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समाज

भारत में बढ़ती जा रही हैं आत्महत्याएं

प्रभाकर मणि तिवारी
१० सितम्बर २०२०

भारत में आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस से कुछ पहले आई नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2019 के दौरान देश में 1.39 लाख लोगों ने आत्महत्या कर ली.

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तस्वीर: Imago

इनमें से 67 प्रतिशत लोग 18 से 45 साल की उम्र के बीच थे. जान देने वालों में अब पढ़े-लिखे लोगों की तादाद भी बढ़ रही है. देश में कोरोना से मरने वाले लोगों के आंकड़ों को ध्यान में रखें तो आत्महत्या की घटनाएं कोरोना के मुकाबले ज्यादा गंभीर महामारी के तौर पर उभरी हैं. देश के महानगरों में तो परिस्थिति चिंताजनक है. केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से तमाम हेल्पलाइन नंबर जारी होने और जागरुकता अभियान चलाने के बाबवूजद हालात सुधरने की बजाय लगातार गंभीर होते जा रहे हैं. इससे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी अपनी एक रिपोर्ट में भारत को ऐसे शीर्ष 20 देशों की सूची में रखा था जहां सबसे ज्यादा ऐसी घटनाएं होती हैं. विडंबना यह है कि भारत के पड़ोसी देशों की स्थिति इसके मुकाबले बेहतर है. देश के पूर्वोत्तर इलाके में स्थित असम, त्रिपुरा और सिक्किम में भी आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़े हैं.

ताजा आंकड़े

एनसीआरबी की ओर से हाल में जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2019 में हर चार मिनट में किसी न किसी व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली. इनमें से 35 प्रतिशत ऐसे थे जो अपना कारोबार करते थे. इनमें 17 प्रतिशत लोगों ने मानसिक बीमारी झेलने की बजाय मौत का रास्ता चुनना बेहतर समझा. आंकड़ों से यह बात सामने आती है कि सेकेंडरी स्तर तक पढ़ाई करने वाले लोग ज्‍यादा आत्‍महत्‍या कर रहे हैं. युवाओं में आत्महत्या की दर वर्ष 2018 के मुकाबले चार प्रतिशत बढ़ गई है.

रिपोर्ट के मुताबिक, देश के प्रमुख महानगरों, चेन्नई, बंगलुरू, हैदराबाद, मुंबई, दिल्ली और कोलकाता में ऐसे मामलों में वृद्धि हुई है. भारत में 10 लाख से ज्‍यादा आबादी वाले शहरों में केरल के कोल्‍लम में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा 43.1 प्रति लाख है. इसके बाद 37.8 व्यक्ति प्रति लाख के साथ पश्चिम बंगाल के आसनसोल का स्थान है. महानगरों में चेन्‍नई में सबसे ज्‍यादा लोगों ने आत्‍महत्‍या की.

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फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूततस्वीर: AFP/S. Jaiswal

एनसीआरबी की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में पारिवारिक कलह आत्‍महत्‍या की प्रमुख वजहों में शामिल है. लेकिन नशीली दवाओं और शराब के नशे की लत की वजह से भी ऐसे मामलों में तेजी आई है. वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार, आत्‍महत्‍या करने वालों में 15.4 प्रतिशत गृहिणियों के अलावा 9.1 प्रतिशत नौकरीपेशा लोग थे.

आत्महत्या के मामलों में पड़ोसी देशों के मुकाबले भारत की स्थिति बेहद खराब है. भारत पहले दुनिया के शीर्ष 20 देशों में शुमार था और अब 21वें नंबर पर है. यहां से बेहतर स्थिति पड़ोसी देशों की है. डब्ल्यूएचओ की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या की दर में श्रीलंका 29वें, भूटान 57वें, नेपाल 81वें, म्यांमार 94वें, चीन 69वें, बांग्लादेश 120वें और पाकिस्तान 169वें पायदान पर हैं. नेपाल और बांग्लादेश की स्थिति जस की तस है.

एनसीआरबी रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2019 में देश में आत्महत्या करने वालों में से 74,629 यानी 53.6 प्रतिशत लोगों ने गले में फंदा डाल कर अपनी जान दे दी. इस रिपोर्ट से यह तथ्य भी सामने आया है कि बीते साल के दौरान दैनिक मजदूरी करने वाले 32,500 लोगों ने भी आत्महत्या कर ली. वह स्थिति तब थी जब कोरोना की वजह से बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियां नहीं गई थीं. ऐसे में वर्ष 2020 के आंकड़ों के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.

