1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

हथियारों के कारोबार पर काबू की कोशिश नाकाम

२८ जुलाई २०१२

पूरी दुनिया की नजरें जब ओलंपिक के आगाज पर टिकी थी उसी वक्त संयुक्त राष्ट्र में दुनिया के प्रतिनिधि हथियारों के कारोबार को नियंत्रित करने के लिए एक करार पर माथापच्ची कर रहे थे. खेलों की शुरूआत शानदार, करार की कोशिश नाकाम.

https://p.dw.com/p/15fzw
तस्वीर: Fotolia

करीब 60 अरब डॉलर के हथियार उद्योग के लिए कायदा कानून बनाने की कवायद चल रही है. 170 देशों के प्रतिनिधि महीने भर से इस कोशिश में जुटे थे कि एक ऐसा समझौता तैयार कर सकें जो सब देशों को मंजूर हो. कोई एक देश भी इस समझौते को वीटो कर सकता है. समझौते का प्रस्ताव आखिरकार तैयार नहीं हो सका. हालांकि बातचीत का रास्ता अभी बंद नहीं हुआ है. अब यह कहा गया है कि इसी साल के आखिर में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा के दौरान इस पर वोटिंग कराई जाएगी. वोटिंग के जरिए दो तिहाई बहुमत से इसे पास करा लिया जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र में ब्रिटिश दल के प्रवक्ता ने कहा, "हम यह महसूस करते हैं कि हम सहमत नहीं हो सके हैं. यह थोड़ा निराश करने वाला है कि अभी और समय चाहिए. हालांकि हथियारों के कारोबार पर समझौता होगा, भले ही आज न सही लेकिन बहुत जल्द. हमने आगे की तरफ बड़ा कदम उठा लिया है."

संधि की जरूरत

दुनिया भर में हथियारों के जरिए होने वाली हिंसा में हर मिनट एक आदमी की मौत हो रही है. हथियारों पर नियंत्रण की मांग कर रहे कार्यकर्ताओं की मांग है कि संकट से जूझ रहे इलाकों में हथियारों की सप्लाई और अवैध कारोबार को रोकने के लिए एक संधि की जरूरत है. इन हथियारों की वजह से जंग हो रहे हैं, लोगों पर जुल्म हो रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र के ज्यादातर सदस्य देश एक मजबूत संधि के पक्ष में है. हालांकि सीरिया, उत्तर कोरिया, ईरान, मिस्र, अल्जीरिया जैसे कुछ मुट्ठीभर छोटे देश दुनिया में हथियारों के कारोबार पर बातचीत के जरिए पाबंदी लगाने के खिलाफ हैं. हालांकि हथियार नियंत्रण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता शुक्रवार को किसी फैसले पर नहीं पहुंच पाने के लिए अमेरिका और रूस को दोषी ठहरा रहे हैं. इन दोनों देशों का कहना है कि उनके पास इतना वक्त नहीं बचा कि वे संधि के प्रस्ताव पर सफाई दे सकें या मुद्दों को सुलझा सकें.

गरीबी और दूसरे अन्याय से लड़ने वाले संगठन ऑक्सफैम अणेरिका के वरिष्ठ नीति सलाहकार स्कॉट स्टेजान ने कहा, "आगे बढ़ने के लिए राष्ट्रपति ओबामा को मजबूत करार के लिए हिम्मत दिखानी होगी जिसमें सख्त नियम होंगे और जिससे मानवाधिकार एक सच बन सकेगा." इस संधि के जरिए यह कोशिश की जा रही है कि हथियारों बेचने से पहले हथियार बनाने वाले देश यह देख लें कि इस सौदे से कहीं अंतरराष्ट्रीय मानवता या मानवाधिकारों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा. संयुक्त राष्ट्र महासचि बान की मून ने समझौता न होने पर निराशा जताथई है हालांकि इस बात से वो कुछ संतुष्ट हैं कि सदस्य देश इसे हासिल करने की कोशिश जारी रखने पर रजामंद हुए हैं.

राजनीतिक साहस

इस करार में टैंक, बख्तरबंद गाड़ियां, बड़े कैलिबर वाली तोपें, लड़ाकू विमान, हमलावर हैलीकॉप्टर, जंगी जहाज, मिसाइल, मिसाइल लॉन्चर और छोटे हथियार समेत हर तरह के पारंपरिक हथियारों को शामिल किया गया है. यह करार तभी अमल में आ सकेगा जब कि कम से कम 65 सदस्य देश इस पर रजामंद हो जाएं. ऑक्सफैम के हथियार नियंत्रण प्रमुख एन्ना मैक्डोनल्ड ने कहा, "आज का दिन राजनीतिक साहस दिखाने का था, देर करने या बाधा डालने के लिए नहीं." न्यूयॉर्क में इस मुद्दे पर चली रही बातचीत के पहले हफ्ते में फलीस्तीन को शामिल करने को लेकर विवाद हो गया. बाद में फलीस्तीन प्रतिनिधिमंडल को चर्चा में बैठने की मंजूरी मिली लेकिन कुछ बोलने या वोट देने की नहीं.

इस तरह की बातों से इस करार का रास्ता रोकने की कोशिश हो रही है. जानकारों का कहना है कि जानबूझ कर ऐसी परिस्थिति पैदा की जा रही है जिससे कि मजबूत संधि न बन सके. इस महीने इस बातचीत के अमेरिका में होने की भी खास वजह है. दुनिया भर में पारंपरिक हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर तो खुद अमेरिका है. 2009 में बराक ओबाम के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका ने अपनी नीति में बदलाव किया और इस तरह की संधि को समर्थन देने का फैसला किया. हालांकि अभी तक यह प्रक्रियाओं की उलझन ही नहीं सुलझा पा रही है.

एनआर/आईबी (रॉयटर्स)

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी