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समाज

स्कूली छात्रों में क्यों पनप रही है हिंसक प्रवृत्ति?

२६ जुलाई २०१८

देश में हिंसा को बढ़ावा देकर जैसा माहौल बनाया जा रहा है, उसकी छाप बच्चों के कोमल मन पर पड़ना स्वाभाविक है और यह गंभीर चिंता का विषय है.

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Symbolbild Mord Ehrenmord Messer
तस्वीर: bilderbox

दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, चेन्नई समेत देश के कई हिस्सों में स्कूलों के अंदर कुछ छात्रों द्वारा किसी छात्र या शिक्षक की हत्या किए जाने की घटनाओं ने ये संकेत दिए हैं कि स्कूली छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है. मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाविदों की मानें तो स्कूली छात्रों के मन में भरी कुंठा, ईष्र्या और असहिष्णुता के कारण स्कूली बच्चे इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं. यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाज के लिए खतरा बनती जा रही है.

हाल ही में दिल्ली के ज्योति नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में कुछ छात्रों ने 10वीं के छात्र की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी. दिल्ली से सटे गुरुग्राम के एक बड़े निजी स्कूल में हुई बहुचर्चित प्रद्युम्न हत्याकांड समाज को झकझोर कर रख देने वाली घटना है. उधर, गुजरात के वड़ोदरा में एक छात्र की चाकू से 31 बार वार कर हत्या कर दी गई. दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के सेंट मैरी एग्लो इंडियन स्कूल में 12वीं कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य की हत्या कर दी. देशभर में इस तरह की कई घटनाएं हैं, जो स्कूली छात्रों में पनप रही हिंसा की प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं. ये घटनाएं समाज के लिए खतरे की घंटी हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉक्टर नवीन कुमार ने स्कूली छात्रों की प्रवृत्ति में आए बदलाव के बारे में आईएएनएस से कहा, "स्कूली बच्चों द्वारा हिंसा कुंठा और दबाव का नतीजा है. स्कूली बच्चों की प्रवृत्ति में आए बदलाव के पीछे तीन कारण हैं, जिसमें पहला है कि परिवारों का बच्चों से संवाद कम हो गया है. माता पिता बच्चों को अधिक समय नहीं दे पा रहे हैं जिस कारण बच्चों में नैतिक मूल्य का निर्माण नहीं हो पा रहा है. इससे बच्चों में सहयोग व सद्भाव वाली भावना घट रही है. दूसरा कारण है शिक्षा प्रणाली. जब तक स्कूली बच्चों की शिक्षण प्रणाली सही नहीं होगी, तब तक वे मानसिक दबाव और तनाव में रहेंगे ही. वे कब क्या कर बैठेंगे, कोई नहीं जानता."

डॉक्टर कुमार ने आगे बताया, "तीसरी बात कि स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली बातें सैद्धांतिक होती हैं, जो बच्चों की रुचि को संतुष्ट नहीं कर पाती हैं. बच्चों को स्कूलों में नियंत्रित वातारण में एक स्थान पर बैठा दिया जाता है, जिस कारण उन्हें शिक्षकों से वन टू वन बातचीत करने में दिक्कत होती है." डॉक्टर कुमार का कहना है कि महानगरीय संस्कृति में और हालात भी बुरे हैं, "बच्चे के घर पर आने के बाद उसके मनोभाव व समस्याओं को जानने वाला कोई नहीं रहता. ऐसे में बच्चों को जो ठीक लगता है, वे करते हैं."

क्या इसके लिए समाज भी जिम्मेदार है, इस सवाल पर उन्होंने कहा, "अगर किसी बच्चे ने सफलता पा ली तो ठीक है, लेकिन अगर वह सफल नहीं हुआ तो परिवार से लेकर समाज तक में उसे कोसा जाता है. ऐसे में उसमें कुंठा बढ़ेगी ही. बचपन आनंद काल होता है, जहां उसके गुणों और आत्मविश्वास का निर्माण होता है, लेकिन स्कूलों में 70 से 80 फीसदी बच्चों को पता ही नहीं होता कि उसे आगे करना क्या है."