वजह और रोकथाम

पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में रहने वाले मनोज कुमार (बदला हुआ नाम) ने साल भर तक गंभीर मानसिक अवसाद से जूझने के बाद आत्महत्या का मन बना लिया था. वे फंदा डालने के लिए बाजार से रस्सी भी खरीद कर ले आए थे. लेकिन एक पड़ोसी को मनोज के हाथों में रस्सी देख कर खटका हुआ. तब मनोज की पत्नी और बच्चे घर पर नहीं थे. उन्होंने फौरन उनको सूचना देकर बुलाया. घरवाले मनोज को मनोचिकित्सक के पास ले गए. इससे उनकी जान बच गई और फिलहाल वे एक साल से दवाएं ले रहे हैं. एक पड़ोसी की सतर्कता से एक परिवार बिखरने से बच गया. लेकिन देश में हर किसी को वैसा पड़ोसी नहीं मिलता जैसा मनोज को मिला. नतीजतन आत्महत्या की घटनाओँ पर अंकुश लगाने के तमाम उपाय नाकाम ही साबित हो रहे हैं.

मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि पारिवारिक समस्याएं, नौकरी और पढ़ाई या किसी सामाजिक वजह से पैदा होने वाला मानसिक अवसाद, टूटते परिवार जैसी वजहें आत्महत्या के मामलों में ईंधन का काम कर रही हैं. पहले संयुक्त परिवारों में मानसिक अवसाद की स्थिति में बीमार को परिवार और समाज का समर्थन मिलता था. नतीजतन वह इससे जल्दी उबर जाता था. लेकिन अब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और खासकर महानगरों में सामाजिक ताना-बाना तेजी से बिखर रहा है. वहां बरसों से साथ रहने वाले पड़ोसी को भी लोग नहीं पहचानते. इस वजह से मानसिक अवसाद या पारिवारिक समस्या होने की स्थिति में लोग किसी के पास समाधान या समर्थन के लिए नहीं जा पाते. कुछ समय तक मन ही मन घुटने के बाद ऐसे ज्यादातर लोग संघर्ष से घबड़ा कर मुक्ति के सहज तरीके के तौर पर आत्महत्या को चुन लेते हैं.

मनोचिकित्सक डा. अजय निहलानी कहते हैं, "मानसिक अवसाद से पीड़ित व्यक्ति को सहारे की जरूरत होती है. ऐसे लोगों पर नजदीकी निगाह रखना जरूरी है. इसमें सबसे पहला तरीका है उस व्यक्ति से सीधे बातचीत करना और उसका मनोबल बढ़ाना." वह बताते हैं कि देश में ऐसे मरीजों को आत्महत्या से रोकने के लिए कई हेल्पलाइन नंबर चलाए जा रहे हैं. लेकिन उसे उस नंबर तक पहुंचने के लिए भी किसी सहारे की जरूरत होती है. विशेषज्ञों का कहना है कि मानसिक अवसाद की स्थिति में मरीज खुद किसी से कोई मदद नहीं लेना चाहते. यह जिम्मा उसके परिवार, मित्रों और शुभचिंतकों को उठाना होगा.

मदद करने की जरूरत

मानसिक अवसाद के मरीजों के लिए कोलकाता में एक संगठन चलाने वाले किशोर चटर्जी कहते हैं, "हमारे पास ऐसे जितने मरीज या उनके फोन आते हैं वह अपने किसी न किसी मित्र या पारिविरक सदस्य के जरिए आते हैं. मरीज को अपना अच्छा-बुरा नहीं सूझता. वह तो किसी तरह इस अवसाद से मुक्ति पाना चाहता है और कहीं से कोई सहारा नहीं मिलने की स्थिति में वह मौत का रास्ता चुन लेता है."

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में मनोचिकित्सा विभाग के प्रोफेसर प्रताप सरन कहते हैं, "भारत में चिंता की बात यह है कि 20 से 30 साल की उम्र की गृहिणियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है. विदेशों में ऐसा नहीं है. वहां उम्रदराज लोगों की तादाद ही ज्यादा है. देश में ऐसी समस्याओं को ध्यान में रख रोकथाम के उपायों पर गहन विचार-विमर्श कर ठोस रणनीति बनाना जरूरी है."

विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या के मामलों के अध्ययन के बाद तमाम सरकारों और गैर-सामाजिक संगठनों को मिल कर एक ठोस पहल करनी होगी. इसके लिए जागरुकता अभियान चलाने के अलावा हेल्पलाइन नंबरों के प्रचार-प्रसार पर ध्यान देना होगा. इसके साथ ही समाज में लोगों को अपने आस-पास ऐसे लोगों पर निगाह रखनी होगी जिनमें आत्महत्या या अवसाद का कोई संकेत मिलता है. मनोवैज्ञानिक डा. दिलीप कुमार बर्मन कहते हैं, "यह काम उतना आसान नहीं है. लेकिन पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को मजबूत कर ऐसे ज्यादातर मामले रोके जा सकते हैं. इसके लिए सबको मिल कर आगे बढ़ना होगा. ऐसा नहीं हुआ तो यह आंकड़े साल दर साल बढ़ते ही रहेंगे. ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने की ठोस रणनीति व पहल के बिना विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस महज खानापूरी बन कर रह जाएगा."

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