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लोकतंत्र को चुटकुला न बनाएं

१५ सितम्बर २०१३

इंसान ने पाषाण युग देखा, कबीलाई संस्कृति देखी. राजशाही, तानाशाही का उठना और धूमिल होना भी देखा. कई युद्धों की साक्षी मानव सभ्यता अब लोकतंत्र का आनंद ले रही है. क्या लोकतंत्र की किताब से जनकल्याण शब्द मिटता जा रहा है.

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तस्वीर: Reuters

ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों का संविधान कहता है कि हर नागरिक को आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक बराबरी का अधिकार है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी हो. जीवन के हर पहलू में उनकी पूरी भागीदारी हो. लेकिन क्या ये बातें निबंध लिखने और गोष्ठी में व्याख्यान देने भर के लिए रह गई हैं.

लोकतांत्रिक मूल्यों की वकालत सबसे ज्यादा अमेरिका करता है. लेकिन हाल ही में, न जाने कौन सी बार, यह रिपोर्ट फिर आई है कि अमेरिका में अमीर और गरीब के बीच फासला बढ़ता जा रहा है. उसकी खुफिया एजेंसी पर दूसरे लोकतांत्रिक देशों के नेताओं की जासूसी करने के आरोप हैं. विकीलीक्स जैसी बेवसाइटों के जरिए पता चलता है कि अमेरिकी कूटनीति कैसे खेल खेलती है.

दुनिया का दूसरा ताकतवर देश रूस है. वो भी खुद को लोकतांत्रिक कहता है. रूसी संविधान के मुताबिक कोई भी नेता लगातार तीन बार राष्ट्रपति नहीं बन सकता. लिहाजा व्लादिमीर पुतिन, दो बार राष्ट्रपति बनने के बाद तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर एक छोटा सा ब्रेक लेते हैं. किसी टीवी विज्ञापन ब्रेक के बाद पुतिन एपिसोड फिर शुरू हो जाता है. राष्ट्रपति दिमित्री मेद्वेदेव उनके लिए कुर्सी छोड़ देकर प्रधानमंत्री बन जाते हैं और पुतिन तीसरी बार फिर राष्ट्रपति बन जाते हैं. बच्चों के चोर पुलिस खेल जैसा है, चोर बनने वाले अगली बार पुलिस बन जाते हैं और पुलिसवाले चोर बन जाते हैं. पुतिन स्टाइल लोकतंत्र का विरोध करने वाले मुकदमे झेलते हैं. इसके खिलाफ व्यंग्य भरा गाना गाने वालों को रूस की रिमोट कंट्रोल चालित अदालतें जेल भेज देती हैं.

तीसरा ताकतवर देश चीन है. वो साफ स्वीकार करता है कि उनके यहां फिलहाल लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं. एक पार्टी शासन वाला देश इस समय अपने उद्योगों को चमकाने में लगा हुआ है. वो विश्व महाशक्ति बनने में व्यस्त है. हालांकि बीच बीच में सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता और उनके बेटे आपराधिक गतिविधियों की वजह से सुर्खियों में आते हैं. चीन कहता है कि, लोकतंत्र की बात न करो, बस कारोबार करो.

और अब बात संख्या के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की. हाल के समय में एशिया का ये देश भ्रष्टाचार से त्रस्त दिखता है. अपराधों के लिए बदनाम भी हो रहा है. ज्यादातर नेता किसी ध्रुवीय भालू की तरह ठीक चुनाव से पहले जागते हैं. जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन दिखते हैं. कोई विरोध करे, तो कहते हैं कि दबाव मत डालो, संसद का रास्ता चुनो, राजनीति में आकर बदलाव करो. राजनीति में आने की कोशिश हो, तो कहते हैं, देखा पहले ही कहा था कि इनका विरोध तो राजनीतिक था. कुछ ताकतवर भारतीय पार्टियां तो चुनाव से पहले सांप्रदायिकता और तुष्टिकरण की राजनीति के लिए ही जानी जाती हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप के सबसे बड़े देश ब्राजील की भी हालत कुछ ऐसी ही है. दुनिया को लगता है कि ब्राजील वालों को बस फुटबॉल दे दो, मस्त रहेंगे. लेकिन कुछ महीनों पहले वहां सामाजिक असंतोष की वजह से इतने बड़े प्रदर्शन हुए कि युवाओं ने 2016 के ओलंपिक खेलों को ही रद्द करने की मांग कर डाली. जनता का संदेश था कि पैसा दिखावे पर नहीं समस्याओं पर खर्च करो. सरकार ने आश्वासन दिया है.

