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समाज

शौचालय के लिए कब तक ससुराल नहीं जाएंगी औरतें?

समीरात्मज मिश्र
७ सितम्बर २०१८

उत्तर प्रदेश में हमीरपुर ज़िले के मौदहा इलाके में पिछले दिनों एक व्यक्ति की पत्नी ने शादी के बाद दोबारा ससुराल आने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि ससुराल वालों के घर में शौचालय नहीं था. लेकिन क्या इससे समस्या हल हो गई?

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Indien Banda Uttarpradesh - Toilettenmangel in ländlichen Gebieten
तस्वीर: DW/S. Misra

महिला के पति धीरेंद्र सिंह ने परेशान होकर इस मामले में एसडीएम से शिकायत की और शौचालय बनवाने की मांग की. धीरेंद्र सिंह ने एसडीएम को लिखे पत्र में शिकायत की है कि उन्हें सरकारी योजना के तहत शौचालय बनवाने के लिए मिलने वाले पैसे नहीं दिए गए, जिसकी वजह से वो शौचालय नहीं बनवा पाए और इसी वजह से उनकी पत्नी ससुराल नहीं आ रही हैं.

दरअसल, ये कहानी न तो धीरेंद्र सिंह की पत्नी की इकलौती है और न ही उत्तर प्रदेश की. पिछले कुछ समय से ऐसी कई घटनाएं देखने में आई हैं कि कहीं कोई महिला शौचालय के कारण ससुराल नहीं जा रही है, कहीं कोई शौचालय उपहार में दे रहा है तो कहीं शौचालय के कारण शादियां टूट रही हैं. इसी समस्या पर हिन्दी में एक फ़िल्म भी बन गई- "टॉयलेट: एक प्रेम कथा".

शौचालय हर परिवार की बुनियादी जरूरतों में सबसे पहले आता है, लेकिन भारत जैसे कुछ विकासशील देशों की यह विडंबना रही है कि शौचालय बनाने को लेकर ना तो सरकार में कोई प्रतिबद्धता है ना ही जनता में. यही नहीं, गांवों में अब तक शौच के लिए बाहर जाने को स्वास्थ्य के लिए बेहतर माना जाता रहा है. इसका नतीजा यह रहा कि देश शौचालयों की कमी से जूझता रहा.

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तस्वीर: DW/S. Misra

पिछले कुछ सालों से इस मामले में बढ़ती जागरूकता, सरकारी प्रयास और निजी स्तर पर भी लोगों के आगे आने से इस समस्या में कुछ कमी जरूर आई है पर पूरी तरह से इसके निदान में अभी काफी वक्त लगेगा. 

जहां तक खुले में शौच का सवाल है तो इससे परेशानी हर किसी को होती है लेकिन ज्यादा समस्या महिलाओं के लिए है. लोक-लाज के अलावा सुरक्षा तो इसमें अहम कारण है ही, तमाम संक्रामक बीमारियों का खौफ भी इस वजह से बना रहता है. शायद यही वजह है कि शौचालय के बारे में बढ़ती जागरूकता के बाद इसके लिए आवाज उठाने वालों में महिलाएं ही ज्यादा रही हैं.

शौचालय ना होने का प्रभाव लडकियों और महिलाओं की सुरक्षा पर भी पड़ता है. शौचालय की समस्या पर काफी दिनों से काम कर रहे सुलभ इंटरनेशनल संस्था के प्रमुख डॉक्टर बिंदेश्वरी पाठक कहते हैं, "मैंने जब शौचालय बनवाने का काम शुरू किया तो कई बार लोग मुझ पर हंसे भी और कई लोगों ने इसे बेवजह की कोशिश बताया. लेकिन मैं तब भी यही कहता था कि वैसे तो यह सबके लिए जरूरी है लेकिन इसका सबसे ज्यादा फायदा महिलाओं को होगा. मुझे खुशी है कि आज महिलाएं खुद इस दिशा में आगे आ रही हैं."

पिछले दिनों बलात्कार की एक घटना सामने आने के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा था कि यदि देश में शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा क्योंकि शौच के लिए अक्सर महिलाओं को बाहर जाना पड़ता है और वो कोशिश करती हैं कि जब अंधेरा हो तभी जाएं. जाहिर है, असामाजिक तत्व इन्हीं स्थितियों का अनुचित लाभ उठाते हैं.

