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ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट का फैसला और भारतीय लोकतंत्र

महेश झा
२५ सितम्बर २०१९

ब्रिटेन में सुप्रीम कोर्ट ने संसद को लंबे सत्रावसान में भेजने के प्रधानमंत्री के फैसले को अवैध करार दिया है. क्या इस फैसले का भारत की संसदीय व्यवस्था पर भी कोई असर हो सकता है?

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Großbritannien Protest vor Oberstem Gericht - Urteil Zwangspause für britisches Parlament
तस्वीर: Reuters/H. Nicholls

भारत का संसदीय लोकतंत्र बहुत हद तक ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर सिस्टम पर आधारित है. भारत में रानी के बदले हर पांच साल पर राष्ट्रपति चुना जाता है जिसके अधिकार और कर्तव्य रानी जैसे ही हैं. चूंकि भारत के विपरीत ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है इसलिए प्रधानमंत्री की ताकत भी कहीं लिखित नहीं है. वहां कानूनी धाराओं के बदले परंपराएं बड़ी भूमिका निभाती हैं. और इन्हीं परंपराओं में शामिल है कि रानी और न्यायपालिका रोजमर्रा की राजनीति से बाहर रहते हैं. जब रानी ने प्रधानमंत्री की सलाह पर संसद को पांच हफ्ते की छुट्टी पर भेज दिया था तब इसी तटस्थता का हवाला दिया गया था. आलोचकों का कहना था कि प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने यह फैसला संसद को ब्रेक्जिट से पहले कमजोर करने के लिए किया था. जॉनसन ने भी स्वीकार किया था कि राजनीतिक फैसले प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त के लिए ही लिए जाते हैं. बहुत से लोग उम्मीद कर रहे थे कि इस बार भी सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका और संसद के टकराव में तटस्थ रहेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों ने एकमत से फैसला लिया है कि संसद को छुट्टी पर भेजना अवैध था.

यह फैसला संसद के अधिकारों को फोकस में लाता है. कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को लोकतंत्र के तीन स्वतंत्र स्तम्भ माना जाता है. लेकिन यदि प्रधानमंत्री संसद को छुट्टी पर भेजने का फैसला कर सके तो कहां रही संसद की संप्रभुता. संसद का काम कार्यपालिका को कंट्रोल करना है, लेकिन यहां तो कार्यपालिका उसे कंट्रोल कर रही है और नाजुक मौके पर उससे यह अधिकार छीन कर उसे छुट्टी में भेज दे रही है. इस लिहाज से ब्रिटिश सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दूरगामी महत्व का है. ब्रिटेन के लिए तो वह ऐतिहासिक है ही, जहां पहले सुप्रीम कोर्ट भी नहीं हुआ करता था. देश के सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका हाउस ऑफ लॉर्ड्स निभाता था. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आजाद होने वाले भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों के लिए भी इसका व्यापक महत्व है क्योंकि कॉमनवेल्थ देशों की सर्वोच्च अदालतें जटिल मामलों में ब्रिटेन की अदालत के फैसलों को नजीर मानती रही हैं.

Großbritannien London | Houses of Parliament, The Commons Chamber
हाउस ऑफ कॉमन्सतस्वीर: Getty Images/AFP/J. Tallis

न्यायिक सक्रियता

भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक सक्रियता के लिए जाना जाता रहा है और उसने बार बार सरकार के खिलाफ जाकर भी आम लोगों के हित में फैसले लिए हैं. चाहे वह फैसला अभिव्यक्ति की आजादी का रहा हो या आर्थिक सशक्तिकरण का. ब्रिटेन में संसद की संप्रभुता का सिद्धांत चलता है, इसलिए संसद के फैसलों की समीक्षा का सुप्रीम कोर्ट का अधिकार बहुत सीमित है. लेकिन दस साल पहले अस्तित्व में आए ब्रिटेन के सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति में हस्तक्षेप कर न सिर्फ अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाया है बल्कि पहली बार प्रधानमंत्री के अधिकारों की सीमा भी तय की है. इस लिहाज से ब्रिटिश सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भविष्य में और ऐसे फैसलों का रास्ता खोलता है.

