श्रीलंका की राजनीतिक उथलपुथल और भारत
२९ अक्टूबर २०१८श्रीलंका में राजनीतिक अस्थिरता का दौर चल रहा है लेकिन भारत ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं. वह बहुत बारीकी से घटनाक्रम का अध्ययन और विश्लेषण कर रहा है ताकि वह जल्दबाज़ी में कोई गलत पत्ता न चल दे. श्रीलंका भारत के इतना नजदीक है कि वहां के राजनीतिक घटनाक्रम से अपने-आपको अलग रखना उसके लिए कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है. दूसरे, नेपाल की तरह ही श्रीलंका का हर राजनीतिज्ञ अपने देश की राजनीति में भारत के हस्तक्षेप का विरोध करता है लेकिन जब भी कोई राजनीतिक समस्या आ खड़ी होती है, तब भारत से सहायता और अगर जरूरी हो तो हस्तक्षेप की उम्मीद भी करता है. इस समय श्रीलंका की राजनीति में तीन सबसे बड़े किरदार हैं---राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेन, विवादास्पद ढंग से प्रधानमंत्री बने पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे और अभी भी प्रधानमंत्री होने का दावा करने वाले अपदस्थ प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंहे. और ये तीनों ही पिछले तीन महीनों में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल चुके हैं.
दरअसल विक्रमसिंहे और मोदी की मुलाक़ात भी श्रीसेन और विक्रमसिंहे के बीच तनाव की आग में घी साबित हुई. भेंट के बाद जहां भारत की ओर से रिवायती-सा बयान जारी किया गया, वहीं विक्रमसिंहे की ओर से जारी बयान में कहा गया कि मोदी श्रीलंका में भारतीय परियोजनाओं पर अमल की रफ्तार से असंतुष्ट और निराश हैं. इसे सीधे-सीधे राष्ट्रपति श्रीसेन की आलोचना माना गया. यूं भी पिछले तीन सालों से श्रीसेन और विक्रमसिंहे के बीच किसी-न-किसी बात पर तनाव रहता आया था लेकिन पिछले तीन महीनों में वह काफी बढ़ गया था और श्रीलंका में माना जा रहा था कि कभी के राजनीतिक दुश्मन श्रीसेन और राजपक्षे फिर से साथ आ सकते हैं. और अंततः यही हुआ भी.
सामान्य रूप से भारत को इस राजनीतिक बदलाव पर काफी चिंतित होना चाहिए क्योंकि राजपक्षे ने राष्ट्रपति के रूप में अपने दस साल के कार्यकाल में श्रीलंका को चीन पर बुरी तरह से निर्भर बना दिया था, यहां तक कि उसे चीन के कर्ज के जाल में फंसा हुआ माना जाने लगा था. चीन को सामरिक और व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण हम्बनटोटा बंदरगाह को 99 साल की लीज पर देकर और चीनी कंपनियों को अबाध व्यापारिक अवसर प्रदान करके राजपक्षे ने भारत को लगभग अंगूठा दिखा दिया था. लेकिन अब लगता है उनके रुख में बदलाव आया है जिसका संकेत मोदी के साथ उनकी पिछले माह हुई मुलाक़ात से मिलता है.
विक्रमसिंहे भारत के प्रति नरम माने जाते हैं लेकिन मोदी के साथ हुई बैठक के बाद के बयान से भारत सरकार के लिए असमंजस वाली स्थिति पैदा हो गई है. श्रीसेन ने संसद की बैठक को 15 नवम्बर तक के लिए स्थगित कर दिया है और इस बीच में राजपक्षे को अपने लिए बहुमत हासिल करने की मुहलत दे दी है. यदि वे अपना बहुमत साबित करने में सफल हो जाते हैं, तो श्रीलंका में यह नयी राजनीति की शुरुआत होगी. स्थानीय निकायों के चुनाव में राजपक्षे ने भारी सफलता हासिल की है और माना जा रहा है कि दो साल बाद होने जा रहे राष्ट्रपति के चुनाव में भी उनके जीतने की उम्मीद की जा सकती है.
भारत का रवैया यह है कि श्रीलंका में जो भी सरकार हो, उसे उसी के साथ काम करना है. इस समय भारतीय कूटनीति के सामने चुनौती यह है कि वह श्रीसेन और राजपक्षे के चीन के प्रति बदलते हुए रुख का फायदा उठाए और श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व को यह समझाए कि सबसे नजदीकी पडोसी भारत के हितों को पूरी तरह से नजरअंदाज करना दीर्घकालिक दृष्टि से उसके हित में नहीं होगा. भारत को उसे यह विश्वास भी दिलाना होगा कि वह भी श्रीलंका के हितों का धयान रखेगा और श्रीलंका को उसकी मुश्किलों का भी अहसास होना चाहिए. दरअसल तमिल टाइगर्स के सफाये के दौरान राजपक्षे सरकार पर जब मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगे, तो चीन ने उसका समर्थन किया लेकिन अपने यहां की तमिल भावनाओं के मद्देनजर भारत उस तरह का समर्थन नहीं दे पाया. श्रीलंका की वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता भारत के लिए चुनौती भी है और एक बड़ा अवसर भी जिसका इस्तेमाल करके वह अपने भावी संबंधों की दशा और दिशा तय कर सकता है.