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समाज

मैनहोल से मशीन-होल: कितना प्रभावकारी होगा यह बदलाव

विवेक शर्मा
१२ फ़रवरी २०२१

मशीनीकरण का इस्तेमाल, नई शब्दावली, आर्थिक सहायता और कानून में बदलाव जैसे जरूरी काम करने के बाद भी जमीनी तस्वीर में सुधार आने में वक्त लगता है. अगर सुधार में और देरी हुई तो यह वक्त सफाई कर्मियों के लिए काल में ना बदल जाए.

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Indien Neu Delhi - unaufgeklärte Todesursachen bei Arbeitern
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/S. Das

देश भर में सीवर और सैप्टिक टैकों की सफाई के दौरान होने वाली मौतें एक कड़वी सच्चाई हैं.  इसे रोकने की दिशा में कानून लाया जा चुका है लेकिन अब मानसिकता में बदलाव लाने की दिशा में काम किया जा रहा है. इसी के तहत पिछले साल 19 नवंबर यानी विश्व टायलेट दिवस पर केंद्र सरकार ने तय किया कि शब्दावली में 'मैनहोल' शब्द को हटा कर 'मशीन-होल' का इस्तेमाल किया जाएगा. इसका मतलब यह है कि सीवर में अब इंसान नहीं बल्कि मशीनों को उतारा जाएगा क्योंकि सीवर की साफ सफाई के दौरान मरने वाले लोगों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है.

देश के पिछले पांच वर्षों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो मालूम पड़ता है साल 2019 में कुल 110 लोग देश में सीवर साफ करते हुए मौत का शिकार हुए. ये आंकड़ा पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा है. जबकि साल 2018 में 68 और 2017 में 93 लोग मारे गए. वहीं राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों के मुताबिक साल 2010 से 2020 के दौरान कुल 631 लोगों की सीवर में काम करने के दौरान मौत हुई है.

जब सीवर होल बना काल

ऐसा ही एक हादसा 9 सितंबर 2018 को दिल्ली के विशाल के साथ हुआ. उनके भाई अंगद बताते हैं, "रविवार का दिन था. सैलरी मिलने के एक दिन पहले, उन्हें सिवेज ट्रीटमेंट प्लांट की सफाई के लिए उतरना पड़ा. उनके पास कोई मास्क या प्रोटेक्टिव किट नहीं थी, ना ही विशाल सीवर में कभी उतरे थे.” उस दुर्घटना में विशाल सहित पांच लोगों की मौत हुई थी. पांच जानों को लील लेने वाले सीवर में उतरने से पहले अगर मशीन और प्रोटेक्टिव उपकरणों का इस्तेमाल होता तो शायद यह हादसा टाला जा सकता था. अंगद बताते हैं, "किसी की जान जाने से अच्छा है मशीन का उपयोग, चाहे महंगा हो या सस्ता. 10 लाख रुपये हर्जाने के मिले हैं लेकिन हर्जाना कोई जान तो दे नहीं सकता. मैं यही चाहता हूं कि ऐसा आगे किसी के साथ ना हो.” 

सफाई कर्मचारियों की तकलीफों को सुलझाने के लिए 1994 में देश में एक राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग का गठन हुआ था. पिछले कुछ वर्षों से आयोग सीवर के अंदर मरने वालों का रिकॉर्ड रखने और मुआवजा राशि जल्दी दिलवाने की दिशा में काम कर रहा है. लेकिन देश के दूसरे आयोगों की तरह सफाई कर्मचारी आयोग को भी ज्यादा मजबूत बनाने की बात चल पड़ी है. इस पर राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के पूर्व चेयरमैन मनहर वालजी भाई जाला का मानना है कि आने वाले समय में आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए जिससे आयोग को और अधिकार मिल सकें.

क्या सिर्फ घोषणा करने से समस्या का समाधान निकल जाएगा? इस मसले पर कई वर्षों से काम कर रहे मैगसेसे अवार्ड विजेता बेजवाडा विल्सन का मानना है, "हर साल पूरे भारत में करीब 200 लोग मर रहे हैं. अगर राजनैतिक इच्छा शक्ति है तो इसका बजट और लाभ पाने वाले लोगों का विवरण बताना चाहिए. हमारे देश में 4680 टाऊन हैं और ये लोग सिर्फ 243 की बात कर रहे हैं, यह समस्या का सिर्फ 5 प्रतिशत है. पूरे सेनिटेशन सिस्टम का मशीनीकरण और मॉर्डनाइजेशन बहुत अहम है.”

समाज की मानसिकता में बदलाव भी जरूरी

इस काम में जान के जोखिम के अलावा दूसरा पहलू है जातिगत भेदभाव. तो क्या मशीनों के इस्तेमाल से जातिगत भेदभाव कम होगा? इस सामाजिक मसले पर दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर विवेक कुमार बताते हैं, "मशीनीकरण करने के बावजूद भी जाति स्टिगमा बना रहेगा. जब तक डिगनिटी ऑफ लेबर यानी श्रम की गरिमा नहीं होगी, आय नहीं बढ़ाएंगी, स्टिगमा बना रहेगा. सामाजिक स्टिगमा को दूर करने की जरूरत है. डिगनिटी ऑफ लेबर, समान व्यवहार और सैलेरी बढ़ाने से आएगी.” साथ ही प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं कि योजनाओं का प्रभावकारी क्रियान्वयन होना बहुत जरूरी है, "यह काम ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में होना चाहिए. इसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति होना चाहिए."

