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सुप्रीम कोर्ट का फैसला तलाक के शिकार महिलाओं की जीत

शिवप्रसाद जोशी
२२ अगस्त २०१७

ट्रिपल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भले ही एकमत से न आया हो, लेकिन यह ऐतिहासिक फैसला है. यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की पुष्टि करता है. अब पुरुष तीन बार तलाक कहकर एकतरफ़ा तौर पर रिश्ता नहीं तोड़ सकेंगे.

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Indien Muslimische Hochzeit
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/R. Kakade

चीफ जस्टिस केएस खेहर की अगुवाई में पांच जजों की खंडपीठ ने तीन-दो के मत से अपना निर्णय सुनाया. जस्टिस खेहर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर ट्रिपल तलाक के पक्ष में थे जबकि तीन जज इसके विरोध में. जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस ललित. तीनों जजों ने चीफ जस्टिस के बिंदुओं को खारिज करते हुए कहा कि तिहरा तलाक इस्लामी मान्यताओं और कुरान शरीफ के उसूलों के खिलाफ है और शरीयत कानून का भी ये उल्लंघन करता है.

इस तरह ये तलाक की शिकार बनी महिलाओं के लिए बड़ी निजात और राहत भरी जीत भी है. लंबे समय से बहुप्रतीक्षित सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर देश भर में सबकी निगाहें लगी थीं. खासकर मुस्लिम महिलाओं के कुछ स्वयंसेवी संगठन फैसले के दिन को लेकर खासे रोमांचित थे. मार्च, 2016 में उतराखंड की शायरा बानो नामक महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके तीन तलाक, हलाला निकाह और बहु-विवाह की व्यवस्था को असंवैधानिक घोषित किए जाने की मांग की थी.

इस मामले में दूसरा पक्ष ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का था जिसकी दलील थी कि अदालत मजहबी मामले में दख़ल नहीं दे सकती है. क्योंकि ये धार्मिक स्वतंत्रता का मामला भी है. जबकि केंद्र सरकार इसे व्यक्ति की गरिमा और महिला अधिकारों के हनन से जोड़कर देख रही थी और अदालत से किसी सख्त फैसले की मुंतजिर थी. पांच जजों की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान भी तलाक को गैर मुनासिब कहा था और इसे गलत भी बताया था. आखिरी फैसले में भी उसने एक ऐतिहासिक रेखा खींच दी.

वैसे सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान ये भी स्पष्ट कर दिया था कि वो अपने फैसले में सिर्फ इस बात की जांच करेगा कि ट्रिपल तलाक की प्रथा, मुसलमानों के बीच धार्मिक मान्यता को "लागू करने योग्य” बुनियादी अधिकार का हिस्सा है न कि बहुविवाह की प्रथा का. केंद्र के लिए एक तरह से कानून बनाने का रास्ता भी साफ हो गया है क्योंकि केंद्र में इस समय सत्तासीन बीजेपी सरकार भी तीन तलाक के पक्ष में नहीं है और उसने बाकायदा एक अभियान की तरह मुस्लिम महिलाओं के कल्याण का नारा बुलंद किया हुआ है.

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ये बात अलग है कि गोरक्षा और लव जेहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों पर जारी हमलों पर शिकंजा कसने में केंद्र और राज्य सरकारें फिलहाल नाकाम ही रही हैं. तलाक के मामले पर कानून से जुड़ी तकनीकी और वैधानिक और विधायी पेचीदगियां भी अपनी जगह बनी हुई हैं. कानून बनते बनते, अदालत को अभी न जाने कितनी बार और इससे जुड़े मामले सुनवाई के लिए स्वीकार करने पड़ सकते हैं. 

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मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से कोर्ट में पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्‍बल ने ये बिंदु रखा था कि कुल मुस्लिम तलाकों में आधा प्रतिशत से भी कम यानी 0.44 प्रतिशत ही तीन तलाक के हैं. जनसंख्या का एक आंकड़ा ये भी दिखाता है कि बहुसंख्‍यक समुदाय की तुलना में मुस्लिमों में तलाक की दर अपेक्षाकृत कम है. कुछ और आंकड़ों को भी सामने रखें तो स्पष्ट होता है कि ट्रिपल तलाक का चलन व्यापक नहीं है. लेकिन क्या ये कहा जा सकता है कि तीन बार तलाक कहकर, एकतरफ़ा तौर पर रिश्ता तोड़ लेना, एक समाप्त होती प्रथा है. इस बारे में पर्सनल बोर्ड या उसके वकील कुछ भी दलील दें, सुप्रीम कोर्ट का फैसला बताता है कि इन्स्टैंट तलाक के पुरुष को मिले हक ने मनमानी के हालात तो बना ही दिए थे.

2011 की जनगणना के मुताबिक देश में मुस्लिम महिलाओं की संख्या 8.397 करोड़ है यानी कुल आबादी की करीब सात प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं हैं. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के हाल के आंकड़े बताते हैं कि तलाक के मामले में मुस्लिम महिलाएं भारतीय समाज का सबसे वलनरेबल सामाजिक समूह है. प्रति हजार शादीशुदा महिलाओं में मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर 5.63 है जबकि राष्ट्रीय दर 3.10 है. 2.12 लाख तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं में 20-34 आयुवर्ग की महिलाएं करीब 44 प्रतिशत हैं. कम उम्र का ये आयु वर्ग देश में कुल मुस्लिम महिला आबादी का सिर्फ 24 प्रतिशत है.

राहत की बात ये भी है कि इसी दौरान तलाक और अलगाव को लेकर समुदाय के भीतर कुछ सकारात्मक हरकत भी देखी गई है. तलाक के मामले और समुदायों में भी सघन हैं. लेकिन इन्सटैंट तलाक का ये विद्रूप मुस्लिम महिलाओं के विकास में रोड़े अटका रहा है. जबकि उनमें इधर शिक्षा, विवाह, स्वास्थ्य, रोजगार और कुल आत्मनिर्भरता को लेकर जागरूकता आई है. सिर्फ विवाह की ही बात करें तो 20-39 के आयुवर्ग की भारतीय महिलाओ में अविवाहित महिलाओं की संख्या मुस्लिमों में ही सबसे ज्यादा रही है. यानी 2001 से करीब 94 फीसदी की बढ़ोतरी.