रेगिस्तान करेगा यूरोप को जगमग
२८ जुलाई २००९विचार बहुत ही महत्वाकांक्षी है. ख़र्च उस से भी बढ़-चढ़ कर. भावी राजनैतिक जोखिम तो और भी कल्पनातीत. तब भी डेज़र्टेक इंडस्ट्रियल इनीशियेटिव नाम के इस ग्रुप में शामिल कंपनियों ने, गत 12 जुलाई को, म्युनिक में कहा कि वे इस काम के लिए अक्टूबर के अंत तक DII नाम से एक अलग कंपनी बनायेंगी. वे चाहती हैं कि नवंबर तक उनकी कल्पना आकार ग्रहण करने लगे. इस पहल में शामिल जर्मनी की सीमेंस कंपनी की ओर से उसके ऊर्जा संभाग के प्रमुख रेने उमलाउफ्ट का कहना था कि " यह सचमुच एक सुनहला सपना है कि हम भविष्य में यूरोप के लिए 15 से 20 प्रतिशत बिजली उत्तरी अफ्रीका से प्राप्त करेंगे. बेशक, राजनैतिक बातें भी हैं, योजना संबंधी समस्याएं भी हैं, जिन्हें हमें योजना बनाने के दौरान हल करना होगा."
जर्मनी और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की कंपनियां अगले 40 वर्षों में उत्तरी अफ्रीका के मिस्र, लीबिया, अल्जीरिया, ट्यूनीसिया और मोरक्को जैसे देशों में अब तक के सबसे बड़े सौर बिजलीघर बनाना चाहती हैं. इन सभी देशों में सबसे अधिक राजनैतिक सुगबुगाहट पश्चिम विरोधी इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद के कारण है. यही योजना के साकार हो सकने पर सबसे बड़ा प्रश्न चिह्न भी है.
चुनौती राजनैतिक है
बर्लिन के ऊर्जा विशेषज्ञ येन्स होबोम का कहना है कि उत्तरी अफ्रीका के देशों में सूरज की धूप से बिजली पैदा करना और उसे सागरपार यूरोप तक पहुंचाना कोई तकनीकी चुनौती बिल्कुल नहीं. चुनौती है अफ्रीकी देशों में राजनैतिक स्थिरता होबोम इसे जोखिम के तौर पर देखते हैं "हां, जोखिम हैं. बहुत बड़े जोखिम हैं. हमें बहुत ऊंचे स्तर पर राजनैतिक सहायता की ज़रूरत है. हमें इन देशों में एक ऐसा राजनैतिक ढांचा चाहिये, जो निवेशकों के लिए वहां इस नयी तकनीक में भारी मात्रा में धन लगाना संभव बनाये."
तब भी जर्मनी सहित यूरोप की बड़ी-बड़ी बिजली उत्पादक कंपनियां दो मुख्य कारणों से इन देशों में सौर बिजलीघर बनाना चाहती हैं. पहला है, यूरोप के लोगों में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति बढ़ता हुआ विरोध. यहां बड़े-बड़े बिजलीघर बनाना मुश्किल होता जा रहा है.
दूसरा है, उत्तरी अफ्रीका के निर्जन रेगिस्तानों में प्रति वर्गमीटर भूमि पर प्रति वर्ष 2800 किलोवाट-घंटे के बराबर धूप पड़ती है, जबकि मध्य यूरोपीय देशों में औसतन केवल एक हज़ार किलोवाट घंटे के बराबर ही धूप चमकती है.
धूप की वर्षा
दूसरे शब्दों में, सहारा के रेगिस्तान में धूप के रूप में प्रति वर्ष प्रति वर्गमीटर 200 लीटर खनिज तेल की वर्षा होती है. वहां ढाई हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन का एक टुकड़ा पूरे जर्मनी की बिजली की ज़रूरत पूरी कर सकता है. सौर ऊर्जा क्योंकि साफ़-सुथरी अक्षय ऊर्जा है, इसलिए यूरोपीय जनता को भी आसानी से स्वीकार्य है.सूरज की धूप को बिजली में बदलने की इस समय दो विधियां हैं-- धूप को सीधे बिजली में बदलने वाली फ़ोटोवोल्टाइक तकनीक और उसकी गर्मी से टर्बाइन चलाकर बिजली बनाने की सोलार थर्मिक तकनीक.
सौरतापीय संयंत्र
फ़ोटोवोल्टाइक सेल अपने ऊपर पड़ने वाली धूप को केवल 15 से 18 प्रतिशत कुशलता के साथ ही बिजली में बदल पाते हैं, जबकि सोलारथर्मी यानी सौरतापीय संयंत्र 75 से 80 प्रतिशत धूप को बिजली में बदल सकते हैं. इसीलिए जर्मन कंपनियां अत्तरी अफ्राकी में सौरतापीय संयंत्र लगायेंगी.
सौरतापीय संयंत्र भी चार प्रकार के होते हैं और सूर्य की धूप से 80 से लेकर 1200 डिग्री सेल्ज़ियस तक तापमान पैदा करते हैं. अफ्रीका में 400 डिग्री सेल्ज़ियस तापमान पर बिजली पैदा करने वाले पैराबोलिक ट्रफ़ प्लांट लगाने का विचार है.
इस प्रकार के संयंत्र में किसी नाली या परनाले जैसे पैराबोलिक दर्पणों की सहायता से सूर्य के प्रकाश को किसी तरल पदार्थ से भरे एक ऐसे पाइप पर संकेंद्रित किया जाता है, जो उनके ठीक फोकस-बिंदु पर स्थित होता है. वह तरल पदार्थ गरम हो कर एक हीट-एक्सचेंजर, यानी ताप-विनिमयकारी में अपनी गर्मी से पानी को भाप बनाता है. भाप से टर्बाइन चलती है और टर्बाइन से जुड़ा जनरेटर बिजली पैदा करता है.
संयंत्र की बनावट
व्यवहार में, किसी परनाले के आकार वाले छह मीटर लंबे और साढ़े तीन मीटर ऊंचे धातु के कई-कई समानांतर दर्पणों की उत्तर-दक्षिण दिशा में लगी लंबी-चौड़ी कतारें होती हैं. दर्पणों का भीतरी भाग अत्यंत पारदर्शी कांच का बना होता है. कांच के पीछे चांदी की महीन परावर्ती परत लगी होती है.दर्पण अपने फ़ोकस वाले बिंदु पर स्थित जिस पाइप पर धूप को संकेंद्रित करता है, उसे एब्सॉर्बर, यानी ताप-अवशोषक कहते हैं. वह उच्चकोटि के इस्पात का बना होता है और कांच के बने एक आवरण पाइप से घिरा होता है. दोनो पाइपों के बीच हवा बिल्कुल नहीं होती. ताप-अवशोषी पाइप में गर्मी को तेज़ी से सोखने वाला ऐसा तेल लगातार बह रहा होता है, जो 400 डिग्री तक गरम हो जाये.
यह खौलता हुआ तेल एक केंद्रीय हीट एक्चेंजर में जा कर वहां पानी को गरम करता है. उससे जो भाप बनती है, वह बिजली पैदा करने वाले जनरेटर की टर्बाइन को घुमती है और इस तरह बिजली बनती है. भाप ठंडी हो कर पुनः पानी में बदल जाती है और पुनः हीट एक्सचेंजर में भेज दी जाती है.
रात में भी बिजली
रात के लिए पोटैशियम और सोडियम नाइट्रेट के एक घोल में धूप की अतिरिक्त गर्मी को 280 से 380 डिग्री तक के तापमान पर जमा कर लिया जाता है, उससे पानी को भाप बनाया जाता है और वह जनरेटर की टर्बाइन को चलाता है.
जनरेटर, स्वाभाविक है AC करंट पैदा करता है. उसे ट्रासफ़ार्मर की सहायाता से हाइवोल्टेज में और दूरप्रेषण के लिए DC करंट में बदलना होगा. इस सब में कुछ बिजली बेकार भी जायेगी. सीमेंस कंपनी के रेने उमलाउफ्ट के अनुसार इस बिजली को समुद्र की तलहटी पर केबल डाल कर यूरोप तक लाना कोई समस्य़ा नहीं हैः
"हम 1400 किलोमीटर तक की ऐसी पारेषण लाइने बनाते हैं. यह म्युनिक से ट्यूनिस तक की दूरी के बराबर है. इस दूरी पर बजली की छीजन केवल पांच प्रतिशत के बराबर होती है."
अनुमान है कि अफ्रीका से यूरोप के घरों तक पहुंचते-पहुंचते बिजली की मात्रा क़रीब 80 प्रतिशत तक घट जायेगी, तब भी वह वर्तमान फ़ोटोवोल्टाइक सेलों की तुलना में फ़ायदेमंद ही रहेगी. इसी कारण जर्मन बिजली उत्पादक कंपनियां इस परियोजना को साकार करने के लिए बहुत उत्सुक भी हैं और उत्साहित भी.
रिपोर्ट: राम यादव
संपादन: आभा मोंढे