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समाज

सिकुड़ते खेत और बढ़ती महिला किसान

प्रभाकर मणि तिवारी
२ अक्टूबर २०१८

भारत में बीते दो दशकों के दौरान खेतों का आकार तो सिकुड़ा है, लेकिन महिला खेत मालिकों की तादाद में वृद्धि हुई है.

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तस्वीर: DW/ P. Tiwari

कृषि जनगणना के ताजा आंकड़ों से महिला किसानों के बढ़ने का पता चलता है. वैसे, केंद्र सरकार ने बीते साल पहली बार 15 अक्तूबर को महिला किसान दिवस मनाने का फैसला किया था. लेकिन कृषि के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति अब भी बेहतर नहीं है.

बीते साल महिला किसानों संगठनों ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली में आवाज उठाई थी. लेकिन उनकी आवाज फिलहाल नक्कारखाने में तूती बन कर ही रह गई.

ताजा सर्वेक्षण

10वीं कृषि जनगणना के मुताबिक देश में प्रति किसान खेतों का औसत आकार 2010-11 के 1.15 हेक्टेयर से घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गया है. खेती के बदलते परिदृश्य का पता लगाकर इस क्षेत्र के लिए नीतियों का प्रारूप तैयार करने के लिए हर पांच साल पर यह जनगणना की जाती है. कृषि भूमि का औसत आकार 2010-11 और 2015-16 के बीच 6 प्रतिशत से ज्यादा घटा है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुष दूसरे रोजगारों की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं जिसके चलते ग्रामीण इलाकों में खेती की जमीन का विभाजन बढ़ने के साथ महिला किसानों की तादाद भी बढ़ी है. विभाजन बढ़ने की वजह से बीते 45 वर्षों के दौरान खेतों का औसत आकार घट कर आधा रह गया है. नतीजतन अब खेती फायदे का सौदा नहीं रह गई है.

इस जनगणना से महिला किसानों की तादाद बढ़ने का भी पता चलता है. इसमें कहा गया है कि वर्ष 2010-11 में महिला किसानों की तादाद कुल तादाद का 12.79 फीसदी यानी 1.76 करोड़ थी जो वर्ष 2015-16 में बढ़ कर 13.87 फीसदी यानी 2.02 करोड़ तक पहुंच गई. वर्ष 2005-06 में यह आंकड़ा 11 फीसदी यानी 1.51 करोड़ था.

इस दौरान खेती की जाने वाली जमीन में उनकी हिस्सेदारी 10.36 प्रतिशत से 11.57 प्रतिशत हो गई है. इससे पता चलता है कि कृषि भूमि के प्रबंधन और परिचालन में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है.

भूमि विभाजन की वजह से छोटे जोत वाले किसानों की तादाद बीते पांच वर्षों के दौरान बढ़ी है, जबकि मझोले और बड़े आकार के जोत वाले किसानों की तादाद कम हुई है.

महिला किसान

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे दक्षिण 24-परगना जिले में अपने दो बीघा खेत में विभिन्न तरह की साग-सब्जियां उगाने वाली देवारती मंडल कोलकाता के फ्लोटिंग मार्केट में लगी अपनी दुकान में इनको बेचती हैं. वह कहती हैं, "खेती अब फायदे का सौदा नहीं रह गया है. इसलिए मेरे पति कमाने के लिए दिल्ली चले गए हैं.”

बंटवारे में देवारती को दो बीघे खेत मिले हैं. वह बताती है कि उसके गांव की ज्यादातर खेतों की मालिक महिलाएं हैं और पूरे साल जी-तोड़ मेहनत कर साग-सब्जियों के अलावा चावल और आलू की खेती करती हैं. इस बाजार में दुकान लगाने वाली एक अन्य महिला पियाली दास बताती हैं, "घर के ज्यादातर पुरुष कमाने के लिए दूसरे शहरों में चले गए हैं. अब खेती का काम हमारे जिम्मे ही है. लेकिन हमें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.”

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प्याली कहती हैं कि उन्हें कई दिकक्तों का सामना करना पड़ता हैतस्वीर: DW/ P. Tiwari

यह दोनों बताती हैं कि समस्या होने पर सरकारी अधिकारी महिलाओं की बात को तवज्जो नहीं देते. उनका कहना है कि अब जब तमाम क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही हैं तो उनको समान अधिकार भी दिए जाने चाहिए. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर महिला और पुरुषों में भेदभाव कम कर उन्हें बराबरी का दर्जा दिया जा सके तो स्थिति सुधर सकती है.

जाने-माने कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामिनाथन कहते हैं, "देश में खेती से जुड़े आधे से ज्यादा कार्यों में महिलाएं शामिल हैं. इसके बावजूद भारत में महिला किसानों के लिए कोई बड़ी सरकारी नीति नहीं बनाई गई है.”

महिला किसान दिवस

बीते साल खेती से जुड़ी हजारों महिलाओं ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली में दस्तक दी थी. उनकी मांग थी कि जो महिलाएं खेती करती हैं, सरकार उन्हें किसान का दर्जा दे. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन 'महिला किसान अधिकार मंच' का कहना है कि मौजूदा दौर में देश की कृषि व्यवस्था में महिलाओं की बढ़ती भूमिका आंकड़ों में भी उभर कर सामने आनी चाहिए.

महिलाओं का नाम जमीन और खेती से जुड़े रिकॉर्डों पर नजर आने की स्थिति में ही उनको कानूनी रूप से किसान होने के सारे लाभ मिल सकेंगे. महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि महिलाओं को जमीन के अधिकार से वंचित रखा गया है, जबकि वे वहां पुरूषों से ज्यादा काम करती हैं.

मौसमी मार से बचाने वाला बीमा

विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं को बराबर का दर्जा दिए जाने की स्थिति में कृषि कार्यों में महिलाओं की बढ़ती तादाद से उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो सकती है और भूख और कुपोषण को भी रोका जा सकता है. इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार का परिदृश्य भी बदल सकता है.

बीते साल केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने महिलाओं को कृषि क्षेत्र के प्रति जागरूक करने और उनको इस क्षेत्र में सम्मानजनक स्थान दिलाने के मकसद से हर साल 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था. इसका मकसद कृषि में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाना था.

ठोस उपाय जरूरी

विशेषज्ञों का कहना है कि महिला किसानों की हालत में सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाना जरूरी है. आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में भी कहा गया था कि रोजगार की तलाश में पुरुषों के शहरों की तरफ पलायन की वजह से खेती के काम में महिलाओं की भूमिका बढ़ रही है. बावजूद इसके, जमीन के मालिकाना हक के मामले में महिलाएं अब भी लैंगिक असमानता की शिकार हैं.

इसके साथ ही सिंचाई सुविधाओं की कमी और तकनीक तक पहुंच की राह में आने वाली दिक्कतें महिला किसानों के लिए एक मुख्य चुनौती है. सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत की स्थिति को देखते हुए ग्रामीण महिलाओं को कृषि संबंधी प्रशिक्षण देना जरूरी है.

कृषि विशेषज्ञ डॉ. सुशांत मजुमदार कहते हैं, "महज महिला किसान दिवस मनाने भर से महिला किसानों का कुछ भला नहीं होगा. इसके लिए सरकार को इन महिलाओं की स्थिति और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियां बनानी होंगी.”

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