वहीं जाति आधारित कामों को खत्म करने पर दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर दीपा सिन्हा कहती हैं, "श्रम को और गरिमापूर्ण बनाने के लिए मशीन का इस्तेमाल होना चाहिए. मशीनीकरण होने से सोशल स्टिगमा हटाने में मदद मिलेगी. कोई भी काम जाति आधारित नहीं होना चाहिए.”   

मशीनीकरण होने से इस काम से जुड़े लोगों के रोजगार प्रभावित होने की आशंका है, जो कि एक चिंता का विषय है. इस मुद्दे पर जेएनयू के प्रोफेसर अमित थोरात बताते हैं, "मशीनीकरण बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था लेकिन इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि मशीनीकरण होने से इस क्षेत्र में निवेश तो बढ़ेगा, साथ ही मौजूदा काम कर रहे लोगों को भी मशीन चलाने की ट्रेनिंग मिलनी चाहिए ताकि उनका रोजगार प्रभावित ना हो.”

क्या है देश के सबसे स्वच्छ शहर का हाल

देश के सबसे स्वच्छ शहर इंदौर के नगर निगम ने सीवर साफ करने के लिए मशीनीकरण की शुरुआत कुछ साल पहले की है. इससे न केवल इस काम से जुड़े कर्मचारियों की जान का जोखिम कम हो गया है, बल्कि उनके घर वालों की चिंता भी मिट गई है. पिछले 42 साल से इंदौर शहर में मैनहोल साफ करने का काम कर रहे कमल बताते हैं, "पहले प्रोटेक्टिव उपकरण नहीं थे लेकिन अब हैं, अब बहुत सेफ्टी मिल गई है. डिसिल्टिंग मशीन 10 साल से आई है. रोबोट छह महीने पहले आया है. बहुत फर्क आया है. रोबोट से गाद निकाल लेते हैं, यह जोखिम वाला काम है. पहले परिवार वालों को डर लगा रहता था. अब घर वालों को चिंता नहीं रहती. मुझे होल में उतरे पांच साल हो गए हैं.”

कई बार जब मशीन काम नहीं कर पाती है तो उन्हें सीवर में उतरना पड़ता है. पर अब पूरे सुरक्षा उपायों के साथ ही यह काम होता है. इसी काम से जुड़े हुए इंद्रजीत बताते हैं, "पहले डिसिल्टिंग मशीनें और रोबोट मशीनें नहीं थी. हर दिन नीचे उतरना पड़ता था. लेकिन मास्क और सेफ्टी बेल्टी के साथ उतरते थे. अब 99 प्रतिशत मशीनें काम कर देती हैं. मशीन के आने से जान का खतरा कम हो गया है.” मशीनीकरण की वजह से इंदौर के तकरीबन पौने दो लाख सीवर होल साफ करने में आसानी हो गई है. 8 वर्षों से नगर निगम के लिए मशीन ऑपरेट और ड्राईव करने का काम कर रहे कमल जहाजपुरिया बताते हैं, "भरी लाइनों के अंदर उतरना नामुमकिन होता था. लेकिन डिसिल्टिंग मशीन से अंदर की साफ-सफाई बिना इंसान के उतरे ही हो जाती है. यह मशीन वरदान साबित हुई है.”

अब इंसान की जगह रोबोट ने इस काम की जिम्मेदारी ले ली है. रोबोटिक मशीन ऑपरेट करने वाले भुजीराम बताते हैं, "मशीन में लगी बाल्टी में कैमरे लगे रहते हैं, जिससे सीवर में जाने के बाद अंदर मौजूद वेस्ट की मात्रा बाहर लगी एलसीडी स्क्रीन पर दिखाई देती है. इसकी वजह से किसी इंसान को नीचे जाने की जरूरत नहीं होती. इसे ऑपरेट करना भी सरल है. रोबोटिक मशीन से करीब 30 मेनहोल रोज साफ किए जा सकते हैं.” नगर निगम के मशीनीकरण के कार्य पर और रोशनी डालते हुए निगम आयुक्त प्रतिभा पाल बताती हैं, "नगर निगम के पास जेटप्रेशर मशीन, डिसिल्टिंग मशीन हैं, प्रेशर मशीन की फ्लीट है, पांच रोबोटिक मशीनें भी हैं. इसके अलावा स्थानीय तौर पर डिजाइन किए गए उपकरण भी हैं जिनके माध्यम से सैकंडरी लाइन की साफ-सफाई की जाती है. अब 10 रोबोटिक मशीनें और शामिल की जानी हैं."

इन सभी कदमों को उठाए जाने के बाद जहां एक ओर उम्मीद जगती है, तो दूसरी ओर आशंका के बादल भी मंडराते हैं. उम्मीद इस बात की है कि अब सीवर की सफाई में किसी इंसान की जान ना जाए. लेकिन मशीनीकरण का इस्तेमाल, नई शब्दावली, आर्थिक सहायता और कानून में बदलाव जैसे जरूरी काम करने के बाद भी जमीनी तस्वीर में सुधार आने में वक्त लगता है. अगर सुधार में और देरी हुई तो यह वक्त सफाई कर्मियों के लिए काल में ना बदल जाए.

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