162 लोकतांत्रिक देशों में ज्यादातर मुल्क तमाम परेशानियों से गुजर रहे हैं. एक वक्त दुनिया पर राज करने वाला ब्रिटेन अपने युवाओं को नौकरी नहीं दे पा रहा है. महंगाई की वजह से ब्रिटिश युवाओं के लिए शहरों में रहना और पढ़ना तक मुश्किल हो रहा है. वो एशिया का रूख कर रहे हैं. दूसरे संपन्न देशों में भी आर्थिक विषमता बढ़ रही है. समाज विज्ञानी और अर्थशास्त्री लगातार इस बारे में चेतावनी दे रहे हैं. स्विट्जरलैंड के शहर दावोस रिजॉर्ट में हर साल दुनिया भर वित्त मंत्री और बड़े कारोबारी मिलते हैं. ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट या ओईसीडी रिपोर्ट लगातार कह रही है कि आय का वितरण ठीक करो. ओईसीडी के मुताबिक 2008 से 2010 के बीच आर्थिक असमानता इतनी बढ़ी, जितनी बीते 12 साल में नहीं बढ़ी. ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के दस फीसदी लोगों के पास इतना पैसा है जितना 90 फीसदी के पास नहीं है.

जनता के वोट से लोकतंत्र को प्राण मिलते हैं, लेकिन पार्टियों को ट्राई करने के बाद अगर जनता लोकतंत्र से नाराज हो जाए तो! अरब वसंत का उदाहरण सबके सामने है, एक देश की चिंगारी अब पूरी दुनिया में फैल सकती है. बीते तीन चार साल से अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों में युवा 'कब्जा करो' जैसे प्रदर्शन कर रहे हैं. प्रदर्शनों की गूंज लंदन से लाओस तक सुनाई पड़ रही है. प्रदर्शनकारियों का कहना है कि एक फीसदी लोगों के पास जितना पैसा है उतना कुल 99 फीसदी लोगों के पास नहीं. इसका असर नैतिक मूल्यों पर भी पड़ रहा है. महात्मा गांधी ने एक बात कही थी, "धरती हर व्यक्ति की जरूरत को तो भर सकती है, लेकिन हर किसी के लालच को नहीं भर सकती."

इसी महीने रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में जी 20 देशों के नेता मिले. सीरिया के साथ ही वहां चर्चा हुई कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए टैक्स के नए वैश्विक नियम बनाए जाएं. कंपनियां मुनाफे की होड़ में एक देश से दूसरे देश आसानी से चली जाती है. संसाधनों को निचोड़ने के बदले बहुत मामूली कर चुकाती हैं. कुछ कहो तो 1920 के नियमों का हवाला देती हैं, जो आज भी लागू हैं.

धनाढ्य वर्ग से हर देश की सरकार टैक्स चुकाने को कहती है लेकिन इसके बावजूद 32,000 अरब डॉलर काला धन कुछ बैंकों में जमा है. अनुमान है कि ये रकम पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की 25 फीसदी है. ऑक्सफैम जैसी संस्थाएं कई संगठनों के साथ मिलकर गरीबी मिटाने का अभियान छेड़े हुए हैं. संस्था के मुताबिक सुधारों के नाम पर सरकारी खर्च में कटौती जैसे कदमों की मार आम लोगों पर ही पड़ती है. अमीर तो इससे बचे ही रहते हैं.

वैसे कई देशों के नेता ये भांप रहे हैं कि जन असंतोष विकराल शक्ल ले सकता है. कभी कभार कुछ नेता कोशिश भी कर रहे हैं कि पारदर्शिता, आय के समान वितरण, स्वस्थ श्रम कानून जैसी चीजें लागू की जाएं. लेकिन दिक्कत ये है कि वैश्विक गांव बन चुकी दुनिया में एक दो देशों के कदम कुछ नहीं कर पाएंगे.

लिहाजा ये जरूरी है कि 15 सितंबर को विश्व लोकतांत्रिक दिवस के दिन भाषण से ज्यादा ध्यान सुधारों पर दिया जाए. वरना आने वाली पीढ़ियां लोकतंत्र को भी इतिहास के पाठ की तरह पढ़ेंगी. उसके उत्थान और पतन पर निबंध लिखेंगी.

ब्लॉगः ओंकार सिंह जनौटी
संपादनः महेश झा

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