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समाज

चौबीस साल बाद लगा घावों पर मरहम

प्रभाकर मणि तिवारी
१६ अक्टूबर २०१८

डिब्रूगढ़ की एक सैन्य अदालत ने फर्जी मुठभेड़ में पांच बेकसूर युवकों की हत्या के मामले में चौबीस साल बाद एक मेजर जनरल समेत सेना के सात लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है.

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Indien Pakistan Tote nach Angriff auf indisches Militärlager
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/C. Anand

पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्य आजादी के बाद से ही उग्रवाद का शिकार रहे हैं. इस पर काबू पाने के लिए सेना और सुरक्षा बलों की ओर से आजमाए जाने वाले तरीकों पर अकसर सवाल उठते रहे हैं. लेकिन अब असम की सैन्य अदालत का एक फैसला इस निरंकुशता पर अंकुश लगाने के मामले में मील का पत्थर साबित हो सकता है.

डिब्रूगढ़ की एक सैन्य अदालत ने फर्जी मुठभेड़ में पांच बेकसूर युवकों की हत्या के मामले में चौबीस साल बाद एक मेजर जनरल समेत सेना के सात लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. हालांकि उन लोगों के पास इस फैसले के खिलाफ सशस्त्र बल प्राधिकरण और सुप्रीम कोर्ट में अपील का विकल्प खुला है. लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि अपनी किस्म के इस पहले फैसले से सेना व सुरक्षा बलों में जवाबदेही व पारदर्शिता तो बढ़ेगी ही, इलाके में उनकी खोई साख वापस पाने में भी सहायता मिलेगी. इस फैसले ने 24 साल बाद पीड़ित परिवारों के घावों पर भी मरहम लगाने का काम किया है. इससे पड़ोसी मणिपुर में सशस्त्र बलों के खिलाफ जारी फर्जी मुठभेड़ों की जांच को भी दिशा मिल सकती है.

घावों पर मरहम

"हम 24 सालों से किसी अपने को खोने की पीड़ा से गुजर रहे हैं. अब जाकर हमें न्याय मिला है. उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट तक यह फैसला बहाल रहेगा ताकि आगे किसी को इस पीड़ा से ना गुजरना पड़े." यह कहते हुए दीपक दत्त के घाव हरे हो जाते हैं. चौबीस साल पहले 15 फरवरी 1994 को रात को लगभग दो बजे दरवाजे पर होने वाली एक दस्तक ने असम के तिनसुकिया जिले के रहने वाले दत्त परिवार की जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी थी.

एक चाय बागान में मैनेजर की हत्या के सिलसिले में सेना के जवान घर में रहने वाले अखिल असम छात्र संघ (आसू) के सदस्य प्रदीप दत्त को जांच की बात कह कर अपने साथ ले गए थे. इसी तरह एक-एक कर नौ लोगों को घर से ले जाया गया था. लेकिन बाद में उनमें से पांच की लाश मिली थी. प्रदीप के भाई दीपक बताते हैं कि एक महीने पहले ही प्रदीप की शादी हुई थी.

सेना के जवानों ने प्रदीप को इतनी यातनाएं दी थीं कि उसे याद कर दीपक आज भी सिहर उठते हैं. वह बताते हैं, "गिरफ्तारी के 24 घंटे बाद भी जब प्रदीप का कोई पता नहीं चला तो गौहाटी हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई थी. लेकिन हाईकोर्ट के निर्देश के बावजूद सेना ने उस पर अमल नहीं किया."

प्रदीप सहित पांच लोगों की 23 फरवरी को हत्या कर दी गई. सभी शव गोलियों से छलनी थे और उन पर यातना के निशान थे. सेना के अधिकारियों ने दावा किया था कि वे सभी उल्फा के उग्रवादी थे और मुठभेड़ में उनकी मौत हुई थी. बेटे की मौत के गम में प्रदीप के पिता की मौत हो गई. मां की उम्र 80 साल के पार हो गई है और वह अब भी अपने बेटे की याद में आंसू बहाती रहती हैं. उक्त कथित मुठभेड़ में मारे गए बाकी चार युवकों के परिजनों के जख्म भी आज तक हरे हैं.

राज्य बीजेपी के नेता जगदीश भुइयां बताते हैं, "एक स्थानीय चाय बागान अधिकारी की हत्या के आरोप में सेना ने तिनसुकिया जिले से नौ छात्रों को गिरफ्तार किया था. लेकिन कुछ दिनों बाद इनमें से पांच को उग्रवादी बता कर मार दिया गया." भुइयां की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर हाईकोर्ट ने सेना को आसू के नौ नेताओं को 21 फरवरी 1994 को नजदीकी थाने में पेश करने का निर्देश दिया था. लेकिन सेना ने 22 फरवरी को धोला थाने में पांच शव पेश करते हुए दावा किया कि इन सबकी मौत मुठभेड़ के दौरान हुई है और ये लोग उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया (उल्फा) के सदस्य हैं. बाकी चार लोगों को रिहा कर दिया गया था. उक्त घटना के बाद राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुआ था.

फैसले का स्वागत

असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल और अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने कोर्ट मार्शल के फैसले का स्वागत किया है. तिनसुकिया जिले के डांगोरी में हुए उक्त कथित मुठभेड़ के समय सोनोवाल ही आसू के अध्यक्ष थे. वह कहते हैं, "न्याय के लिए लंबा इंतजार आखिर खत्म हुआ. इस फैसले से न्यायपालिका व सेना के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा और सुरक्षा बलों को गैर-कानूनी गतिविधयों में शामिल होने से रोका जा सकेगा. साथ ही इससे मृतकों के परिजनों को राहत मिलेगी."सोनोवाल को उम्मीद है कि ऊपरी अदालतें भी इस सजा को बरकरार रखेंगी ताकि सुरक्षा बलों को सबक मिल सके.

आसू के अध्यक्ष दीपंकर कुमार नाथ फैसले का स्वागत करते हैं, "इस लंबी लड़ाई के बाद आखिर पीड़ित परिवारों को न्याय मिला है. इससे न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा." उनका कहना है कि कोई भी फैसला पीड़ित परिवारों के परिजनों को लौटा नहीं सकता लेकिन इससे उनके घावों पर मरहम तो लगा ही है. नाथ का दावा है कि असम में सेना के अभियान के दौरान सौकड़ों बेकसूर लोग मारे गए हैं. आसू ने अब सरकार से पीड़ित परिवारों के पुनर्वास के तहत हर परिवार के एक-एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की मांग उठाई है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सैन्य अदालत के ताजा फैसले से सेना व सुरक्षा बलों के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा. इसके साथ ही सेना की जवाबदेही और कामकाज में पारदर्शिता भी बढ़ेगी. एक पर्यवेक्षक डॉ. जीवन गोस्वामी कहते हैं, "इस फैसले से इलाके में सेना की वर्दी पर लगे धब्बे कुछ हद तक धुल गए हैं. यह फैसला इलाके में फर्जी मुठभेड़ की घटनाओं पर अंकुश लगाने का काम करेगा." असम में खासकर नब्बे के दशक में उल्फा की गतिविधयां चरम पर रहने के दौरान ऐसी सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ों का आरोप है.

पड़ोसी मणिपुर में भी सुरक्षा बलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में फर्जी मुठभेड़ में बेकसूर लोगों की मौत के आरोपों की जांच चल रही है. असम की सैन्य अदालत के फैसले का असर उस पर पड़ना लाजमी है. साथ ही इलाके में तैनात सेना और सुरक्षा बलों में यह सोच मजबूत होगी कि वे कानून से ऊपर नहीं हैं.

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