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विदेशी चंदे पर कानूनी शिकंजा कसने की उतावली

शिवप्रसाद जोशी
२५ सितम्बर २०२०

भारत में कड़े प्रावधानों वाला विदेशी चंदा संशोधन कानून संसद के दोनों सदनों ने पास कर दिया है. विदेशी चंदे पर निर्भर एनजीओ और स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस कानून को मानवाधिकारों और सामाजिक विकास के लिए निर्णायक झटका बताया है.

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Indien Ehepaar leitet Straßenkurse für arme Schüler
तस्वीर: Manish Swarup/AP Photo/picture-alliance

महामारी के बीच संसद के मौजूदा सत्र में एनजीओ की विदेशी फंडिंग को रेगुलेट करने वाला विदेशी योगदान विनियमन संशोधन अधिनियम (एफसीआरए) बिल संसद से पास करा लिया गया. जानकारों का मानना है कि सामाजिक अधिकारों, मानवाधिकार, जेंडर मुद्दों, कानूनी सहायता, वंचितों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से लेकर पर्यावरण बचाने  की लड़ाइयों में आगे रहने वाले स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए जीवन मरण का ही प्रश्न नहीं, एक वृहद सामाजिक गतिविधि के ठप पड़ जाने की चिंता भी है. लेकिन सरकार का दावा है कि कानून से आंतरिक सुरक्षा मजबूत होगी, देशविरोधी और धर्म परिवर्तन जैसी कथित गतिविधियों पर अंकुश लगेगा और एनजीओ पर कोई कुठाराघात नहीं होगा.

नये प्रावधानों के मुताबिक विदेशी चंदे के आकांक्षी और लाभार्थी एनजीओ को अपने सभी पदाधिकारियों के आधार कार्ड जमा कराने होंगे. जिस वजह से चंदा मिला है उसी में खर्च करना सुनिश्चित करना होगा. इस चंदे को प्रशासनिक कार्यों पर खर्च करने की सीमा भी 50 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर दी गयी है. इसके अलावा चंदे की राशि किसी अन्य व्यक्ति, संगठन या पंजीकृत कंपनी को ग्रांट के रूप में नहीं दी जा सकती है या उनके खातों में नहीं डाली जा सकती है. किसी भी किस्म की गड़बड़ी पाए जाने पर सरकार जांच करेगी और उस दौरान अधिकतम 180 दिनों के लिए पंजीकरण स्थगित कर सकती है. और ये स्थगन और 180 दिनों के लिए बढ़ाया जा सकता है. एक नयी शर्त ये जोड़ी गयी है कि विदेशी चंदा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की दिल्ली शाखा में खोले गये एफआरसीआए खाते में ही मंगवाया जा सकता है. यानी खाता वहां खुलवाना होगा. कानून में पब्लिक सर्वेंट पर भी विदेशी चंदा लेने की रोक लगायी गयी है. और आखिरकार केंद्र सरकार के पास ये निर्णायक अधिकार होगा कि कौन से संगठन को विदेशी फंड मिलना चाहिए और किस एनजीओ पर फंड के उपयोग की रोक लगानी है. अभी तक सरकार ऐसा ऐक्शन तभी ले सकती थी जब कि व्यक्ति या संगठन एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी पाया जाता.

भारत सरकार के एफसीआरए आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में विदेशी चंदा हासिल करने वाले 22447 एनजीओ पंजीकृत हैं. 2018-19 के सालाना रिटर्न दाखिल करने का आंकड़ा बताता है कि कि करीब 98 प्रतिशत रिटर्न भर दिए गए. लेकिन बिल के मुताबिक 2010 से 2019 की अवधि में विदेश चंदे का सालाना प्रवाह करीब करीब दोगुना हो चुका है लेकिन ये चंदा पाने वाली कई संस्थाओं ने इसे उस उद्देश्य के लिए खर्च नहीं किया जिसके लिए वे पंजीकृत थीं या उन्होंने पूर्वानुमति हासिल की थी. इसीलिए इस अवधि में 19 हजार पंजीकरण स्थगित किए गए और वित्तीय गड़बड़ी के दोषी करीब दर्जन भर एनजीओ के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू की गयी. बहुत सी कार्रवाईयों के पीछे राजनीतिक मंशाएं भी विवादों और सुर्खियों में रही हैं.

Indien Müll in Bangalore
सामाजिक बदलाव के लिए काम करते हैं गैर सरकारी संगठनतस्वीर: Dibyangshu Sarkar/AFP/Getty Images

पहले भी हुई है कोशिश

ये कोई पहली बार नहीं है जब विदेशी चंदे की आड़ में एनजीओ पर गाज गिरी है. मौजूदा सरकार का नकेल कसने का ये रास्ता कांग्रेस की अगुवाई वाली पूर्ववर्ती यूपीए सरकार का ही दिखाया हुआ है. पहली बार एफसीआरए में संशोधन यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2010 में हुए थे. इसके बाद 2012, 2015 और 2109 में भी बदलाव किए गए. आज भले ही लोकसभा में कांग्रेस के सांसद व्याकुल और व्यथित नजर आते हों लेकिन उन्हें वो दौर भी याद रखना चाहिए जब पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम कुडनकुलम एटमी संयंत्र के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों और आंदोलनों में विदेशी साजिश सूंघ रहे थे और विदेशी फंडिंग पाने वाले उन एनजीओ को चिंहित किया जा रहा था जो संयोग से उस आंदोलन में भी भागीदार थे. एफसीआरए पर नजरें तब भी टेढ़ी हुई थीं. फर्क एक एनजीओ एक्टिविस्ट के मुताबिक इतना ही है कि इस बार कथित रूप से इस दमन को पूरी तरह से वैधानिक बना दिया गया है.

