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समाज

सेना में महिलाओं को कमान सौंपने में कैसी ‘हिचक’

शिवप्रसाद जोशी
७ फ़रवरी २०२०

सेना में महिलाओं को कमान सौंपने के मामले पर सरकार ‘असमंजस’ में है जबकि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि महिलाओं को उच्चतर पदों पर लाने के लिए समय, नहीं इच्छाशक्ति चाहिए.

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Indien Frauen im Polizeidienst
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Khanna

सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन देने संबंधी याचिका पर सुनवाई के दौरान पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा है कि महिलाओं को कमान सौंपने का समय अब आ गया है. लेकिन सरकार फिलहाल इस पर तैयार नहीं दिखती. उसकी दलील है कि कई वजहों से पुरुष सैनिक किसी महिला अफसर के नीचे काम करने के लिए तैयार नहीं.

इन वजहों में सबसे खास तो यही बताई गई है कि यूनिटों मे तैनात अधिकांश पुरुष सैनिक देहाती पृष्ठभूमि से हैं और वे महिला अफसरों का हुक्म मानने में ‘संकोच' कर सकते हैं. इसका अर्थ तो यही निकलता है कि पुरुष होने की वजह से ही नहीं, ग्रामीण होने के चलते भी उनका नजरिया लैंगिक भेदभाव वाला बना हुआ है. इसीलिए किसी महिला को अफसर के पद पर देखना उन्हें गवारा नहीं.

कोर्ट ने इस दलील पर हैरानी जताई. स्त्री अधिकारों से जुड़े संगठनों और रक्षा मामलों के जानकारों ने भी अफसोस और आक्रोश जताया है. ये महिलाओं के प्रति ही नहीं, बल्कि देहाती और ग्रामीण परिवेश के प्रति भी तंग नजरिया दिखाता है.

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बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेना में लैंगिक असमानता से छुटकारा पाने के लिए दो चीजों की दरकार हैः प्रशासनिक इच्छाशक्ति और नजरिए में बदलाव. कोर्ट ने सेना में स्थाई कमीशन के मुद्दे पर अपने आदेश को सुरक्षित रखा है. अगले सप्ताह वायु सेना और नौसेना से जुड़ी ऐसी ही याचिकाओं पर सुनवाई होने की संभावना है. अभी महिला अधिकारियों की भर्ती शॉट सर्विस कमीशन के जरिए होती है और चेन्नई स्थित ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी में उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता है.

केंद्र सरकार की ओर से दलील रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बाद में सफाई देते हुए कहा कि उनका इशारा लैंगिक भेदभाव की ओर नहीं था और महिलाओं को पुरुषों की बराबरी पर आने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि वे पुरुषों से बहुत आगे हैं. लेकिन कोर्ट में पेश दलीलों में बताया गया कि औरतों के सैन्य रोजगार में मातृत्व और बच्चों की देखभाल, मनोवैज्ञानिक सीमाएं जैसी बातें भी आड़े आती है.

कहा गया कि औरतें मर्दों की अपेक्षा शारीरिक तौर पर कमजोर होती हैं, महिलाओं की पारिवारिक स्थितियां, जरूरतें और युद्धबंदी के रूप में पकड़ लिए जाने का खतरा भी कुछ ऐसी बातें हैं जिनके आधार पर सरकार सोचने पर विवश है.

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याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस बारे में कोई प्रायोगिक या अनुभवसिद्ध आंकड़े नहीं है कि महिला अधिकारी पुरुष अधिकारियों से कमतर हैं. मामले पर कुछ जानकारों का ये भी कहना है कि सेना के पुरुषों को परोक्ष रूप से लैंगिकवादी बताकर कहीं सत्तारूढ़ पार्टी अपनी धारणा को ही तो पुष्ट नहीं कर रही है.

मौजूदा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत के मीडिया में प्रकाशित एक बयान पर पिछले दिनों विवाद हो गया था जिसमें उन्होंने कथित रूप से ये कहा था कि महिलाएं अभी युद्ध की भूमिकाओं के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन पर बच्चों को पैदा करने और लालन पालन करने की जिम्मेदारी है और वे फ्रंट पर असुविधा महसूस कर सकती हैं और जवानों पर अपने क्वॉर्टरों में ताकाझांकी करने का आरोप लगा सकती हैं.