डॉक्टर कुमार के अनुसार समाज अब आत्मकेंद्रित होने की ओर बढ़ रहा है, "समाज में सफलता का पैमाना आईएएस, आईपीएस और बड़ा व्यापारी मान लिया गया है, लेकिन अच्छा मनुष्य बनने की भावना में कमी आई है. समाज में आम और विशेष की खाई बढ़ी है. समाज में सफलता की परिभाषा हो गई है: शक्तिशाली. जो शक्तिशाली है वह अपना प्रभुत्व कायम कर लेगा. समाज आपको तभी मानेगा जब आप आईपीएस, बड़े व्यापारी या राजनेता होंगे." उनके अनुसार यह एख बहुत ही खतरनाक चलन बन गया है. वे कहते हैं कि देश में कोई व्यक्ति अपने बच्चे को किसान नहीं बनाता और इसी तरह से मौलिक चीजों को भी नजरअंदाज किया जा रहा है.

इन घटनाओं पर स्कूलों द्वारा लगाम लगाने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा, "स्कूल बच्चों का ध्यान रचनात्मक गतिविधियों में लगाएं, सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान न दें, सिर्फ पाठ्यक्रम पढ़ाने से बच्चों का भला नहीं होगा. उन्हें तैराकी सिखाएं, कहीं घूमने ले जाएं या खेल की गतिविधियों में शामिल होने को कहें. साथ ही बच्चों में एक-दूसरे से संवाद की तकनीक पैदा करना भी जरूरी है, ताकि उनमें संवेदना जागे. उन्हें बाहर ले जाकर उन गरीब बच्चों से मिलाएं, जिन्हें ये सब सुविधाएं नहीं मिल रही हैं. इन उपायों से बच्चों की प्रवृत्ति में बदलाव आएगा."

अभिभावकों की तरफ से बच्चों की परवरिश में कोताही भी उनके इस रवैये के लिए जिम्मेदार है. डॉक्टर कुमार के अनुसार अभिभावकों को बच्चों से लगातार संवाद करना चाहिए, "उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ना चाहिए. अभिभावकों को बातचीत करके समझना चाहिए कि बच्चा क्या चाहता है और यही वह वक्त होता है, जब उसमें कुंठा का भाव उत्पन्न होता है. अगर हम उसे सीधे मना करेंगे तो वह हताश होगा, लेकिन जब हम उसे प्यार से समझाएंगे तो उसमें जागरूकता आएगी, जो काफी महत्वपूर्ण है."

कहां सबसे कम स्कूल जाते हैं बच्चे

पिछले साल हरियाणा के एक निजी स्कूल में सात वर्षीय प्रद्युम्न की हत्या ने देश को झकझोर कर रख दिया था. प्रद्युम्न की मां सुषमा ठाकुर आज भी रोते हुए लगातार एक ही सवाल पूछती हैं, "मेरे बच्चे का क्या गुनाह था? मैंने अपने बच्चे को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था, जहां उसकी गला रेतकर हत्या कर दी गई." वह रोते हुए कहती हैं, "मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई."

स्कूली बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति के बारे में शिक्षाविद् और समाजसेवी डॉक्टर बीरबल झा कहते हैं, "यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. कहीं न कहीं शिक्षा व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है, बच्चों पर हमने शिक्षा का इतना अधिक दबाव तो डाल दिया, लेकिन उनमें नैतिक मूल्यों का विकास नहीं किया. इन्हीं मूल्यों के कारण बच्चे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ नहीं पाते."

डॉक्टर झा कहते हैं, "बच्चे इस देश का भविष्य हैं और अगर बच्चे हिंसात्मक हो जाते हैं तो हमारा भविष्य अधर में लटक जाएगा. इसके लिए सभी समाजसेवियों, शिक्षाविदों और चिंतकों को आगे आना चाहिए, ताकि स्कूली बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास को बढ़ाया जाए, न कि हिंसक प्रवत्ति को."

आईएएनएस/आईबी

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