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समाज

लड़कों का यौन उत्पीड़न ज्यादा

६ अगस्त २०१८

महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की 2017 की रिपोर्ट दर्शाती है कि देश में 53.22 फीसदी बच्चों को यौन शोषण के एक या अधिक रूपों का सामना करना पड़ा, जिसमें से 52.94 फीसदी लड़के इन यौन उत्पीड़न की घटनाओं का शिकार हुए.

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Kinder Gewalt Symbolbild
तस्वीर: Imago/Imagebroker

देश में जब बात बच्चों से यौन उत्पीड़न के मामलों की आती है तो दिमाग में लड़कियों के साथ होने वाली यौन उत्पीड़न की घटनाएं आंखों के सामने उमड़ने लगती हैं, लेकिन इसका एक पहलू कहीं अंधकार में छिप सा गया है. चेंज डॉट ओआरजी के माध्यम से बाल यौन उत्पीड़न के मामले को उठाने वाली याचिकाकर्ता, फिल्म निर्माता और लेखक इंसिया दरीवाल ने मुंबई से फोन पर आईएएनएस को बताया, "सबसे बड़ी समस्या है कि इस तरह के मामले कभी सामने आती ही नहीं क्योंकि हमारे समाज में बाल यौन उत्पीड़न को लेकर जो मानसिकता है, उसके कारण बहुत से मामले दर्ज ही नहीं होते और होते भी हैं, तो मेरी नजर में बहुत ही कम ऐसा होता है."

दरीवाल के अनुसार लोग इस बात को स्वीकारते ही नहीं हैं कि लड़कों के साथ भी ऐसा कुछ हो सकता है, "इस तरह के मामले सामने आने पर समाज की पहली प्रतिक्रिया होती है कि लड़कों के साथ तो कभी यौन शोषण हो नहीं सकता, क्योंकि वे पुरुष हैं और पुरुषों के साथ कभी यौन उत्पीड़न नहीं होता." वे आगे कहती हैं, "समाज का लड़कों को देखने का यह जो नजरिया है, वह ठीक नहीं है क्योंकि पुरुष बनने से पहले वह लड़के और बच्चे ही होते हैं और बच्चों में कोई लड़के-लड़की का भेद नहीं होता."

वे बताती हैं कि लड़कों का शोषण अधिकतर पुरुषों द्वारा ही हो रहा है, "मेरे हिसाब से यह काफी नजरअंदाज कर दी जाने वाली सच्चाई है और मैं पहले भी कई बार बोल चुकी हूं कि हम जो बच्चों और महिलाओं पर यौन हिंसा समाज में देख रहे हैं, कहीं न कहीं हम उसकी जड़ को नहीं पकड़ पा रहे हैं."

लड़कों के साथ यौन उत्पीड़न होने पर उस पर पर्दा करने के बारे में उन्होंने कहा, अगर कोई लड़का अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के मामले को लेकर बोलता भी है, तो पहले लोग उसपर हंसेंगे, उसका मजाक उड़ाएंगे और उसकी बातों का विश्वास भी नहीं करेंगे, कहेंगे तुम झूठ बोल रहे हो, यह तो हो ही नहीं सकता. हंसी और मजाक बनाए जाने के कारण लड़कों को आगे आने से डर लगता है, इसलिए समाज बाल यौन उत्पीड़न में एक अहम भूमिका निभा रहा है."

दरीवाल बताती हैं कि पिछले कुछ समय से इस दिशा में लोगों में जागरूकता आई है और सरकार भी इस ओर ध्यान दे रही है, "आज सामान्य कानूनों को निष्पक्ष बनाने की प्रक्रिया चल रही है, इसकी शुरुआत पॉस्को कानून से हुई और अब धारा 377, पुरुषों के दुष्कर्म कानून को भी देखा जा रहा है. अब अखिरकार हम लोग लिंग समानता की बात कर सकते हैं, जिससे वास्तव में समानता आएगी. लिंग समानता का मतलब यह नहीं है कि वह एक लिंग को ध्यान में रखकर सारे कानून बनाए, यह सिर्फ महिलाओं की बात नहीं है. पुरुष और महिलाओं को समान रूप से सुरक्षा मिलनी चाहिए."

बच्चों की इन हरकतों को अनदेखा ना करें 

महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी से मिले समर्थन पर उन्होंने कहा, "उन्होंने मेरे काम की सराहना की है और कहा कि यह काम काफी जरूरी है. मैंने उनसे एक स्टडी की मांग की थी, जिसमें यह देखना था कि बाल यौन उत्पीड़न की हमारे समाज में कितनी प्रबलता है और बच्चों और पुरुषों पर इसके क्या प्रभाव हैं. इसमें उनके संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ता है, उनकी मानसिकता और शारिरिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है. इस स्टडी के नतीजों से मुझे मापदंड तैयार करने हैं क्योंकि जब तक हम जड़ की जांच नहीं करेंगे, तब तक नहीं पता चलेगा कि यह क्यों हो रहा है."

बाल यौन उत्पीड़न मामलों में समाज की गलती के सवाल पर इंसिया ने कहा, "मानसिकता बदलना बहुत जरूरी है क्योंकि अगर हम लोग मानसिकता नहीं बदल पाए तो कानून कितने भी सख्त हो जाएं, उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. जब भी कोई घटना होती है, तो हम सरकार, कानून और वकीलों को दोषी ठहराते हैं. लेकिन हमें कहीं न कहीं खुद को भी देखना चाहिए क्योंकि हमारे समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग भूमिका तैयार कर दी गई है, जिसे उन्हें निभाना पड़ता है, इसे बदलने की जरूरत है."

भारत सरकार ने लिंग निष्पक्ष कानून बनाने के मद्दनेजर लड़कों के साथ होने वाले यौन शोषण को मौजूदा यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा (पॉस्को) अधिनियम में संशोधनों को मंजूरी दे दी है, जिसे कैबिनेट के पास मंजूरी के लिए भेजा जाना बाकी है.

रिपोर्ट: जितेंद्र गुप्ता (आईएएनएस)

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