जिस देश में महिलाएं प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक रह चुकी हैं वहां सेना में महिलाओं को अग्रिम यूनिटों की कमान देने के अलावा लड़ाई के मोर्चों या युद्धस्थलों पर उनकी तैनाती पर भी सवाल उठ रहे हैं. इस बारे में एक वैचारिक धारा ये कहती है कि युद्ध की हिंसा, रक्तपात और अन्य भयावहताओं से उन्हें दूर रखा जाना चाहिए. इसलिए नहीं कि वे ऐसी भूमिकाओं पर विचलित हो जाने वाली होंगी या टूट जाएंगी बल्कि इसलिए कि ये युद्ध संहिताओं, स्त्री गरिमा और उसके मानवाधिकार का भी मुद्दा है. उन्हें न हमलावर के रूप में न पीड़ित या शिकार के रूप में युद्ध में झोंका जाना चाहिए. लेकिन नैतिक दायित्व और आदर्श को केंद्र में रखने वाले इस विचार का विरोध भी कई स्तरों पर होता है. फेमेनिस्ट नजरिए में भी ये बात कम स्वीकार्य है. और प्रगतिशील लिबरल नजरियों में भी इसे महिलाओं के प्रति अबलावाद बनाए रखने की कोशिश कहा जा सकता है.

ये मुद्दा जटिल तो है लेकिन कोर्ट में सरकार की दलीलें कहीं से भी महिलाओं के प्रति संवेदनात्मक नहीं दिखतीं, उल्टा वो पुरुष सैनिकों की मनोदशा और विचारों में बदलाव का इंतजार कर रही हैं. यही तो समाज में होता आया है. पालनपोषण से लेकर शिक्षा और नौकरी और जन्म से लेकर ब्याह संतानोत्पत्ति तक- महिलाओं की कठिन घेरेबंदियां हैं. फिर भी उन्हें तोड़ती हुई वे आगे बढ़ती आ रही हैं. संख्या कम है और हमले तिरस्कार, उपेक्षा और हिंसा और बरबादियां अधिक है लेकिन न रुकने का ये सिलसिला थमा नहीं है.

Indian Air Force Frauen
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup

वैसे थल सेना ने मिलेट्री पुलिस में महिलाओं की भर्ती शुरू कर दी है. 100 महिला सैनिकों का पहला बैच 61 सप्ताह के कड़े प्रशिक्षण के बाद मार्च 2021 में कमीशन लेकर सेना पुलिस का हिस्सा बनेगा. महिला सेना पुलिस में कुल 1700 नियुक्तियां की जाएंगी.

वायु सेना में महिलाएं लड़ाकू विमानों की पायलट के रूप में पहले से ड्यूटी दे रही हैं. लेकिन नौ सेना में अभी ये स्थिति नहीं आई है. वहां शिक्षा, विधि और नेवी निर्माण कार्यों में महिला अधिकारी तो हैं लेकिन महिलाओं को जंगी जहाजों पर तैनात नहीं किया जाता.

समुद्री गश्ती विमानों के लिए परोक्ष कॉम्बैट भूमिका में महिलाएं जरूर हैं. 2019 के एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक आर्मी मेडिकल कोर, आर्मी डेंटल कोर और मिलेट्री नर्सिंग सर्विस जैसी सेवाओं को छोड़ दें तो थल सेना में 3.89 प्रतिशत, वायु सेना में 6.7 और नौसेना में 13.28 प्रतिशत महिला अधिकारी तैनात हैं.

भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना में स्त्री पुरुष समानता और लैंगिक भेद के नैरेटिव का एक सिरा ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते...' या ‘अबला जीवन हाय..' वाली मान्यताओं से जुड़ता है. देवी या बेचारी के तौर पर चिन्हित स्त्रियां समानता के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी लंबी लड़ाई लड़ती आ रही हैं. ऐसे में सेना भी कोई अपवाद नही.

15 जनवरी को सेना दिवस समारोह के इतिहास में पहली महिला परेड एडजुटैंट बनने वाली सेना के सिग्नल कोर की कैप्टन तानिया शेरगिल ने मीडिया से बातचीत में कहा था कि "जब हम वर्दी पहन लेते हैं तो हम सिर्फ ऑफिसर होते हैं, फिर जेंडर वाली बात नहीं रह जाती, एक ही चीज की अहमियत होती है और वो है मेरिट.”  चुनौती और चिंता यही है कि मेरिट की इस बुलंदी को ठीक से समझा जाता है या नहीं.

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