विशेषज्ञों का मानना है कि एनजीओ पर एक तरह से वित्तीय नियंत्रण की इस कोशिश के जरिए सरकार ये संदेश भी दे रही है कि उसकी नीतियों और फैसलों का विरोध और उसकी छवि को कथित आघात पहुंचाने वाली किसी गतिविधि को स्वीकार नहीं किया जाएगा. वरना मनमानी को अधिनियम में जरूरत की तरह डालने का भला क्या मतलब. जबकि जानकारों के मुताबिक एनजीओ की आड़ में एक ऐसा तंत्र भी खूब सक्रिय रहा है जिसने सामाजिक जागरूकताओं को आंदोलनों के जरिए बढ़ाने की बजाय यथास्थितिवादी रवैया अपनाते हुए सत्तातंत्र के लिए सेफ्टीवाल्व का ही काम किया है. जाहिर है सरकारों को ऐसे एनजीओ से परेशानी नहीं है.

वैसे दुनिया में आमतौर पर सभी सरकारें एनजीओ पर लगाम लगाने की कोशिश करती रही हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में एनजीओ सत्ताओं के दमन का शिकार बन रहे हैं. भारत के अलावा पाकिस्तान, चीन, रूस, अजरबैजान, सऊदी अरब, मिस्र, आयरलैंड, अमेरिका, ब्रिटेन, बेलारुस और हंगरी जैसे कम से कम 50 देशों में एनजीओ विरोधी कानून या तो अमल में हैं या लाए जाने वाले हैं. ध्यान देने वाली बात है कि ऐसे कई संगठन दुनिया भर में सरकारी कोप का शिकार बने हैं जो विभिन्न हिस्सों में मानवाधिकार के हनन, विकास परियोजनाओं की अतिशयता और पर्यावरणीय नुकसान पर आवाज उठाते रहे हैं. लोकतांत्रिक सरकारों को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि विरोध का लोकतांत्रिक माहौल बना रहे. लेकिन देशहित के नाम पर हो अलग ही रहा है.

Anti Atomkraft Proteste Indien
परमाणु बिजलीघर का विरोध यानि विकास का विरोधतस्वीर: AP

सिर्फ निवेश पर जोर  

एक तरफ दुनिया में विदेशी पूंजी निवेश की होड़ मची है, कर्ज लिए और दिए जा रहे हैं, वहीं कुछ देश नीतिगत फैसलों में आचार संहिता लागू करने का साहस दिखा रहे हैं. जर्मनी इनमें सबसे आगे है जहां सरकार अगले साल तक मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए ऐसा कानून लाने की योजना बना रही है जो ये सुनिश्चित करेगा कि वे अपने निवेश और विभिन्न देशों में स्थित अपनी उत्पादन इकाइयों में पर्यावरणीय और मानवाधिकारों की क्षति न करने पाएं. अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने सप्लाई चेन एक्ट के नाम से जाने जा रहे इस प्रस्तावित कानून का स्वागत करते हुए इसे व्यापक सामाजिक कल्याण की दिशा में एक जरूरी कदम बताया है. क्या ये पहल भारत में की जा सकती है? तब शायद हमें किसी ईमानदार एनजीओ के विदेशी चंदे पर नजरें गड़ाने या उन्हें ‘विदेशी एजेंट' या ‘जासूस' कहकर उन्हें अपमानित करने या उन पर संदेह की जरूरत न पड़े!

प्रतिबद्ध स्वैच्छिक संगठनों को डर है कि न सिर्फ राहत और सामाजिक कार्य बल्कि सामुदायिक सहयोग और वैज्ञानिक शोध के लिए भी हालात कठिन हो जाएंगे क्योंकि परस्पर गठजोड़ की कोशिशों पर भी रोक लगायी गयी है. विदेशी चंदे को लेकर पारदर्शिता और जवाबदेही से किसी को इंकार भी नहीं होना चाहिए लेकिन देश को विकास को रास्ते पर आगे ले जाने के अभियान में एनजीओ, सिविल सोसायटी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की अगर सच्ची भागीदारी बनायी जा सकती है तो उससे परहेज क्यों. क्या महामारी जैसे एक अभूतपूर्व और असाधारण समय में गैरलाभकारी सेक्टर के कार्यों की अनदेखी की जा सकती है, खुद प्रधानमंत्री मोदी एनजीओ कार्यकर्ताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित कर चुके हैं. अवांछित तत्वों या संदिग्ध लेनदेन पर नजर रखने या कार्रवाई करने के लिए सुरक्षा और जांच एजेंसियां हैं, तमाम कानूनी व्यवस्थाएं है.

एक ऐसे समय में जहां अवमूल्यन को समाचार की कसौटी बनाने की कोशिशें की जा रही हों और विवेक  की जगह शोर सुनायी देता हो और जब राजनीति में संयम की जगह प्रतिशोध और हाहाकार मचा हो वहां ये बुनियादी सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि विदेश से मिलने वाला दान इतना संदिग्ध और देशविरोधी कैसे हो गया? दानदाता एजेंसियों और बहुराष्ट्रीय निगमों की ओर से वही पैसा जब निवेश या सहयोग के रूप में आर्थिक विकास के लिए आ सकता है तो सामाजिक विकास के लिए क्यों नहीं?

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