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"महिलाएं हिम्मत करें तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता"

४ जुलाई २०१८

भारत में पहला फेमिनिस्ट पब्लिशिंग हाउस "काली" शुरू करने वाली लेखिका उर्वशी बुटालिया मानती हैं कि नए लेखकों में आत्मविश्वास की कोई कमी नहीं है. महिला सुरक्षा के मुद्दे पर उनका कहना है कि भारत में स्थितियां खराब है.

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तस्वीर: DW/U. Wagner

हाल में थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के ग्लोबल सर्वे ने भारत में महिला सुरक्षा को लेकर बहस फिर तेज कर दी है. इस सर्वे में भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश माना गया है. इस सर्वे की पृष्ठभूमि में हमने बात भारत की जानी मानी नारीवादी कार्यकर्ता उर्वशी बुटालिया से भारत में महिलाओं के लिए अहम मुद्दों को समझने की कोशिश की. पेश है यही बातचीत.

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के ग्लोबल सर्वे में भारत को दुनिया में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित मुल्क बताया गया है. आप नारीवाद और महिला मुद्दों पर काम करती रही हैं. आपके मुताबिक इस स्थिति के लिए क्या कारण जिम्मेदार हैं?

मैं मानती हूं कि महिला सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा और महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, भारत को सवालों को घेरे में डालता है. ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब जल्द से जल्द निकालने होंगे. लेकिन इस तरह की रिपोर्ट या खबरों को लेकर मेरी कोई सहानभूति नहीं है, जिसमें कहा जाए कि कोई खास जगह कम खतरनाक है और कोई ज्यादा. मुझे नहीं लगता कि यह इस पूरे मसले को समझने का सही तरीका है. अगर हम कहते हैं कि किसी जगह पर कम बलात्कार हुए हैं इसलिए वह उस जगह से तो बेहतर हैं जहां ज्यादा बलात्कार हुए हैं, तब मैं मानती हूं कि ये पूरी बहस ही गलत हैं. क्योंकि बलात्कार का एक मामला भी उतना गलत है जितने अन्य. यह कही भी नहीं होना चाहिए.

मेरी दूसरी बात है कि जब आप इस तरह का कुछ कहते हैं तो उसी वक्त दक्षिणपंथी गुट कूद पड़ेंगे और कहेंगे, नहीं, हमारा भारत इतना बुरा नहीं है, यह पश्चिमी षड्यंत्र हैं. ऐसा कहना एकदम बकवास है. क्योंकि भारत में स्थितियां खराब है और अब ये हमें मानना होगा. असल में ये सवाल लोगों पर सीधे उत्तर देने के लिए दबाव बनाते हैं. मैं यह नहीं कह रही हूं कि इस सर्वे में कोई षड्यंत्र है, लेकिन मैं यह जरूर मानती हूं कि ऐसे सर्वे और पोल आपको कहीं न कहीं आपको आधी सच्चाई की तो चेतावनी जरूर देते हैं. लेकिन हमें इसे ही अंतिम सत्य नहीं मान लेना चाहिए. अगर आप थॉमसन रॉयटर्स को अंतिम सच मान लेंगे तो आप सोच सकते हैं कि कोई भी महिला देश में घर से बाहर नहीं निकलेगी. इसलिए मुझे लगता है कि ये रिपोर्ट हमें बताती है कि ये मुद्दे कितने गंभीर हैं.

साल 1984 में आपने भारत में एक फेमिनिस्ट पब्लिशिंग हाउस शुरू किया. उस वक्त महिलाओं के क्या मुद्दे थे और वक्त के साथ-साथ ये कैसे बदले हैं. एक नारीवादी होने के नाते आपकी चिंताएं इन सालों में कितनी बदली हैं?

नारीवाद सोचने-विचारने का कोई स्थायी तरीका नहीं है. निश्चित ही जैसे-जैसे समाज बदला है, नारीवादी मुद्दों में भी बदलाव आया है. इन बदलावों को यहां बता पाना आसान नहीं होगा क्योंकि ये बदलाव भी काफी जटिल और गहरे हैं. लेकिन अब भारत में महिलाएं सवाल उठा रही हैं. अब ये महिलाएं बराबरी के लिए समाज से, सरकारों से यहां तक कि अपने परिवारों से भी लड़ रही हैं. यह बिल्कुल सच है कि आज महिलाएं बोलना सीख गई हैं. जब हमने 70 के दशक में यह लड़ाई शुरू की थी तो महिलाएं हिंसा, स्वास्थ्य और गरीबी के लिए लड़ रहीं थीं. आज ये मुद्दे काफी बदले हैं. आज ये मुद्दे जाति, धर्म, कट्टरवाद, धर्म, लिंग और इंटरनेट से जुड़ गए हैं. आज की युवा नारीवादी पीढ़ी भी बिल्कुल अलग ढंग से सोचती है, जो कि अच्छा है. यहां तक कि आज युवा पुरुष भी नारीवाद को सुनना और समझना चाहते हैं. वह देखते हैं कि कैसे उनकी महिला मित्रों का व्यवहार बदलता है. मेरे ख्याल से ये सारे ही बातें जरूरी हैं.

महिलाओं को दबाने के लिए सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और भावनाओं का इस्तेमाल किया जाता है. आपको क्या लगता है, कैसे लोगों की इस मानसिकता को बदला जा सकेगा?