ब्रिटिश सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ब्रिटिश मॉडल पर बने दूसरे संविधानों की कुछ समस्याओं को भी नजरों में ला दिया है. जैसे ब्रिटेन की महारानी के बदले भारत में राष्ट्रपति पांच साल के लिए चुने जाते हैं और उनकी स्वीकार्यता पुश्तैनी पद संभालने वाले राजा या रानी से अलग होती है. भारत में जहां राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करता है, वहीं राष्ट्रपति द्वारा संसद का अधिवेशन बुलाना और उसका सत्रावसान करना संसद की स्वायत्तता पर सवाल उठाता है. यूं भी संसद में बहुमत का नेता सरकार बनाता है और सरकार में संसद के 15 प्रतिशत सदस्य शामिल होते हैं. इसी वजह से सत्ताधारी पार्टी के बाकी 35 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन सरकार को यूं भी मिल जाता है. दुनिया के बहुत से संविधान विशेषज्ञ ऐसे संविधानों पर सवाल उठाते रहे हैं कि कोई अपना ही नियंत्रण कैसे कर सकता है.

UN-Vollversammlung in New York | Boris Johnson, Premierminister Großbritannien
पीएम का वर्चस्वतस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Rousseau

संसद सदस्य या मंत्री

अमेरिका के मंत्री संसद के सदस्य नहीं होते और जर्मनी में भी, जहां मंत्री बनने के लिए संसद का सदस्य होना जरूरी नहीं. जर्मनी की ग्रीन पार्टी बहुत समय तक सांसद और मंत्री पदों को अलग रखने की नीति पर चलती रही है. हालांकि पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में आने के बाद उसने भी यह नीति छोड़ दी. जर्मनी में न्यायपालिका कार्यपालिका से स्वतंत्र होती है. इसलिए विवादित मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय नियमित रूप से संसद के अधिकारों को मजबूत करता रहा है, जिसका मतलब अक्सर कार्यपालिका और सरकार प्रमुख के अधिकारों में कटौती होता है. इसमें खासकर विदेशी सरकारों के साथ होने वाले समझौते आते हैं जिसका संसद में अनुमोदन जरूरी होता है. पिछली बार ग्रीस को वित्तीय सहायता देने के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने संसदीय अनुमोदन को यह कहकर अनिवार्य कर दिया कि आखिरकार यह धन बजट से जाता है जिस पर आखिरी फैसला संसद का है.

भारत के संविधान निर्माताओं ने शासन को आसान बनाने के लिए ब्रिटिश सिस्टम चुना था. जवाहरलाल नेहरू सीधे निर्वाचित राष्ट्रपति नहीं चाहते थे, क्योंकि वह प्रधानमंत्री जैसा ताकतवर हो सकता था. दूसरी ओर यह डर भी था कि एक स्वायत्त संसद सरकार के काम में रोड़े अटका सकती थी. लेकिन आजादी के सात दशक बाद संसद को और अधिकार देने पर बहस हो सकती है, ताकि फैसले सिर्फ अधिकारी ही न लें, जो पार्टियों और मंत्रियों को सलाह देते हैं. इस बीच संसद में प्रमुख उद्यमी, कुशल प्रशासक और अनुभवी टेक्नोक्रैट भी आ रहे हैं. फैसले लेने में वे नौकरशाहों से कम अनुभवी नहीं हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी अच्छी पकड़ भी है. लेकिन सरकारों के लिए हर फैसले पर संसद की अनुमति लेना आसान नहीं. इसमें फैसलों की प्रक्रिया लंबी हो जाती है. दूसरी ओर सरकार प्रमुख घबराता है कि अंतरराष्ट्रीय सौदेबाजी में हासिल फैसलों को आखिरकार संसद मानेगी भी या नहीं. इन बाधाओं के बावजूद यह सरकार प्रमुखों को सौदेबाजी के लिए तुरुप का पत्ता भी देता है कि दबाव इतना ही डालो कि उसे संसद मान सके. संसद को और सशक्त करना लोकतांत्रिक व्यवस्था और अहम राष्ट्रीय मुद्दों पर आपसी विचार विमर्श के लिए फायदेमंद ही है.

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