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महिला मुक्ति की रौशनी

९ जुलाई २००९

लेबनान का क़ानून था कि अगर पिता लेबनानी नागरिक नहीं है तो उनके बच्चे लेबनानी नागरिक नहीं हो सकते. एक महिला ने इस क़ानीन के ख़िलाफ़ संघर्ष किया और अपने बच्चों को लेबनान की नागरिकता दिलवाई.

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तस्वीर: ullstein bild - Stary

कई कोठरियां थीं कतार में

उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई

थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा

उसके बचपन से जवानी तक की कथा.

हिंदी के प्रसिद्ध कवि रघुबीर सहाय ने कभी ये कविता महिलाओं की सामाजिक हालत पर लिखी थी. ऐसी हालत जिसका शिकार वे घर से लेकर बाहर तक सब जगह बनती हैं. ऐसी ही एक दास्तान उन अबोध भारतीय लड़कियों की है जो परिवार की ग़रीबी और लालच के बीच विदेशों में ख़ासकर खाड़ी देशों में ब्याह दी जाती हैं. और वहां वे एक मुश्किल ज़िंदगी के साथ एक विकट संसार में भटकती हैं. भारत के आंध्रप्रदेश राज्य की राजधानी हैदराबाद जितना अपनी ऐतिहासिकता के लिए मशहूर है उतना ही कुख्यात इन घटनाओं के लिए भी हैं. जिनमें अरब देशों के अमीर शेख बहला फुसलाकर गरीब घरों की लड़कियों के साथ शादी कर उन्हें ले जाते हैं और पराए मुल्क में एक समय बाद उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं. वे महिलाएं कहां जाएं. ख़ासकर वे जो मां भी बन जाती हैं. इस क्रूर रिवायत पर तो रोक लगाना अभी मुमकिन नहीं हो पाया लेकिन लेबनान की एक अदालत ने एक ऐसा फैसला सुनाया जिसमें हम स्त्री मुक्ति की एक बड़ी राहत की रोशनी देख सकते हैं.

लेबनान की एक आम महिला ने लाखों महिलाओं के लिए सरकार और कानून के ख़िलाफ़ भारी जीत हासिल की है. 45 साल की सुमायरा सुवायदान की शादी मिस्र के एक आदमी के साथ हुई थी. लेकिन पूरा परिवार लेबनान में रहता था. पति की मौत के बाद उनके चार बच्चों को देश से निकालने तक की बात उठी थी क्योंकि उनके पास पिता की मिस्र की नागरिकता थी.

लेकिन सुमायरा ने कानूनी लड़ाई जीत ली वो कहती हैं मेरे बच्चों की ज़िंदगी बदल गई है. वे अब कानूनी तरीके से काम कर सकते हैं, उन्हें बीमा कंपनी में भरती होने की इजाज़त है. पुलिस से अब उन्हे डरने की ज़रूरत नहीं है. जब तक लेबनानी नागरिक के रूप में उनकी मान्यता नहीं थी तब मुझे उनके लिए हर साल 200 डॉलर यानी 9 हज़ार रुपये देने पड़ते थे. एक बार मैं यह पैसा जमा नहीं कर पाई तब मेरे बच्चों के देश से निकालने की बात उठी. मुझे फिर जुर्माने के तौर पर 700 डॉलर और भरने पड़े. इसके लिए मुझे कर्ज़ लेना पड़ा. अब मै बहुत खुश हूं, मैं खुशी के मारे रो पड़ी.

18.07.2006 projekt zukunft fragezeichen
18.07.2006 projekt zukunft fragezeichenतस्वीर: DW-TV

लेबनान के नागरिकता कानून में लिखा है कि वहां की नागरिकता हासिल करने के लिए बच्चे का पिता लेबनानी ही होना चाहिए. 1925 में लागू किए गए इस कानून में महिलाओं का ज़िक्र ही नहीं है. इसलिए सुमायरा की वकील सुहा इस्माइल का कहना है कि उन्हें पता था कि महिलाओं का ज़िक्र न होना ही मुकदमे के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है.

"यह मामला मानवीयता से जुड़ा हुआ है. मेरे लिए बड़ी चुनौती भी थी. हमारे पास यह कानून है लेकिन कोई दूसरा कानून भी नहीं है जिसमें लिखा हो कि महिलाएं अपनी नागरिकता अपने बच्चों को नहीं दे सकती थीं. कानून की व्याख्या करने की बात है. कई लोग कहते थे कि बच्चे को मां की नागरिकता देना मुमकिन है, दूसरों का कहना था कि मुमकिन नहीं है."

वैसे महिलाओं के साथ ये भेदभाव कई देशों के संविधान और अंतरराष्ट्रीय सहमति के ख़िलाफ़ है जिनपर कई अरब देशों ने भी हस्ताक्षर किए हैं. महिला कार्यकर्ताओं का ये भी मानना है कि ये भेदभाव का सिर्फ एक पहलू है. महिलाएं निर्भर होती हैं. उनका अपना कुछ बचता नहीं है. लीना अबु हबीब ने 2001 में छह अरब देशों में रिसर्च की, ये जानने के लिए कि इस मुद्दे को कैसे उठाया जाता है. वैसे पिछले वर्षों में कई मुस्लिम देशों ने इस मुद्दे को उठाया. उदाहरण के लिए अलजीरिया में कानून के लागू होने से पहले के पति और बच्चों को नागरिकता मिल सकती हैं. मोरक्को में भी ऐसा कानून बना है लेकिन लागू होने के बाद ही विदेशी पति और बच्चों को नागरिकता मिल सकती है. मिस्र ने भी ऐसा कानून लागू किया. लेकिन कहा जाता है कि अब तक महिलाओं को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. लीना अबू हबीब बतातीं हैं कि यह मुद्दा बहुत संवेदनशील है क्योंकि उसे धर्म और राजनीति के साथ जोड़ा जाता है.

पहले अपनी ज़िंदगी की आए दिन की लड़ाई फिर अपने बच्चों के लिए भी एक कठिन संघर्ष में मुब्तिला औरतें, लेबनानी घटना से ज़ाहिर है, बड़ी राहत की उम्मीद करेंगी. एक ऐसे वक़्त में जब दुनिया में जहां तहां मानवाधिकारों और जातीय अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की घटनाएं देखने सुनने में आती हैं, तो ये घटना महिलाओं की दुनिया भर में फैली एक ख़ामोश लड़ाई की मिसाल बनती है.

रिपोर्ट: प्रिया एसेलबॉर्न

संपादन: शिव प्रसाद जोशी