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विवादास्पद शख्सियत हैं वामपंथी रोजा लक्जेमबुर्ग

मार्सेल फुर्स्टेनाउ
१५ जनवरी २०१९

राजशाही के खात्मे के बाद जर्मन लोकतंत्र बनने की राह पर था. तभी वामपंथी राजनीतिज्ञ रोजा लक्जेमबुर्ग की हत्या कर दी गई. इस घटना के सौ साल बाद भी सोशल डेमोक्रैट, कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी रोजा लक्जेमबुर्ग विवादास्पद हैं.

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Rosa Luxemburg
तस्वीर: picture-alliance/Isadora/Leemage

सौ साल पहले का जर्मनी. पहला विश्वयुद्ध अभी खत्म ही हुआ था. सम्राट भाग खड़ा हुआ, देश में शांति का नामोनिशान नहीं था. हालांकि सोशल डेमोक्रैट फिलिप शाइडेमन ने 9 नवंबर 1918 को बर्लिन में गणतंत्र की घोषणा कर दी थी, लेकिन सैनिकों द्वारा शुरू की गई और मजदूरों द्वारा समर्थित क्रांति जारी थी. लोग मर रहे थे क्योंकि जर्मन ही जर्मनों पर गोली चला रहे थे. जनवरी 1919 में मामला गरमा गया जिसे बाद में स्पार्टाकस विद्रोह के नाम से जाना गया क्योंकि उसमें मार्क्सवादी स्पार्टाकस संगठन की भी भागीदारी थी.

हर रोज विशाल प्रदर्शन हो रहे थे. एसपीडी के अध्यक्ष फ्रीडरिष एबर्ट के नेतृत्व में एसपीडी और स्वतंत्र सोशल डेमोक्रैटों की गठबंधन सरकार सत्ता में थी. उस पर सड़क के लोगों का भारी दबाव था जो प्रदर्शन कर रहे थे. साल की शुरुआत में गठित कम्युनिस्ट पार्टी ने इस दबाव को और बढ़ा दिया था. उसका नेतृत्व दो पूर्व सोशल डेमोक्रैट कार्ल लीबक्नेष्ट और रोजा लक्जेमबुर्ग कर रहे थे.

लोकतांत्रिक समाजवाद का अधूरा सपना

अपने कट्टर युद्धविरोधी रवैये के कारण वे अपनी पुरानी पार्टी में अलग थलग हो गए थे. एसपीडी ने 1914 में युद्ध के लिए पैसा जुटाने के लिए सरकारी बॉन्डों का समर्थन किया था. लक्जेमबर्ग और लीबक्नेष्ट ने स्वतंत्र सोशल डेमोक्रैटों के गुट में शामिल हो गए. 1918 और 1919 के क्रांति के दिनों में कुछ समय के लिए लोकतांत्रिक समाजवाद का उनका सपना पूरा होता लगा. आदर्श रूस था जहां 1917 की क्रांति कामयाब रही थी, हालांकि बाद में चलकर पार्टी की तानाशाही में बदल गई थी. रोजा लक्जेमबर्ग इसका विरोध कर रही थी. हैम्बर्ग के इतिहासकार मार्सेल बॉयस कहते हैं कि उनके लिए लोकतंत्र और समाजवाद अविभाज्य थे.

Karl Liebknecht
युद्ध विरोध के कारण 1916 में एसपीडी से निकाले गए थे कार्ल लीबक्नेष्टतस्वीर: picture-alliance/dpa

उनकी राय में न सिर्फ राजनीति की संरचना लोकतांत्रिक होनी चाहिए बल्कि अर्थव्यवस्था की भी. इसलिए उन्होंने परिषदों के आंदोलन का समर्थन किया था, लेकिन सत्तापहरण को अस्वीकार कर दिया था. यह रुख शुरू में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रोग्राम में भी शामिल था और कहा गया था कि "जर्मनी की कामकाजी जनता के बड़े बहुमत की स्पष्ट इच्छा के अलावा" किसी दूसरे तरीके के सत्ता हासिल नहीं की जाएगी.

कार्ल क्या ये हमारा प्रोग्राम है?

इस बात पर अभी तक इतिहासकारों के बीच भी विवाद है कि दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं ने जनवरी 1919 में हुए स्पार्टाकस विद्रोह में क्या भूमिका निभाई. मार्सेल बॉयस का मानना है कि विद्रोह की शुरुआत मुख्य रूप से औद्योगिक उद्यमों की क्रांतिकारी ताकतों ने की थी. कार्ल लीबक्नेष्ट ने खुद को माहौल से प्रभावित होने दिया. मकसद था सरकार को गिराना. इसके विपरीत रोजा लक्जेमबुर्ग ने अपने साथी से पूछा बताते हैं, "कार्ल क्या ये अभी भी हमारा कार्यक्रम है?"

