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मानसिक विषाद महामारी की राह पर

कायो कुत्सबाख़/ राम यादव१८ अप्रैल २००८

अंग्रेज़ी शब्द डिप्रेशन (Depression) को हिंदी में अवसाद या विषाद कहते हैं. अर्थ है दुख, उदासी, मनहूसी, दिल बैठ जाना, दिल उचाट हो जाना, चिंता, विरक्ति, नैराश्य, निरुत्साह इत्यादि. यह अवस्था यदि लंबे समय तक बनी रहे, तो मनोवैज्ञानिक इसे इसी नाम का मानसिक रोग बताते हैं.

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जब जीवन निरर्थक लगने लगता है
जब जीवन निरर्थक लगने लगता हैतस्वीर: BilderBox

डिप्रेशन या विषाद रोग पश्चिम के उन्नत औद्योगिक देशों में, और विकास के साथ भारत जैसे विकसशाल देशों में भी, तेज़ी से बढ़ रहा है. यह विचित्र बात है कि जीवन-स्तर में उन्नति, स्वास्थ्य-सुविधाओं में प्रगति और भोग-विलास के साधनों में वृद्धि के बावजूद लोग सुखी होने के बदले अपने आप को और दुखी महसूस करने लगे हैं. अकेले जर्मनी में ही औसतन हर पाँचवाँ आदमी जीवन में एक बार मानसिक विषाद से पीड़ित रह चुका है. आशंका है कि 2020 तक यह बीमारी हृदय रोगों को पीछे छोड़ चुकी होगी.

लगभग दो दशक पूर्व जब भूतपूर्व सोवियत संघ नहीं रहा, उसका विघटन हो गया, तब वहाँ निराशा और हताशा के कारण विषादग्रस्त लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ गयी. यह इस बात का संकेत था कि डिप्रेशन केवल आनुवंशिक कारणों से या दिमाग़ी हॉर्मोनों में गड़बड़ी से ही नहीं पैदा होता. उसके पीछे जीववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कारण ही नहीं, सामाजिक कारण भी हो सकते हैं. जर्मनी के समाजशास्त्रियों का एक वर्ग यही मानता है कि यहाँ विषाद रोग से पीड़ित लोगों की संख्या में गत चार दशकों में दस गुना बढ़ोतरी के पीछे सामाजिक कारक भी बहुत बड़ा कारण थे.

विवशता विषाद की जड़

अतः प्रश्न यह उठता है कि इस समय में यहाँ क्या बदला है? बहुत कुछ बदला है. घर-घर कंप्यूटर पहुँच गया है. बच्चा-बच्चा मोबाइल फ़ोन लिये घूम रहा है. सब के पास कार है, टेलीविज़न है, कैमरा है, म्युज़िक सेंटर है. लोग खूब सैर-सपाटे करते हैं, दूर देशों में छुट्टियाँ मनाते हैं. पूर्वी गुट-पशिचिमी गुट वाला झगड़ा नहीं रहा. अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण हो रहा है. जलवायु बदल रही है. इन तीव्रगति परिवर्तनों का परिणाम श्टुटगर्ट विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र संस्थान के प्रो. ओर्टविन रैन इन शब्दों में बयान करते हैं:

स्वाभाविक है कि इस सबसे सबसे पहले एक गहरी असुरक्षा का भाव पैदा होता है. यदि सब लोग एक जैसे होते और विज्ञान दो टूक शब्दों में कह सकता कि क्या सही है और क्या ग़लत, तो लोगों एक दिशा मिलती. लेकिन, आज तो विज्ञान की अलग-अलग शाखाएँ, विभिन्न धाराएँ आपस में ही होड़ लगाए हुए हैं. हर कोई सच्चाई पर अपना ही एकाधिकार जताता है. साधारण आदमी क्या माने और क्या न माने? अतः वह मुह मोड़ लेता है. किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय की शरण लेता है, शंकालु बन जाता है या सनकी हो जाता है. हो सकता है कि वह सबसे डरने लगे और सब पर से उसका विश्वास उठ जाये.

नाव जितना अधिक डोलेगी, आदमी उतना ही अधिक कोई सहारा ढूँढेगा. इस सहारे का नाम बाइबल, गीता या कुरान भी हो सकता है. उनमें लिखी बातों को शब्दशः लिया जा सकता है. फ़िल्मों और संगीत की विश्वव्यापी मार्केटिंग स्थानीय अस्मिता का पोषण करने वाली संस्कृतियों को विस्थापित कर रही है. इससे रीति-रिवाज़ों और संस्कृतियों की एकात्मीकरण क्षमता क्षीण हो रही है. दूसरी ओर, लोग नौकरी-धंधे की तलाश में या शरणार्थी बन कर अन्य जगहों और देशों में जाते हैं. वहाँ बस जाते हैं. अपने साथ अपनी रहन-सहन, अपनी संस्कृति लाते हैं. इससे स्थानीय जनता में बेचैनी पैदा होती है.

