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मुश्किल रहा है अफ़ग़ानिस्तान पश्चिम के लिए

२६ जून २०१०

अफ़गानिस्तान हमेशा से एक रहस्यमय युद्ध का क्षेत्र रहा है. वह एक ऐसा देश है जिसका राजनैतिक तंत्र बाहर से समझ में नहीं आता है और इस पर असर भी नहीं डाला जा सकता है.

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तस्वीर: picture alliance/dpa

म्यूनिख स्थित जर्मनी के सबसे प्रसिद्ध अखबारों में से एक ज़्युडडॉएचे त्साईटुंग का कहना है,

अफ़गानिस्तान के साथ सबसे ज़्यादा दिक्कत हुई अमेरिका को. अमेरिका ने अफ़गानिस्तान को पूर्वी सोवियत संघ के कब्ज़े के वक्त और उसके बाद हमेशा भूराजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना. अमेरिका की सोच थी कि अफ़गानिस्तान पूर्व सोवियत संघ के विस्तारवाद के विरुद्ध दीवार साबित हो सकता है. साथ ही अमेरिका का मानना था कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद में पुल के रूप में और क्षेत्र में स्थिरता लाने वाले देश के रूप में फायदेमंद हो सकता है. इसके अलावा सोच यह थी कि अफ़गानिस्तान ऊर्जा से भरे मध्य एशिया के लिए अग्रिम चौकी और चीन के इस क्षेत्र में वर्चस्व की इच्छा पर नियंत्रण के लिए फायदेमंद हो सकता है. वैसे, इन सभी लक्ष्यों को ज़रूर पाया जा सकता है. लेकिन इससे पहले सबसे बडी चुनौती को पार करना होगा. अफ़गानिस्तान पर काबू पाना होगा और उसमें स्थिरता लानी पडेगी. इसमें अभी तक कोई भी विदेशी शक्ति सफल नहीं हो पाई है. खासकर अमेरिका ने भी इस चुनौती को घातक तरीके से ग़लत आंका.

Afghanistan ISAF Soldaten aus Kanada im Provinz Kandahar mit Armee Afghanistans
अफ़ग़ानिस्तान में नाटोतस्वीर: AP

वैश्विक स्तर पर सक्रिय टाटा टी यानी टाटा चाय कंपनी बहुत मुनाफा कमा रही है. लेकिन इसका शिकार भारत में चाय के बगानों में पत्तियां तोडने वाले कर्मचारी बन रहे हैं. समाजवादी अखबार नोएस डॉएचलांड का कहना है कि पश्चिम बंगाल के उत्तर में बसे टाटा टी के नियंत्रण वाले चाय बगानों पर लोगों का जीवन बहुत ही दयनीय है.

Teearbeiter in Darjeeling, West Bengal, Indien
दार्जिलिंग के चाय बागानतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari

पिछले अगस्त में चाय की पत्तियां तोड़ने वाली कर्मचारी ओराओन को मां बनने पर मिलने वाली कानूनी छुट्टी नहीं दी गई थी और उसे बगान के अस्पताल में मदद नहीं मिली थी. ओराओन 8वें महीने में गर्भवती थीं और काम के वक्त बेहोश हो गई थी. कर्मचारियों के प्रदर्शन के बाद टाटा टी ने बगान को दो हफ्ते के लिए बंद कर दिया था और 8 कर्मचारियों को निकाल दिया गया. इसके बाद से बागान 100 दिनों तक बंद रहा. इसका मतलब यह था कि वहां के कर्मचारियों को अपनी तनख्वाह भी नहीं मिल रही थी और यह उनके जीने मरने का सवाल बन गया. आज तक उस महिला को बकाया तनख्वाह नहीं मिली और निकाले गए कर्मचारियों को फिर से बहाल नहीं किया गया.

ज़्यूरिख से प्रकाशित नोए ज़ूरिखर त्साईटुंग अखबार का कहना है कि भारत में खूबसूरती गोरा होने के साथ ही जुडी हुई है. चेहरे और बदन को गोरा करने वाले पदार्थ भारत में इसकी वजह से बहुत ही लोकप्रिय हैं. मतसर्वेक्षणों के अनुसार आर्थिक क्षमता रहने पर भारत में 90 फीसदी महिलाएं इस तरह के क्रीम्स, टॉनिक्स या लोशन्स खरीदती हैं. अख़बार का कहना है,

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त्वचा का रंग भी महत्वपूर्णतस्वीर: DW-TV

भारत में ऐसे लोग, जिनकी त्वचा थोड़ी सांवली होती है हर दिन भेदभाव का शिकार बनते हैं. और यह सिर्फ महिलाओं पर ही नहीं, पुरूषों पर भी लागू होता है. जिसकी त्वचा गोरी है, उस व्यक्ति को ज़्यादा आसानी से नौकरी मिल सकती है और उसको जीवनसाथी मिलने में भी कम दिक्कत होती है. यदि कोई अख़बारों में विवाह विज्ञापनों पर नज़र डाले तब उसे समझ में आता है कि कि जाति के अलावा त्वचा का रंग जीवनसाथी ढूंढने में सबसे महत्वपूर्ण हैं. साथ में पुरूष भी कॉस्मेटिक्स में दिलचस्पी लेने लगे हैं. हिंदुस्तान यूनिलेवर के एक अध्ययन के अनुसार भारत के दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में बहुत से पुरूष त्वचा को गोरा बनाने वाले क्रीमों के वादों पर भरोसा करने लगे हैं. भारत के दक्षिण में लोगों की त्वचा आम तौर पर उत्तरी भारत के लोगों की तुलना में सांवली होती है. अब तक पुरूष भारत में यह सब छिप छिप कर कर रहे हैं या अपनी पत्नियों की क्रीमें इस्तेमाल कर रहे हैं. वैसे इस तरह के क्रीम सेहत के लिए बहुत ही हानिकारक साबित हो सकती हैं- चाहे वह सस्ती या महंगी हो. डॉक्टरों का कहना है कि इनमें ऐसिड या घने किस्म के स्टेरोईड होते हैं.

भारत की राजधानी दिल्ली में एक परिवार ने अपनी बेटी और उसके बॉयफ्रेंड को मार डाला. वजह यह थी कि लड़का किसी निचली जाति का था. सुएडदॉचे त्साईटुंग अखबार का कहना है.

कुछ स्पष्ट आंकड़ें तो नहीं मिल सकते हैं. लेकिन भारत में अकसर ऐसे ड्रामे होते हैं जब परिवार अपने बच्चों की पसंद से नाखुश होते है. शादी के लिए बहुत ही ज़रूरी है लडका लडकी की पृष्टभूमि. भारत में दो अलग जातियों के लोगों के बीच शादियां संभव तो हैं, लेकिन कम होतीं हैं. आज तक ज़्यादातर मां बाप ही तय करते हैं कि उनका बेटा या उनकी बेटी किस से शादी करें. 19 साल की आशा अपनी शादी को लेकर खुद फैसला लेना चाह रही थी. लगता है कि इसे उनका परिवार उसे माफ नहीं कर पाया.

संकलन: प्रिया एसेलबॉर्न

संपादन: उज्जवल भट्टाचार्य