में पहले कभी नहीं देखा.

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Australien Barnaby Joyce
बार्नाबी जॉयस को गंवानी पड़ी कुर्सीतस्वीर: Reuters/AAP/M. Tsikas

पांच सांसदों को अयोग्य घोषित कर दिया गया है क्योंकि वे चुनाव लड़ने के समय ऑस्ट्रेलिया के अलावा किसी और देश के भी नागरिक थे. इनमें देश के उप प्रधानमंत्री बार्नाबी जॉयस भी शामिल हैं. हाई कोर्ट ने, जो कि ऑस्ट्रेलिया की सर्वोच्च अदालत है, आदेश दिया है कि सत्ताधारी गठबंधन में शामिल नेशनल्स पार्टी के दो नेता बार्नाबी जॉयस और फिओना नैश का चुनाव अवैध है. इसके अलावा विपक्ष के तीन सांसद इस फैसले के घेरे में आये हैं. कट्टर दक्षिणपंथी पार्टी वन नेशन के मैलकम रॉबर्ट्स, और ग्रीन्स के दो सांसदों लैरिसा वॉटर्स और स्कॉट लडलैम की सदस्यता जाती रही.

क्या हुआ कैसे हुआ

मामला यह है कि ऑस्ट्रेलिया के संविधान की धारा 44 के मुताबिक "अगर कोई व्यक्ति किसी और देश का नागरिक है तो वह ऑस्ट्रेलिया की संघीय संसद में नहीं बैठ सकता.” इस एक पंक्ति के इर्दगिर्द पूरा मामला उलझ गया जब 14 जुलाई को पहला विकेट गिरा. ग्रीन्स पार्टी के सांसद स्कॉट लडलैम के इस्तीफे की खबर आयी. पता चला कि वह न्यूजीलैंड के भी नागरिक हैं. मामला गंभीर था. सवाल उठे कि उन्होंने झूठ बोला. सत्ता पक्ष ने जमकर ग्रीन्स की खिंचाई की. खुद प्रधानमंत्री मैलकम टर्नबुल ने हल्ला बोल में हिस्सा लिया. तब उन्हें पता नहीं था कि हल्ला बोल बहुत जोर शोर से उन्हीं की ओर आने वाला है. 18 जुलाई को ग्रीन्स की ही एक और सांसद लैरिसा वॉटर्स ने ठीक इसी कारण से इस्तीफा दे दिया. उनके पास कनाडा की नागरिकता थी, जो कायदे से चुनाव लड़ने से पहले उन्हें छोड़नी चाहिए थी लेकिन उन्होंने छोड़ी नहीं थी.

ग्रीन्स के लिए यह बड़ा झटका था. विरोधियों ने इस मौके का खूब फायदा उठाया और सबने ग्रीन्स पर ताने कसे. पर यह सिर्फ शुरुआत थी, हमाम के दरवाजे खुलने की. हफ्ते भर के भीतर सरकार को और खासकर प्रधानमंत्री मैलकम टर्नबुल को यह तानाकशी भारी पड़ गयी. उन्हीं की कैबिनेट के सदस्य नेशनल्स सांसद मैट कैनावन ने इस्तीफा दे दिया. उन्होंने बड़े नाटकीय अंदाज में अपनी कहानी सुनायी कि मेरी इटैलियन मां ने बिना मुझे बताये मेरे लिए इटली की नागरिकता ले ली. और अब जब दोहरी नागरिकता की खबरें आने लगीं तब मुझे बताया कि उन्होंने मेरे ऊपर यह मेहरबानी की थी.