आत्मियता की आवश्कता

एक और चीज़ बेचैनी बढ़ाती है. मशीनें और इमारतें ऋण पर उधार ली जाती हैं. एक ओर तो उनका अच्छा-ख़ासा ब्याज देना पड़ता है और दूसरी ओर, तेज़गति तकनीकी प्रगति के कारण उन के इस्तेमाल का समय भी तेज़ी से घटता जाता है. हमारी अपनी शिक्षा-दीक्षा, अपना शिक्षण-प्रशिक्षण भी तेज़ी से पुराना पड़ता जाता है. हमने एक बार जो काम या व्यवसाय सीखा था, वह जीवन पर्यंत जीविकोपार्जन के लिए पर्याप्त नहीं रह गया. यानी, वे चीज़ें, जिनसे हम सुपरिचित थे, जीवन में सांत्वना और सहारा पाते थे, लगातार कम होती जा रही हैं. हम यह सब देख रहे हैं, पर इसे रोकने या बदलने में असमर्थ हैं. प्रो. ओर्टविन रैन का कहना है कि यह सब हमारी असुरक्षा और बेचैनी की आग में घी का काम कर रहा हैः

अमरीका में यदि कोई अपने घर की क़ीमत बहुत बढ़ा-चढ़ा कर आँकता है, तो इस पर मेरा कोई वश नहीं है. इससे केवल मेरी विवशता या परवशता का पता चलता है और तब विषाद आ घेरता है. विषाद वास्तव में इस आत्मविश्वास की कमी है कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ. परवशता या पराधीनता की अवस्था में आदमी आध्यात्मिक किस्म का कोई सहारा ढूँढता है. और जब उसे ऐसा कोई सहारा नहीं मिलता तो उसे विषाद आ घेरता है.

समाज में वृद्धजनों का बढ़ता अनुपात, पेट्रोल की आकाश छूती क़ीमतें और जलवायु परिवर्तन भी विवशता का भाव पैदा करते हैं. नौकरी कल भी रहेगी या नहीं?रोज़ी-रोटी के लिए घर-द्वार छोड़ कर कहीं और तो नहीं जाना पड़ेगा? नेता लोग काम पाने के लिए कहीं भी जाने की जिस तत्परता का उपदेश देते है, उसकी भी अपनी क़ीमत है. शोधकर्ताओं ने पाया है कि अपने ही देश-समाज में कहीं नया घर बसाने और सबसे घुलने-मिलने में सात साल लग जाते हैं.

छोटे परिवार संयुक्त परिवारों की अपेक्षा और भी डगमग होते हैं. परिजनों से दूरी अपनत्व का अभाव बन जाती है. संसार में इस समय कोई 20 करोड़ शरणर्थी सबसे अधिक दयनीय हैं. जलवायु परिवर्तन उनकी संख्या दुगनी कर सकती है.

आतंकवाद नया अभिषाप

इस बीच अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद मानसिक विषाद का एक नया कारक बन गया है. कोई नहीं जानता कि वह कब, किसके आतंकवादी हमले का निशाना बन जाये, जबकि तथ्य यह है, जैसा कि प्रो. रैन बताते हैं, कि मरने के और भी बहुत-से बहाने हैं:

जानते हैं कि उन्नत औद्योगिक देशों के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन OECD के सदस्य देशों में, बीमारियों की बात यदि छोड़ दें, तो 20 से 40 वर्ष की आयु के बीच सबसे अधिक असामयिक मृत्यु कैसे होती है?

आत्महत्या के द्वारा! कार दुर्घटना नहीं, घरेलू दुर्घटना नहीं, श्रम-दुर्घटना से भी नहीं, आत्महत्या से. ऐसे में अमरीका का हार्वर्ड स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ यदि यह कहता है कि OECD वाले देशों में मानसिक विषाद 2020 तक सबसे बड़ी बीमारी बन जायेगा, तो यह कोई दूर की कौड़ी नहीं है.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो व्यक्ति सिर उठायेगा, ख़तरनाक प्रवृत्तियों से भिड़ने की सक्रियता दिखायेगा और हर चीज़ को नियति मान कर निगल नहीं जायेगा, वही मानसिक विषाद से निपट पायेगा.