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समाज

विकास की अंधी दौड़ में विरासत को कुचल रहे हैं शहर

१८ अक्टूबर २०१९

एशिया के शहर इस कदर विकास की अंधी दौड़ में शामिल हैं कि वे अपनी सांस्कृतिक विरासतों को भी नहीं बचा पा रहे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि वे अपने उस पारंपरिक ज्ञान को भी भूलते जा रहे हैं जिस पर कभी उनका शहर टिका था.

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Malaysia Skyline von Kuala Lumpur
तस्वीर: AHMAD YUSNI/AFP/Getty Images

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में पहली बार ऐसा हुआ है जब शहरों में रहने वाले लोगों की संख्या गांव देहातों में रहने वालों से ज्यादा हो गई है. ऐसे में शहर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं. रिहायशी परिसरों के अलावा दफ्तर और मेट्रो रेल जैसे सार्वजनिक परिवहन के साधन विकसित करने पर बहुत जोर दिया जा रहा है. इसके कारण बहुत सी पुरानी इमारतों और अनौपचारिक बस्तियों को हटाया जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक एजेंसी यूनेस्को की मोंटिरा होरायांगुरा उनाकुल का कहना  है कि हम विकास की अंधी दौड़ में पारंपरिक ज्ञान को भी भूलते जा रहे हैं.

मलेशिया के पेनांग में शहरीकरण पर हुई एक कांफ्रेंस में उन्होंने कहा, "बहुत से शहरों में, अब भी विरासतों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है, लेकिन उनसे ना सिर्फ हमारी क्षमताएं और पर्यटन बेहतर हो सकता है बल्कि व्यापक तौर पर आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय विकास को भी बढ़ावा देने में मदद मिलेगी." उनके मुताबिक, "विरासत सिर्फ किसी स्थल को संरक्षित करना नहीं है, बल्कि प्राचीन तौर तरीकों, पारंपरिक ज्ञान, सामाजिक मूल्यों, आर्थिक सिद्धांतों समेत उस सब चीजों को संरक्षित करना होगा जो जमीन के ऊपर और नीचे मौजूद है."

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यूनेस्को ने जिन 900 स्थलों को विश्व विरासत घोषित किया है, उनमें 193 शहर और शहरी इलाकों में स्थित ऐतिहासिक स्थल शामिल हैं. सांस्कृतिक विरासतों का संरक्षण भी संयुक्त राष्ट्र के उन 17 टिकाऊ विकास लक्ष्यों में शामिल है जिन्हें 2030 तक पूरा किया जाना है. अन्य लक्ष्यों में भुखमरी से निपटना, लैंगिक समानता लाना और जलवायु परिवर्तन से लड़ना शामिल है.

जकार्ता के एक थिंकटैंक के लिए काम करने वाली एलिसा सुल्तानुद्याया कहती हैं कि इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों में शहरों में मौजूद गांवों को और अनौपचारिक बस्तियों को विरासत नहीं माना जाता. उनके मुताबिक, "शहर औपचारिक और अनौपचारिक बस्तियों के मिलने से ही बनते हैं. इसीलिए शहरों में मौजूद गांव भी शहरीकरण की योजनाओं का हिस्सा होने चाहिए. ये देहाती इलाके गांवों से शहरों की तरफ लोगों के जाने का माध्यम बनते हैं." वह कहती हैं कि इन इलाकों में पीढ़ियों से रहने वाले लोगों के पास बाढ़ और अन्य आपदाओं से निपटने के लिए अहम पारंपरिक जानकारी हो सकती है, जिसे संरक्षित करके रखने की जरूरत है.

अहमदाबाद की सेप्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शाश्वत बंधोपाध्याय भी इस कांफ्रेंस में पहुंचे. उनका मानना है कि शहरों में दबाव बढ़ रहा है लेकिन आधुनिकीकरण करते वक्त चीजों को संरक्षित करने वाली सोच अपनानी होगी. इसमें लोगों को भी अपना योगदान देना होगा और अपने खाने, पहनावे और संगीत से जुड़ी परंपरा और संस्कृतियों को सहेज कर रखना होगा. वह कहते हैं, "विरासत एक बार खोई तो फिर वापस नहीं मिलेगी. इसीलिए विरासत को सहेजने के लिए हम जो भी कर सकते हैं, हमें वह करना चाहिए."

एके/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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