ऑस्ट्रेलिया में अडानी का लाइसेंस हुआ रद्द

आप्रवासियों के विरोध की राजनीति करने वाली वन नेशन पार्टी अब तक पूरे फॉर्म में आ चुकी थी. इस पार्टी ने इस हम्माम के सामने ही मोर्चा सा खोल दिया था. लेकिन उसका यह तंबू कुछ ही दिन में उखड़ गया जब बजफीड ने ऐसे दस्तावेज छापे कि वन नेशन सांसद मैलकम रॉबर्ट्स ब्रिटिश नागरिक हुआ करते थे. उनके पिता वेल्श के रहने वाले थे और मां ऑस्ट्रेलिया की. इस तरह वह ब्रिटिश नागरिक भी थे और चुनाव लड़ने के वक्त उन्होंने नागरिकता नहीं छोड़ी थी.

14 अगस्त को सबसे बड़ा खुलासा हुआ जब उप प्रधानमंत्री बार्नाबी जॉयस के बारे में पता चला कि उनके पिता चूंकि न्यूजीलैंड के थे, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से न्यूजीलैंड के नागरिक हैं. फिर फिओना नैश और निक जेनोफोन ने विदेशों में जन्मे अपने अपने पिता के कागजात खंगाले और फंस गये.

हास्यास्पद पेचीदगी

यह मामला इतना पेचीदा हो गया है कि मजाक बन गया है. ऑस्ट्रेलिया एक बहुसांस्कृतिक देश है. 2016 की जनसंख्या बताती है कि देश के लगभग आधे लोग (49%) ऐसे हैं जो या तो खुद विदेश में जन्मे हैं या फिर उनके माता-पिता में से किसी एक का जन्म विदेश में हुआ. इस तरह जब विदेशी मूल खोजने निकलेंगे तो बड़ी आबादी विदेशी निकल सकती है. इसलिए यह सिर्फ दोहरी नागरिकता का मामला नहीं है. बहुत से लोगों को तो पता तक नहीं कि वे कहीं और के नागरिक हैं. जैसे कि बार्नाबी जॉयस के पिता जेम्स माइकल जॉयस 1947 में न्यूजीलैंड से ऑस्ट्रेलिया आये थे और उस वक्त के नियम से वह ब्रिटिश नागरिक थे. लेकिन दो साल बाद ऑस्ट्रेलिया ने नागरिकता लेने को जरूरी बना दिया. पर जो लोग पहले से रह रहे थे, वे वैसे ही रहते चले गये. इस तरह जेम्स जॉयस न्यूजीलैंड के नागरिक होते हुए भी ऑस्ट्रेलिया के बाशिंदे बन गये. और 1967 में पैदा हुआ उनका बेटा बार्नाबी भी न्यूजीलैंड का नागरिक हो गया क्योंकि न्यूजीलैंड का नियम है कि 1949 से 1978 के बीच न्यूजीलैंड के बाहर जन्मे उनके नागरिकों के बच्चे अपने आप न्यूजीलैंड के नागरिक माने जाएंगे.

धारा 44 के खतरे

संविधान की जिस धारा 44 के कारण देश के सामने यह हास्यास्पद संकट खड़ा हुआ है, उसके बारे में बहुत पहले चेतावनियां जारी की जा चुकी थीं. संविधान का यह हिस्सा 1890 के दशक में लिखा गया था. तब दोहरी नागरिकता के मामले इक्के-दुक्के ही हुआ करते थे. ऑस्ट्रेलिया अकेला ऐसा देश था. लेकिन 1981 में यह बात संसदीय समितियों की रिपोर्ट में कही गयी कि धारा 44 खतरनाक हो सकती है. उसके बाद 1997 में भी एक संसदीय समिति ने कहा कि धारा 44 एक दिन कहर बरपाएगी. दोनों ही मौकों पर संसदीय समितियों ने इस कानून में बदलाव की सिफारिश की थी.

2017 में उठे बवाल के बाद अब शायद देश ये सिफारिशें मान लेगा. ऐसे प्रस्ताव सामने आ रहे हैं कि धारा 44 को खत्म करने के लिए जनमत संग्रह कराया जाए. जिस बड़ी संख्या में विदेशी मूल के युवा राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं, धारा 44 व्यवहारिक रूप से निराधार होती जा रही है. और इसे औपचारिक जामा पहनाने का वक्त आ गया है.