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मुसलमानों के बारे में ‘बहुत अच्छी’ सोच नहीं पुलिस वालों की

समीरात्मज मिश्र
२८ अगस्त २०१९

भारत में ज्यादातर पुलिसकर्मियों का मानना है कि मुसलमान स्वाभाविक तौर पर आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं और अपराध की ओर उनका झुकाव रहता है. यह बात देश के इक्कीस राज्यों में हुए एक बड़े सर्वेक्षण में सामने आई है.

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BdTD Indien Kostümprobe für den Unabhängigkeitstag
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

कॉमन कॉज और सीएसडीएस जैसे गैर सरकारी संगठनों की ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि ना सिर्फ आम लोगों की बल्कि पुलिस विभाग में काम करने वाले आधे से ज्यादा लोगों की धारणा भी इससे बहुत अलग नहीं है. इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस चेलामेश्वर ने जारी किया है.

यह सर्वेक्षण 'स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया 2019' नाम की रिपोर्ट में प्रकाशित हुआ है जिसे देश भर के इक्कीस राज्यों में बारह हजार पुलिस वालों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है. सर्वेक्षण में पुलिसकर्मियों के परिवार के भी करीब ग्यारह हजार सदस्यों की राय को शामिल किया गया है.

Indien Jalandhar | Polizistinnen bei Yoga Lachtherapie am 1. Januar
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Mehra

सर्वेक्षण में मॉब लिंचिंग, पुलिस वालों पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाव और कुछ अन्य मुद्दों पर भी पुलिस वालों ने अपनी राय जाहिर की है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि करीब 35 फीसद पुलिस वाले गोहत्या जैसे मामलों में अपराधियों की लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा सजा देने को स्वाभाविक घटना मानते हैं. यही नहीं, बलात्कार जैसे मामलों में होने वाली लिंचिंग जैसी घटनाओं को भी करीब आधे पुलिस वाले सही मानते हैं.

सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई कि पुलिस वालों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि छोटे-मोटे अपराधों में अभियुक्तों को सजा दिए जाने का अधिकार भी उन्हें ही मिल जाना चाहिए. यानी एक तरह से पुलिस राज की वकालत करने वाले पुलिसकर्मियों की कमी नहीं है. बल्कि सैंतीस फीसद पुलिसकर्मी तो यह मानते हैं कि ऐसे अपराधों में कानूनी प्रक्रिया पूरी करने की ही जरूरत नहीं है बल्कि ऐसे मामलों को सीधे पुलिस को ही सौंप दिया जाना चाहिए.

पुलिस पर राजनीतिक दबाव की अक्सर चर्चा होती है और ये कहा जाता है कि ना सिर्फ शुरुआती कानूनी प्रक्रिया पर राजनीतिक दबाव का असर होता है बल्कि अदालत में फैसला होने तक पर उसका असर दिखता है. सर्वेक्षण में करीब एक तिहाई पुलिसकर्मी राजनीतिक दबाव और उसके असर की बात को स्वीकार करते हैं. 72 फीसद पुलिस वाले मानते हैं कि कुछ बड़े मामलों में उन्हें राजनीतिक दबाव झेलना पड़ता है, खासकर तब जब किसी अपराध में कोई प्रभावी व्यक्ति या राजनीतिक व्यक्ति खुद शामिल रहता है.

	Schuldsprüche nach Vergewaltigung einer Achtjährigen in Indien
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Nanu

सर्वेक्षण में पुलिसकर्मियों की कार्यशैली के अलावा उनकी समस्याओं, उनकी सोच और तमाम दूसरी समस्याओं के संदर्भ में सवाल किए गए थे. सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष ये भी सामने आया है कि तमाम मामले पुलिस के रिकॉर्ड में इसलिए भी नहीं दर्ज हो पाते क्योंकि लोग आज भी पुलिस के पास जाने से या तो डरते हैं या फिर कतराते हैं.

इस रिपोर्ट में कई ऐसे पहलुओं पर भी चर्चा की गई है जिनकी वजह से पुलिसकर्मियों को मानसिक और शारीरिक तनाव झेलना पड़ रहा है. इसके पीछे उनकी अनियमित दिनचर्या और ड्यूटी को मुख्य वजह बताया गया है.

