1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

हिंसा और लोकतंत्र का भविष्य

६ मार्च २०१४

संसदीय चुनावों की घोषणा के दिन भारत के कई शहरों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच हुई हिंसक झड़पों ने देश की एक बड़ी समस्या को उजागर किया है. सवाल यह है कि क्या देश के राजनैतिक दलों के हाथ में लोकतंत्र सुरक्षित है?

https://p.dw.com/p/1BLMS
तस्वीर: UNI

बुधवार को दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं. एक तो निर्वाचन आयोग ने लोकसभा चुनाव की औपचारिक घोषणा की और उसके साथ ही तत्काल प्रभाव से आदर्श आचार संहिता लागू हो गई. और दूसरे दिल्ली और देश के कई शहरों में आम आदमी पार्टी (आप) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हुईं. क्योंकि प्रधानमंत्री पद के लिए बीजेपी के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्य में आप के नेता अरविंद केजरीवाल को पुलिस ने रोक लिया, इसलिए आप कार्यकर्ताओं ने बीजेपी के मुख्यालय पर धावा बोल दिया. स्पष्ट है कि इन दोनों घटनाओं का भारतीय लोकतंत्र के भविष्य से गहरा संबंध है.

नाजुक दौर में लोकतंत्र

निर्वाचन आयोग की घोषणा स्वयं इस बात का संकेत है कि भारतीय लोकतंत्र कितने नाजुक दौर से गुजर रहा है. यह पहला मौका है जब आयोग ने लोकसभा के चुनावों को तीन-चार नहीं बल्कि पूरे नौ चरणों में कराने का फैसला लिया है. पिछली बार लोकसभा चुनाव पांच चरणों में ही निपट गए थे लेकिन इस बार आयोग ने इस प्रक्रिया को नौ चरणों में पूरा करने का निर्णय लिया. लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि इस बार चुनाव पिछली बार के मुकाबले दो दिन कम समय में समाप्त हो जाएंगे. भारत में कई चरणों में मतदान इसलिए कराया जाता है ताकि कानून-व्यवस्था बनाए रखने और निष्पक्ष एवं स्वतंत्र मतदान को सुनिश्चित करने के लिए पुलिस एवं अर्ध-सैनिक बलों की जहां जरूरत है वहां तैनाती की जा सके. इस काम में उन्हें एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर भेजा जाता है और इसमें समय लगता है. इसलिए मतदान को कई चरणों में बांट दिया जाता है. इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि मतदान के दौरान हिंसा की आशंका न हो या बहुत कम हो, तो इस तैनाती की जरूरत ही न पड़े और पूरे देश में मतदान दो-तीन चरणों में ही कराया जा सके.

Indien Zusammenstöße zwischen AAP- und BJP-Anhängern
तस्वीर: UNI

प्रशांत भूषण जैसे आम आदमी पार्टी के नेताओं ने बुधवार को हुई हिंसक झड़पों के लिए जनता से माफी मांगी है और कहा है कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है. दूसरी पार्टियों के नेता भी यही कहते हैं. हां, इस मामले में शिवसेना के दिवंगत नेता बाल ठाकरे जरूर दूसरों से अलग थे. उन्होंने कभी हिंसा को अपनी राजनीति से अलग नहीं किया. लेकिन हिंसा का लोकतंत्र में कोई स्थान न देखने वाले नेता भी अक्सर हिंसा का रास्ता अपनाते हुए देखे जाते हैं. विधानसभाओं और संसद तक की कार्यवाही के दौरान हिंसा होने लगी है, धरने-प्रदर्शनों का तो कहना ही क्या. अब लोकतंत्र में विचार कम, पत्थर अधिक चलने लगे हैं. हिंसा की इस बढ़ती जा रही चिंताजनक प्रवृत्ति के पीछे राजनीति का अपराधीकरण भी एक बहुत बड़ा कारण है. जब आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग यानि कानून को अपने जूते की नोंक पर रखने वाले लोग चुनाव में जीतकर विधानसभाओं और संसद में आएंगे, तो वे वहां भी वैसा ही आचरण करेंगे जिसके वे आदी हैं. और यह आचरण लोकतंत्र की भावना के अनुरूप तो नहीं ही हो सकता.

गंभीर चुनाव आयोग

पिछले दो दशकों के दौरान निर्वाचन आयोग ने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के अपने दायित्व को बेहद गंभीरता से लिया है और इसे सुनिश्चित करने के लिए हर संभव उपाय किए हैं. लेकिन वह हर समय और हर स्थान पर नजर नहीं रख सकता. यदि उसे राजनीतिक दलों का सहयोग नहीं मिलेगा, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी तरह से नहीं निभा पाएगा. अक्सर उसे यह सहयोग मजबूरी में ही दिया जाता है, क्योंकि आयोग ने इतने कड़े नियम बना दिये हैं कि उन्हें तोड़ना राजनीतिक दलों के लिए काफी महंगा पड़ सकता है. फिर भी चुनाव प्रक्रिया से हिंसा को बाहर नहीं किया जा सका है. ऊपर से राजनीतिक दल नहीं चाहते कि चुनावों की घोषणा होने के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाए. उनका कहना है कि जब तक चुनाव की विधिवत अधिसूचना जारी न हो जाए, तब तक आचार संहिता को लागू नहीं किया जाना चाहिए. यानि उनका पूरा जोर इस संहिता की परिधि से अधिक-से-अधिक बाहर रहने पर है.

दूसरों के विचारों और अधिकारों का सम्मान करना और अपनी बात किसी पर जबर्दस्ती न थोपना लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य हैं. लेकिन पिछले 67 सालों में भारत में असहिष्णुता की प्रवृत्ति काफी बढ़ी है. आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता केवल इसलिए आपा खो बैठे क्योंकि उनके नेता अरविंद केजरीवाल को गुजरात में पुलिस ने रोक लिया. क्योंकि केजरीवाल और उनके समर्थक नरेंद्र मोदी के साथ सीधी टक्कर लेते हुए दिखना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी का असली विकल्प केजरीवाल ही हैं, इसलिए भी उनके लिए यह प्रचारित करना जरूरी हो गया कि केजरीवाल को जानबूझकर रोका गया है. केजरीवाल स्वयं को अराजकतावादी घोषित कर चुके हैं. उनके अनुयायियों का अराजक आचरण और भाजपा कार्यकर्ताओं का वैसा ही अराजक एवं हिंसक जवाब लोकतंत्र के भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं करते.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें