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समाज

बलात्कार से पैदा हजारों बच्चों के रिसते जख्म

१६ मार्च २०२१

वे अपने माथे पर "अत्याचार से पैदा हुए बच्चे" का दाग लेकर बड़े हुए. समाज ने उन्हें दुत्कारा, अपनों ने त्यागा. अफ्रीकी देश रवांडा में नरसंहार के दौरान हुए बलात्कार से जन्मे बच्चे अब भी अपनी पहचान के लिए जूझ रहे हैं.

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DW 60 Jahre Ruanda Völkermord Gedenkstätte Nyamata
तस्वीर: picture alliance/AP Photo

रवांडा में 1994 में हुए नरसंहार को लगभग 27 साल हो गए हैं जब सौ दिन के भीतर आठ लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था. मरने वालों में ज्यादातर अल्पसंख्यक तुत्सी कबीले के लोग थे. उनके साथ बहुसंख्यक हुतु कबीले के उदार लोगों की भी हत्याएं की गई. उस वक्त रवांडा पर चरमपंथी हुतु सरकार थी, जिसने तुत्सियों के साथ अपने समुदाय में मौजूद अपने विरोधियों का सफाया करने के लिए खास मुहिम चलाई.

इस दौरान बलात्कार को भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया. उस दौरान ठहरे गर्भों से जो बच्चे पैदा हुए, वे आज जवान हो गए हैं. लेकिन अब भी उनके लिए जिंदगी आसान नहीं है. 26 साल के पैट्रिक कहते हैं, "मेरे दिल में बहुत सारे जख्म हैं. मुझे नहीं पता है कि मेरा पिता कौन है. मेरा भविष्य हमेशा जटिल रहेगा क्योंकि मुझे अपने अतीत के बारे में जानकारी नहीं है."

योजनाबद्ध तरीके से चलाई गई मुहिम में हुतु सरकार के सैनिकों और उनसे जुड़ी मिलिशिया के लोगों ने ढाई लाख महिलाओं का बलात्कार किया. इस व्यापक यौन हिंसा के नतीजे में कई हजार बच्चे पैदा हुए. इन बच्चों को समाज पर दाग माना गया क्योंकि उनके पिताओं के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. पैट्रिक भी इन्हीं में से एक हैं. यह उनका असली नाम नहीं है. वह रवांडा के दक्षिणी शहर न्यांजा में रहते हैं और अकाउंटेंसी की पढ़ाई कर रहे हैं.

समाचार एजेंसी एएफपी के साथ बातचीत के दौरान जब वह अपने बचपन के बारे में बताते हैं कि तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं. वह कहते हैं कि स्कूल में कभी वह बाकी बच्चों के साथ घुलमिल ही नहीं पाए. पैट्रिक इतने अकेले थे कि उन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश भी की, एक बार 12 साल की उम्र में और दूसरी बार 22 साल की उम्र में. वह कहते हैं, "अभी कुछ साल पहले तक भी समाज मुझे मेरे अतीत की वजह से अपनाने को तैयार  नहीं था. ना तो तुत्सियों को मेरी परवाह थी और ना ही हुतुओं को."

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सोचे समझे बलात्कार

इतिहासकार कहते हैं कि नरसंहार के दौरान बहुत सी महिलाओं को सेक्स गुलाम बनाकर भी रखा गया और कुछ महिलाओं को तो जानबूझ कर एचआईवी से संक्रमित किया गया. बहुत ही महिलाओं ने तो अपने बच्चों को बताया ही नहीं है कि वे बलात्कार से पैदा हुए हैं. उन्होंने बाद में अपने पतियों को भी यह नहीं बताया कि उन पर क्या गुजरी. उन्हें डर था कि उनके पति कहीं उन्हें छोड़ ना दें.

कई ऐसी महिलाओं ने हिम्मत जुटाकर एएफपी से बात की. हालांकि वे अपनी पहचान को गोपनीय रखना चाहती हैं. मुहांगा शहर में एक थेरेपिस्ट एमिलिएने मुकानसोरो ऐसी महिलाओं के लिए वर्कशॉप चलाती हैं. मुकानसोरो की उम्र 53 साल है. उन्होंने नरसंहार में अपने पिता, आठ भाई-बहनों और परिवार के दूसरे सदस्यों को खोया है. वह बीते 18 साल से बलात्कार पीड़ितों के साथ काम कर रही हैं. उन्होंने देश भर में ऐसी महिलाओं के थेरेपी ग्रुप बनाए हैं.