सांस्कृतिक रीति रिवाजों का हवाला देकर महिलाओं के साथ हमेशा ही दमनकारी व्यवहार किया गया है. साथ ही इसको वाजिब भी ठहराया गया. इसका मकसद था उन्हें उसी जगह रखना जहां वे थीं. लेकिन संस्कृति क्या है, यह कौन तय करेगा. क्या ये आदमी तय करेंगे. मर्द और औरतों के लिए नियम-कायदे से लेकर सारे तरीके अलग होंगे. मसलन कई भारतीय पुरुष, महिलाओं के पश्चिमी कपड़े पहनने पर अपमानित करते हैं लेकिन वह खुद को नहीं देखते. पतलून और शर्ट भी तो पश्चिमी पहनावा है. जब रातोंरात भारत ग्लोबल हो रहा है, देश में पैसा आ रहा है, फास्टफूड का चलन बढ़ रहा है तो कोई आवाज नहीं उठाता. कोई नहीं कहता कि इस तरह से पैसा बनाना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है. अब तो ये आम बात हो गई है. संस्कृति एक अजीब चीज है, यह शक्तिशाली गुटों के हित साधती हैं वे जब तक चाहे इसे चला सकते हैं. मेरे ख्याल से ये पूरा ढोंग है.वीडियो: बलात्कारियों का देश बनता भारत

आप अपनी किताब 'द अदर साइड ऑफ साइलेंस' में कहती हैं कि भारत का विभाजन इतिहास की किताबों में बंद कर पढ़ा जाने वाला इतिहास नहीं है, बल्कि उस वक्त की कई अलिखित कहानियां हमें घरों में गाहे-बेगाहे सुनने में आती है. इस पूरे विचार ने महिलाओं के साथ हिंसा पर किए गए आपके अध्ययन को कहां तक प्रभावित किया है. क्या ऐसी हिंसा आज भी भारतीय और पाकिस्तानी समाज में महिलाओं को प्रभावित करती हैं.

जो दर्द और पीड़ा विभाजन के वक्त लोगों ने सही है, वह वास्तविक है. लाखो लोगों को विस्थापित किया गया, हिंसा, लूटपाट और बलात्कार, सब हुआ. हालांकि दोनों पक्ष, भारत और पाकिस्तान ने घर और नौकरी जैसी कुछ मदद भी की. लेकिन लोगों की मानसिक अवस्था को समझने के लिए काम नहीं किया. बहुत कम काम किया लोगों को उस मानसिक आघात और दर्द से निकालने के लिए. जाहिर है व्यापार जैसे कई मुद्दे उस वक्त असुलझे रह गए थे. इन सब का नतीजा हुआ कि हमने कभी उस दर्द और तकलीफ को समझते हुए लोगों की ऐसी कहानियों को नहीं सुना. साथ ही उस भाव को लेकर हमेशा ही निराशा का भाव रखा, जिससे न तो समस्याएं हल हुई बल्कि आपसी अविश्वास और नफरत पैदा हो गई. जो आज भी हिंदू और मुस्लिमों के बीच नजर आती है. आज हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच जो टकराव है, वह क्या उसी विभाजन के वक्त पैदा हुए मसलों का परिणाम नहीं है? अगर हम इस बारे में खुलापन रख पाते, अगर हम विभाजन के बारे में खुलकर बात कर पाते और उसके प्रभावों पर चर्चा कर पाते तो हो सकता था कि हम उस दर्द और तकलीफ से बेहतर ढंग से निपट पाते. लेकिन दोनों देशों की सरकारों ने ऐसा नहीं किया, वे अपने सिर छुपाती रहीं और सोचती रहीं कि सब ठीक हो जाएगा और लोग भूल जाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और हम आज भी उस विरासत से जूझ रहे हैं.

क्या आपको लगता है कि आज की नारीवादी लेखिकाओं की आवाज ज्यादा बुलंद है? क्या आज के साहित्य और फिल्मों में नए पक्षों को खंगाला जा रहा है? क्या हम इसे नारीवादी आंदोलन की सफलता मान सकते हैं?

यह बिल्कुल सच है, आज साहित्य में महिलाओं की आवाज बुलंद हो रही है. काफी नए तरीके का साहित्य लिखा और रचा जा रहा है, जो बेशक साहित्य के परंपरावादी रवैये को बदलेगा. इसके साथ ही नए लेखकों में आत्मविश्वास और क्षमता की कोई कमी नहीं हैं. खैर, जब हम यह कहते हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आज भी बड़े चेहरे और बड़े नाम आदमियों के हैं. हमारी कोशिश यही रही है कि महिला लेखकों को वहीं सम्मान और इज्जत मिल पाए जो पुरुष लेखकों को मिलती है. महिलाओं के नाम भी भारतीय साहित्य के उन नामों में शामिल हो जिसे लोग उंगलियों पर गिनते हैं.

आज नारीवाद किस दिशा में बढ़ रहा है? दुनिया में मुल्क आपस में लगातार जुड़ रहे हैं, वैश्विक हो रहे हैं. क्या इसने निचले तबके से आने वाली महिलाओं की आवाजों को प्रभावित किया है?

नारीवाद बहुत आत्मविश्वास के साथ भविष्य के लिए रास्ते बना रहा है. बदलाव नए हैं, लेकिन अगर ये हो जाएंगे तो इन्हें बदला नहीं जा सकेगा. एक बार महिलाएं अपनी आवाज उठाने लगें, अपनी शक्ति पहचानने लगें और व्यवस्था को चुनौती देने की हिम्मत जुटा लें तो कोई उन्हें कोई नहीं रोक नहीं सकता. खैर, मैं मानती हूं कि यह बहुत जल्दी तो नहीं होगा लेकिन मुझे विश्वास है कि ये होगा जरूर.

इंटरव्यू: अपूर्वा अग्रवाल