विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के बमों से कैसे बचता रहा जर्मन युद्धपोत
दूसरे विश्व युद्ध के ज्यादातर समय में मित्र देशों के बमवर्षक जर्मनी के सबसे विशाल युद्धपोत तिरपित्स को डुबोने की कोशिश करते रहे. इस हफ्ते वैज्ञानिकों ने बताया कि आखिर 1944 तक यह जहाज कैसे ब्रिटेन को छकाता रहा.
सबसे भारी युद्धपोत
बिस्मार्क क्लास के इस युद्धपोत को 1936 में बनाना शुरू किया गया और 1941 में इसे सेना में शामिल किया गया. 2000 टन वजन के इस जहाज को यूरोपीय नौसेना का बनाया सबसे भारी युद्धपोत कहा जाता है.
विश्वयुद्ध में संक्षिप्त भूमिका
1942 की शुरुआत में इस जहाज को नॉर्वे भेजा गया ताकि मित्र देशों की चढ़ाई को रोका जा सके. 1942 में दो बार ऐसी कोशिश की गई और जिसे इस जहाज ने नाकाम कर दिया. दूसरे विश्वयुद्ध में इसकी इतनी ही भूमिका थी. ब्रिटिश सेना के ऑपरेशन चैरियट के बाद यह साफ हो गया था कि अटलांटिक बेड़ों के खिलाफ कार्रवाई बेहद जोखिम भरी है. है.
ब्रिटेन की चिढ़
हालांकि इसने ब्रिटिश रॉयल नेवी को इस इलाके में तिरपित्स को काबू में रखने के लिए भारी संख्या में नौसैनिक बलों को तैनात करने पर मजबूर किए रखा. 1943 में तिरपित्स ने स्पित्सबेर्गेन में मित्र देशों के सैन्य ठिकाने पर हमला बोला. यह अकेला मौका था जिसमें इस युद्धपोत की आक्रामक क्षमता का पूरा इस्तेमाल किया गया. विंस्टन चर्चिल तो इसे खासतौर से नापसंद करते थे और इसे "द बीस्ट" कहा करते थे.
उत्तरी नार्वे में छिपा
तिरपित्स और इसके 2500 नौसैनिक उत्तरी नॉर्वे के घुमावदार जलीय सीमा में चले गए ताकि हमलावर जहाजों की नजर में आने से बच सकें. उपग्रहों से पहले के दौर में 250 मीटर लंबे जहाज को भी ढूंढ पाना आसान काम नहीं था. हालांकि मित्र देशों के हमलावरों ने उसका पता लगा लिया और हमले शुरू हो गए.
कृत्रिम धुंध से छिपाया
जर्मन सेना के पास हवाई हमलों से बचने का दूसरा उपाय भी था. वो कृत्रिम रूप से कोहरा बना कर जहाज के आसपास फैला देते और जहाज इसमें छिप जाता. दूर आसामान में उड़ते बमवर्षक जहाजों के लिए धुंध के पीछे से जहाज को देख पाना काफी मुश्किल था.
कृत्रिम धुंध का पेड़ों पर असर
जर्मन सेना जहाज को छिपाने के लिेए कृत्रिम कोहरा बनाया करती थी. दूसरे विश्वयुद्ध के इस अनोखे विज्ञान का 2016 में जर्मनी के माइंस यूनिवर्सिटी की रिसर्चर क्लाउडिया हार्टल को छात्रों के साथ नॉर्वे के उत्तरी तटवर्ती इलाके में काफियोर्ड के आस पास जंगलों का नियमित सर्वे करने के दौरान पता चला.
पेड़ों से पता चला
लैब में परीक्षण के दौरान क्लाउडिया हार्टल ने देखा कि पेड़ों के रिंग काफी पतले थे और कई जगहों पर तो थे ही नहीं. उन्हें हैरानी हुई और पहले लगा कि कहीं कोई कीड़ा तो इसके पीछे नहीं. लेकिन उत्तरी स्कैंडिनेविया में 20वीं सदी में ऐसे किसी कीड़े के बारे में जानकारी नहीं थी जो पेड़ों पर इस तरह का असर डाले.
कितना नुकसान
आगे के रिसर्च के लिए पिछले साल गर्मियों में हार्टल एक बार फिर युद्ध वाले इलाके में यह देखने गईं कि कितना नुकसान हुआ है. उन्होंने फियोर्ड यानी संकरे समुद्री इलाके में जहां तिरपित्स खड़ा हुआ था उससे कुछ सौ मीटर की दूरी से लेकर करीब 10 किलोमीटर के दायरे में पांच परीक्षण के ठिकाने बनाए.
दूरगामी असर
जहाज से चार किलोमीटर की दूरी पर मौजूद करीब आधे पेड़ भी बुरी तरह से प्रभावित हुए और उन्हें पुरानी स्थिति में लौटने में आठ साल लगे. जर्मन सेना जिस कृत्रिम कोहरे का इस्तेमाल जहाज को बचाने के लिए करती थी वह क्लोरोसल्फ्यूरिक एसिड से बना था जो पानी के साथ मिल कर सफेद रंग का गहरा भाप पैदा करता था. इसी कोहरे ने पेड़ों को एक तरह से नंगा कर दिया.
रासायनिक कोहरा
जिस जगह कभी तिरपित्स था वहां के 60 फीसदी पेड़ों में 1945 के दौरान कोई विकास नहीं हुआ. इन सब पेड़ों पर कुछ ना कुछ असर हुआ था. जंगल में बीच की खाली जगहों में नए पेड़ 1950 के दशक में उगे और इससे पता चलता है कि रासायनिक कोहरे ने वनस्पतियों के लिए भी आपदा की भूमिका निभाई.
मोबाइल तोपखाना
जर्मन जहाजों पर कृत्रिम कोहरा पैदा करने के लिए गैस मास्क से लैस खास टीम हुआ करती थी. अक्टूबर 1944 में जर्मन नौसैनिक कमांड इसे ट्रोमसो ले कर गया जहां यह मोबाइल तोपखाने के प्लेटफॉर्म के रूप में सेवा देता रहा. इसके अगले महीने ही 32 ब्रिटिश लैनकेस्टर के बमवर्षकों ने इसे हार्बर की गर्त में पहुंचा दिया.
12 नवंबर 1944 को डूबा
ब्रिटिश मिनी सबमरीन्स के हमले में इसका कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया. 1944 में 12 नवंबर को 5400 किलो के दो टॉलबॉय बम सीधे इससे टकराए और इसके बाद जहाज बहुत तेजी से पानी में डूबने लगा. इसी दौरान डेक पर मौजूद गोला बारूद में आग भी लग गई. माना जाता है कि इस हमले में 950 से 1204 लोगों की जान गई.