सुनी सुनाई ये बात इस बात का अहसास देती है कि कार्ल लीबक्नेष्ट और रोजा लक्जेमबुर्ग किस किस तरह सही रास्ते के लिए बहस कर रहे थे. उनकी हत्या के बाद वामपंथियों का ये विभाजन एक नए चरण में प्रवेश कर गया. 15 जनवरी 1919 को दोनों नेताओं की बर्बर हत्या कर दी गई. सरकार के तहत काम करने वाले दक्षिणपंथी पैरामिलिट्री सैनिकों ने औपचारिक तौर पर "भागते हुए" लीबक्नेष्ट को गोली मार दी. रोजा लक्जेमबुर्ग को भी गोली मार दी गई और उनकी लाश बर्लिन के लांडवैयर नहर में फेंक दी गई.

Rosa Luxemburg Beisetzung 1919
रोजा लक्जेमबुर्ग की लाश हत्या के चार महीने बाद मिली, उन्हें जून में दफनाया गयातस्वीर: picture-alliance/akg-images

आजादी हमेशा अलग सोचने वालों की आजादी

उनकी याद में समाजवादी और कम्युनिस्ट हर साल बर्लिन में मौन जुलूस निकालते हैं. आम तौर पर जनवरी के दूसरे रविवार को हजारों लोग बर्लिन में समाजवादियों के कब्रिस्तान में जुलूस की शक्ल में जाते हैं. जर्मन विभाजन के समय पूर्वी जर्मनी की साम्यवादी सरकार इस जुलूस का आयोजन करती थी. कैसा विरोधाभास था कि सत्ता पर काबिज कम्युनिस्ट ऐसे नेताओं की याद करते थे जिन्होंने पार्टी की तानाशाही को नकार दिया था. जबकि पहले दिन से ही जीडीआर में कम्युनिस्ट पार्टी एसईडी का एकाधिकारवादी शासन था.

साम्यवाद विशेषज्ञ मार्सेल बॉयस बताते हैं जीडीआर के आखिरी दिनों के सरकार विरोधी लीबक्नेष्ट और रोजा लक्जेमबुर्ग के सिद्धांतों की याद दिलाते थे. 1989 में बर्लिन दीवार गिरने के एक साल पहले उन्होंने जनवरी के जुलूस के दौरान राज्य सत्ता को चुनौती दी थी और अपने बैनरों पर उन्होंने सामाजिक बदलाव की मांग करते हुए रोजा लक्जेमबुर्ग को उद्धृत किया था. नारों में उनका रूसी क्रांति की आलोचना करते हुए कहा गया सबसे प्रसिद्ध वाक्य भी थी, "आजादी हमेशा अलग सोचने वालों की आजादी होती है."

Ostberlin Gedenkdemonstration Luxemburg Liebknacht 1988
बर्लिन में दोनों नेताओं की याद में जुलूशतस्वीर: picture-alliance/dpa

एक तरह का हर्जाना है रोजा लक्जेमबुर्ग फाउंडेशन

आज भी अत्यंत लोकप्रिय लेकिन उतनी ही विवादास्पद नेता की बौद्धिक विरासत का ख्याल आजकल रोजा लक्जेमबु्रग फाउंडेशन रख रही है. फाउंडेशन की प्रमुख डागमार एंकेलमन इसे एक तरह का हर्जाना मानती है कि वामपंथी डी लिंके का करीबी फाउंडेशन मार डाली गई नेता के नाम पर है. वे कहती हैं कि जीडीआर के समय में अखबारों के लेखों और चिट्टठियों में व्यक्त रोजा लक्जेमबुर्ग के विचारों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था.

इस साल मई में होने वाले यूरोपीय चुनावों के मद्देनजर डागमार एंकेलमन वामपंथियों के स्थायी विभाजन की ओर ध्यान दिलाती हैं. अभी तक साफ नहीं है कि यूरोप की वामपंथी पार्टियों का साझा संसदीय दल होगा या नहीं. वे कहती हैं कि 200 साल का अनुभव दिखाता है कि वामपंथी बहुत जल्दी आपस में मोर्चा बना लेते हैं और साझा मुद्दों पर बहुत कम मिलजुलकर काम करते हैं. यही अनुभव रोजा लक्जेमबुर्ग ने भी किया था और उसकी कीमत अपनी जान देकर चुकाई थी.

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