रिपोर्ट जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश जस्टिस चेलामेश्वर ने कहा कि निचले स्तर के पुलिसकर्मियों को नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था ना होना भी पुलिस व्यवस्था में तमाम तरह के दोषों के लिए जिम्मेदार है. रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सिर्फ छह फीसद पुलिस वाले ऐसे हैं जिन्हें कार्यकाल के दौरान कोई प्रशिक्षण मिला हो. लगभग सभी पुलिसकर्मी सिर्फ भर्ती के वक्त ही प्रशिक्षण पाते हैं, उसके बाद नहीं. जबकि अधिकारियों के मामलों में ये बात बिल्कुल उलट है.

सर्वेक्षण में कई ऐसे तथ्य भी सामने आए हैं जिनसे देश की पुलिस व्यवस्था में खामियों की वजह पता चलती है. मसलन, देश भर में ऐसे 224 थाने हैं जहां फोन तक की व्यवस्था नहीं है और करीब ढाई सौ थानों में कोई वाहन उपलब्ध नहीं है. रिपोर्ट में राजस्थान, ओडिशा और उत्तराखंड को इस मामले में सबसे खराब राज्य के रूप में चिह्नित किया गया है जबकि बेहतर संरचना, संसाधन और आधुनिकीकरण के मामले में पश्चिम बंगाल, गुजरात और पंजाब सबसे अच्छे राज्यों के रूप में पाए गए हैं.

हालांकि भारत में समय-समय पर पुलिस सुधारों को लेकर कई समितियों और आयोगों का गठन हो चुका है लेकिन सुधार के नाम पर आज भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. अब तक बनी सभी समितियों मसलन, राष्ट्रीय पुलिस आयोग, रिबेरो कमेटी, पद्मनाभैया कमेटी और मालीमठ कमेटी ने तमाम सुधारों के साथ पुलिस वालों के काम करने के घंटे और साप्ताहिक छुट्टी तय करने की भी बात की है लेकिन ज्यादातर राज्यों में पुलिस वालों को साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता है.

उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रह चुके और पुलिस सुधारों पर काफी करने वाले रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह कहते हैं कि भारत में पुलिस का मूल ढांचा अभी भी वैसा ही है जैसा कि औपनिवेशिक काल में था. उनके मुताबिक, "पुलिस वालों को कानून व्यवस्था की चुनौतियों से निपटने के अलावा विशिष्ट व्यक्ति की सुरक्षा और ऐसे ही तमाम दूसरे काम भी करने पड़ते हैं. वही पुलिसकर्मी अदालत में भी पहुंचते हैं. प्रशिक्षण के अभाव में कई बार उन्हें पता ही नहीं होता है कि अदालत में मामला कैसे पेश किया और एफआईआर कैसे दर्ज की जाए.”

रिपोर्ट में देश के लगभग सभी राज्यों में पुलिस बल की भारी कमी का भी जिक्र किया गया है. इस मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है.

हालांकि अपनी समस्याओं को लेकर और कथित उत्पीड़न को लेकर पुलिस विभाग में भी कई बार विरोध और आंदोलन के स्वर उभरे हैं लेकिन अक्सर ये मामले शांत हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश में पीएसी विद्रोह का मामला हो या फिर साल 2015 में बिहार का मामला हो जब वहां की गृह रक्षा वाहिनी के हजारों कर्मचारियों ने अनिश्चितकालीन हड़ताल की थी. इसके अलावा साल 2016 में कर्नाटक के पुलिसकर्मियों ने साप्ताहिक अवकाश, अनियमित ड्यूटी और कम वेतन जैसे मुद्दों पर आंदोलन की धमकी दी थी. साप्ताहिक छुट्टी नहीं मिलने को लेकर आंदोलन की धमकी दी थी.

जहां तक मुसलमानों के बारे में पुलिस वालों की सोच का मामला है, पिछले साल अक्टूबर में इसी रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली हाई कोर्ट ने मेरठ के हाशिमपुरा दंगों के मामले में एक ऐतिहासक फैसला सुनाया था. हाई कोर्ट ने साल 1987 में हुए हाशिमपुरा दंगों के लिए 16 पुलिस वालों को दोषी करार दिया था.

इस घटना में 42 लोगों की हत्या हुई थी और हत्या का मकसद साबित होने के अभाव में ट्रायल कोर्ट ने इन सभी पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया था. तब कोर्ट ने इसी रिपोर्ट के साल 2018 की रिपोर्ट का हवाला दिया था कि पुलिस संस्थागत तौर पर मुसलमानों के प्रति भेदभाव का नजरिया रखती है.

 

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