इन समूहों में बहुत सी ऐसी महिलाएं हैं जिनके परिवार या समुदाय के सामने उनका बलात्कार किया गया या उनके यौन अंगों को नुकसान पहुंचाया गया. इतिहासकार हेलेने दुमास कहती हैं, "तुत्सी समुदाय और उसकी नस्ल को खत्म करने के लिए बलात्कार का इस्तेमाल किया गया. ऐसा इसलिए किया गया ताकि वे तुत्सी बच्चों को जन्म ना दे पाएं. ये बलात्कार बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत किए गए और ये नरसंहार मुहिम का हिस्सा थे. "

रवांडा का नरसंहार
नरसंहार का असर रवांडा के समाज पर आज भी दिखता हैतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Mazalan

"हत्यारे का बेटा"

पैट्रिक की मां होनोरिने कहती हैं कि उन्हें चार दिन तक एक जेल में रखा गया. वहां कई और महिलाएं भी थीं. हुतु चरमपंथी हर दिन लोगों को मार काटने के बाद जब वापस लौटते थे, तो उन सब महिलाओं का बलात्कार करते थे. 48 साल की होनोरिने रोती हुई अपनी खौफनाक अनुभवों को बताती हैं, "वे कहते थे कि उन्हें मिठाई चाहिए और मिठाई थी मैं, क्योंकि मेरी उम्र उनमें सबसे कम थी."     

होनोरिने बताती हैं कि एक बार एक लड़ाका वहां से भाग निकला, तो उन्होंने भी उसके साथ भागने की कोशिश की. रास्ते में भी होनोरिने का बलात्कार किया गया. वह कहती हैं कि इसी दौरान वह गर्भवती हुईं. उन्होंने अपने गर्भ को गिराने के बारे में भी सोचा. लेकिन फिर बच्चे को जन्म दिया, लेकिन वह उसे अपना प्यार नहीं दे पाईं और इसका उन्हें आज तक मलाल है. बाद में उनकी शादी हो गई लेकिन उनके पति ने पैट्रिक को नहीं अपनाया और उन्हें "हत्यारे के बेटे" का नाम दिया.

ऐसी ही कहानी रवांडा में नरसंहार के दौरान बलात्कार का शिकार बनी दूसरी महिलाओं की भी है. पहले इन महिलाओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया. लेकिन हाल में ऐसी महिलाओं की मदद के लिए कदम उठाए गए हैं, ताकि उनके दुख और पीड़ा को कुछ हद तक कम किया जा सके. इसके लिए पीड़ितों के संघ और कई गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं. सेवोता नाम के एक एनजीओ की संस्थापक 64 वर्षीय गोडेलीव मुकासारासी कहती हैं, "इसकी वजह से सबसे बुरी मानवीय त्रासदियों में से एक त्रासदी से तबाह देश और समाज को उबरने में मदद मिली है."

भविष्य के सपने

बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए कई कदम उठाए गए. लेकिन इनसे पैदा बच्चों को नरसंहार का पीड़ित नहीं माना गया. इसलिए उन्हें कोई खास मदद नहीं दी गई. नरसंहार की विरासत से लड़ रहे और पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठनों के संघ इबूका के कार्यकारी सचिव नफताल अहिशाकिए कहते हैं कि बच्चों को अपनी मांओं के जरिए कोई अप्रत्यक्ष मदद नहीं मिली. मुकानसोरो का कहना है कि बलात्कार से पैदा बच्चों को अपनी मांओं से विरासत में जो दर्द मिला है, उससे निजात पाने का कई बार यही तरीका है कि सबसे रिश्ते तोड़ लिए जाएं.

वैसे पैट्रिक कहते हैं कि उन्होंने धीरे धीरे अपने अतीत को स्वीकारना शुरू कर दिया. अब उन्हें अपने दोस्तों और साथियों के साथ अपनी कहानी साझा करने में भी उतनी तकलीफ नहीं होती. वह कहते हैं, "धीरे, धीरे लोग मुझे और मेरे अतीत को स्वीकार कर रहे हैं." पैट्रिक के मुताबिक उनके लिए रवांडा के "समाज में घुलना मिलना" लगातार जारी रहने की प्रक्रिया है.

और उनके सपने? वह चाहते हैं कि इतना पैसा कमा पाएं कि उनका अपना परिवार हो और वे अपनी मां की मदद कर पाएं. वह चुपके कहते हैं, "वह मेरी महारानी है, मेरा सब कुछ है."

एके/आईबी (एएफपी)