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"मैं भी गौरी हूं."

७ सितम्बर २०१७

वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद भारत में बवाल मचा है. पत्रकारों, साहित्यकारों और आम लोगों का एक बड़ा तबका इसे विरोध की आवाज को दबाने की कोशिश कह रहा है. बहुत से लोगों ने इस मुद्दे पर अलग राय भी जतायी है.

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Indien Neu Delhi Mahnwache für getöteten Journalisten Gauri Lankesh
तस्वीर: Imago/Hindustan Times

भारत का सोशल मीडिया गौरी लंकेश की हत्या पर प्रतिक्रियाओं से भरा हुआ है. पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों समेत बड़ी संख्या में आम लोगों ने भी इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला करार दिया है. हजारों लोगों ने देश के अलग अलग इलाके में सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन भी किया. बिना किसी बुलावे के रैलियों में पहुंचे लोगों ने सरकार से मांग की है कि वह बोलने की आजादी की रक्षा के लिए और कदम उठाये.

बंगलुरु में हजारों लोगों ने जुलूस निकाला और टाउन हॉल में गौरी लंकेश को श्रद्धांजलि देने पहुंचे. रोते बिलखते लोगों ने अपने हाथ में तख्तियां ले रखी थीं जिन पर लिखा था "मैं भी गौरी हूं." कुछ लोगों ने हाथों में बैनर उठा रखे थे जिन पर लिखा था, "आप किसी शख्स को मार सकते हैं लेकिन उसके विचारों को नहीं" और, "विरोध की आवाज को बंदूकों की नाल से नहीं रोका जा सकता." पुलिस दोषियों को जल्द पकड़ने का भरोसा दिला रही है लेकिन बहुत से लोग आशंका जता रहे हैं कि हमलावर पकड़े नहीं जायेंगे.

Indien Neu Delhi Mahnwache für getöteten Journalisten Gauri Lankesh
तस्वीर: Reuters/A. Abidi

55 साल की गौरी लंकेश कन्नड़ अखबार "लंकेश पत्रिके" की संपादक थीं. नवंबर में उन्हें भारतीय जनता पार्टी के विधायकों के खिलाफ झूठी खबर चलाने का दोषी माना गया था. यह खबर 2008 की थी तब राज्य में बीजेपी की सरकार थी. गौरी लंकेश का कहना था कि यह मामला राजनीति से प्रेरित था और वह इस फैसले को अदालत में चुनौती देंगी.

गौरी लंकेश की हत्या को बहुत से लोग उस कड़ी का हिस्सा मान रहे हैं जिसमें कई लेखकों, कलाकारों और विद्वानों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार या फिर बीजेपी की आलोचना करने की वजह से निशाना बनाया गया है. भारत की महिला पत्रकारों के संगठन आईडब्ल्यूपीसी की अध्यक्ष शोभना जैन ने कहा है, "इस तरह से पत्रकारों को चुप कराया जाना भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक लक्षण है"

Indien Neu Delhi Mahnwache für getöteten Journalisten Gauri Lankesh
तस्वीर: Reuters/A. Abidi

2015 में विद्वान मालेशप्पा एम कलबुर्गी की भी बंगलुरू में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी. उन्हें भी हिंदू संगठनों की ओर से मूर्तिपूजा और अंधविश्वासों के खिलाफ बोलने के लिए धमकियां दी जा रही थीं. उसी साल भारतीय लेखक और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे गोविंद पनसारे को भी गोली मार दी गयी जब वो अपनी पत्नी के साथ टहलने जा रहे थे. उससे पहले 2013 में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई थी. उन्होंने भी अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठायी थी.

पुलिस ने पनसारे के मामले में एक संदिग्ध को गिरफ्तार किया था लेकिन उसे जमानत पर छोड़ दिया गया. दाभोलकर के मामले में भी एक संदिग्ध हिरासत में लिया गया लेकिन इन तीनों मामलों में अब तक किसी को दोषी करार नहीं दिया गया है.

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तस्वीर: Imago/Hindustan Times/B. Kindu

कुछ लोगों का कहना है कि जिस तरह से लोगों को मारा जा रहा है उससे लगता है कि भारत में लोकतांत्रिक विचार सिमट रहा है. पत्रकारों की रक्षा के लिए बनायी गयी कमेटी अकसर भारत में पत्रकारों की सुरक्षा के खराब रिकॉर्ड को लेकर आवाज उठाती रही है. खासतौर से छोटे शहरों में रहने वाले पत्रकार जो भ्रष्टाचार की बात उठाते हैं उन्हें अकसर हिंसा झेलनी पड़ती है. 1992 से लेकर अब तक 27 पत्रकारों को अपने काम के सिलसिले में जान गंवानी पड़ी है. इनमें से किसी भी मामले में कोई दोषी नहीं साबित हुआ है.

सरकार की आलोचना करने वालों को अकसर ट्रॉलिंग का शिकार होना पड़ रहा है. महिला पत्रकारों को अकसर बलात्कार और एसिड अटैक की धमकी दी जाती है. वरिष्ठ टीवी पत्रकार बरखा दत्त का कहना है कि लंकेश की हत्या को "खतरे की घंटी" मानी जानी चाहिए. बरखा दत्त ने कहा, "हम सब ने, खासतौर से महिलाओं ने बलात्कार से लेकर हत्या तक की धमकियों का सामना किया है. मैं निजी तौर पर पुलिस और अदालत तक गयी हूं लेकिन कभी उन लोगों का पता नहीं चल सका जो हमें धमकियां देते हैं."

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तस्वीर: Reuters/A. Abidi

लंकेश के भाई इंद्रजीत ने मांग की है कि इस हत्या की जांच सीबीआई से करायी जाए. इंद्रजीत ने कहा है, "कलबुर्गी के मामले में हमने देखा है कि पुलिस जांच का क्या हश्र होता है," मामला अनसुलझा ही रह गया.

एनआर/एके (एपी)