पिछले कुछ सालों से देखने में आया है कि शौचालय के लिए महिलाओं ने लंबी लड़ाई लड़ी- घर-परिवार से भी और कई जगह सिस्टम से भी. मसलन, कुशीनगर की प्रियंका भारती ने तब तक ससुराल आने से मना कर दिया जब तक कि उनके घर वाले शौचालय नहीं बनवा देते, पटना के एक गांव की पार्वती देवी ने चार साल लम्बी लड़ाई लड़ कर घर में शौचालय बनवाया.

हरियाणा के भिवानी में एक बुजुर्ग महिला ने शौचालय के निर्माण के लिए अपनी भैंस बेच डाली, हरियाणा के ही एक गांव में पंचायत ने खुले में शौच जाने वालों के सामाजिक बहिष्कार का निर्णय लिया. इस तरह के फैसले उत्तर प्रदेश में भी कई गांवों में किए गए. ऐसे उदाहरणों की एक लंबी सूची है.

यही नहीं, शौचालय बनवाने और गांवों को ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त गांव बनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भी जोर-शोर से काम चल रहा है. अक्सर ऐसा देखने में आते है कि कुछ जगह लोगों ने कुछ ऐसे समूहों का गठन किया जो खुले में शौच करने वालों को सीटी बजाकर अपमानित करता है या फिर उनका मजाक उड़ाता है.

शाहजहांपुर में इस तरह का अभियान चलाने वाले तत्कालीन जिलाधिकारी विजय किरन आनंद कहते हैं, "इस तरह के अभियानों का मकसद किसी को अपमानित करना नहीं होता है, बल्कि शौचालय की उपयोगिता के लिए उन्हें जागरूक करना होता है. और जब गांव के लोग ही ऐसा करें तो किसी को बुरा भी नहीं लगता है. यही सोचकर हमने ये अभियान चलाया था और देखते ही देखते ज्यादातर लोगों ने घरों में शौचालय बनवा डाले."

दरअसल, स्वच्छता के लिए भारत सरकार लंबे समय से प्रयास कर रही है. इसके तहत सबसे पहले 1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया था. 1999 में इसी कार्यक्रम का नाम बदल कर संपूर्ण स्वच्छता अभियान कर दिया गया. इसके अलावा निर्मल भारत अभियान के अंतर्गत घर में शौचालय बनाने के लिए पैसे दिए जाते हैं.

शहरी क्षेत्रों के लिए 2008 में राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति लाई गई और फिर 12वीं पंचवर्षीय योजना में 2017 तक खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव से पहले ही नारा दिया था कि 'पहले शौचालय, फिर देवालय.' और फिर सरकार बनने के बाद उन्होंने 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की.

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तस्वीर: DW/S. Misra

इस अभियान के तहत सरकार ने 52000 करोड़ रुपये का बजट रखा और 2019 तक हर घर में शौचालय बना देने का दावा किया. इसके लिए तमाम तरह के प्रयास भी हो रहे हैं लेकिन सच्चाई ये है कि आज भी कुछ ही गांव ऐसे मिलेंगे जिन्हें पूर्ण रूप से ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त गांव कहा जा सके.

इसके तहत दी जाने वाली सरकारी सहायता में भी धांधली होती है. लखनऊ में एक गांव के प्रधान दिलीप तिवारी बताते हैं, "शौचालय बनवाने के लिए सरकार 12 हजार रुपये देती है. पहली बात तो इतने पैसे में शौचालय बनता नहीं है और दूसरे इस 12 हजार के लिए लोगों को बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं. इसी चक्कर में कई लोग नहीं बनवाते."

दिलीप तिवारी के मुताबिक हालांकि अब ये स्थिति धीरे-धीरे कम हो रही है क्योंकि सरकार ये पैसे सीधे लोगों के खाते में देती है. लेकिन उनका कहना है कि इसमें इतनी कागजी कार्रवाई होती है कि कम पढ़े लिखे लोग उसमें उलझना ही नहीं चाहते, भले ही उन्हें बिना शौचालय के रहना पड़ा. या फिर, जिनके पास पैसा होता है, वो खुद ही बनवा लेते हैं.

बिंदेश्वरी पाठक कहते हैं, "शौचालय निर्माण और उपयोग को सामाजिक सुधार आन्दोलन का रूप देना होगा. ये सिर्फ सरकार का काम नहीं है कि वो लोगों के घरों में शौचालय बनवाए. बल्कि लोगों को खुद इसकी अहमियत समझनी होगी. लोगों की मानसिकता को बदलना होगा, खासकर पुरुषों की."

बिंदेश्वरी पाठक कहते हैं कि शौचालय निर्माण के लिए दी जाने वाली राशि को भी बढ़ाना होगा और इनके क्रियान्वयन, निरीक्षण और मूल्यांकन में स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ानी होगी.

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