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मणिपुर चुनावों पर नाकेबंदी का साया

२४ जनवरी २०१७

देश में जिन पांच राज्यों में से अगले महीने से विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें एक राज्य ऐसा भी है जहां होने वाले चुनावों की चर्चा न तो घर में हो रही है और न ही बाहर. आर्थिक नाकेबंदी ने लोगों का मूड बिगाड़ रखा है.

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तस्वीर: DW/Prabhakar

यह राज्य है पूर्वोत्तर का उग्रवादग्रस्त राज्य मणिपुर. यहां की साठ सीटों के लिए मार्च में दो चरणों में वोट पड़ेंगे. यूपी, उत्तराखंड और पंजाब जैसे राज्यों में विधानसभा चुनावों के सरगर्मियों में मणिपुर की समस्या दब गई है. नगा संगठनों की अपील पर यह राज्य बीते 85 दिनों से आर्थिक नाकेबंदी की चपेट में है. चुनाव आयोग को डर है कि यही स्थिति बनी रही तो कम से कम तीस सीटों पर चुनाव कराना बेहद मुश्किल होगा.

सामान्य जनजीवन ठप

महीनों लंबी आर्थिक नाकेबंदी के बाद आम जीवन दूभर होने की वजह से यहां राजनीतिक दलों और वोटरों की प्राथमिकता सूची में चुनाव काफी नीचे है. इस नाकेबंदी की अपील राज्य में सात नए जिलों के गठन के विरोध में की गई थी. उसके बाद इस मुद्दे पर काफी हिंसा हो चुकी है. यही वजह है कि राज्य में अब तक  चुनाव अभियान शुरू नहीं हो सका है. आयोग के सूत्रों का कहना है कि अगर हालात शीघ्र नहीं सुधरे तो 60 में कम से कम 30 सीटों पर मतदान कराना मुश्किल होगा. आयोग की सबसे बड़ी चिंता नेशनल हाइवे-2 के जरिए उन 30 विधानसभा क्षेत्रों में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम), चुनाव सामग्री और कर्मचारियों को सुरक्षित पहुंचाना है.  राज्य की जीवनरेखा कही जाने वाली यह सड़क भी  यूएनसी की आर्थिक नाकेबंदी की चपेट में है.

राज्य के हालात से चिंतित केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बुधवार को दिल्ली में मणिपुर के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह से मुलाकात कर उनको नेशनल हाइवे-2 पर वाहनों की सुरक्षित आवाजाही शुरू करने को कहा. इसके बदले इबोबी ने गृह मंत्री से यूएनसी पर अंकुश लगाने को कहा ताकि राज्य की हालत में सुधार आ सके. मुख्यमंत्री की दलील थी कि नए जिलों के गठन का विरोध कर यह नगा संगठन राज्य सरकार के विशेषाधिकार को चुनौती दे रहा है. राज्य सरकार ने नाकेबंदी खत्म करने के लिए 17 जनवरी को एक पत्र के जरिए यूएनसी को राज्य सचिवालय में त्रिपक्षीय बैठक का न्योता दिया था. लेकिन उसने इसका कोई जवाब नहीं दिया है. नगा संगठन चाहता है कि यह बैठक या तो दिल्ली में हो या फिर सेनारति जिला मुख्यालय में.

मुकाबला कांग्रेस व बीजेपी में

वैसे भी पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़ कर बाकी किसी राज्य में होने वाले चुनावों को मीडिया में खास तवज्जो नहीं मिलती. इसकी प्रमुख वजह यह है कि उन राज्यों की राजनीति का राष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति पर कोई असर नहीं होता. अबकी भी ऐसा ही हो रहा है. चुनाव तो दूर अब तक उस आर्थिक नाकेबंदी की भी ज्यादा खबरें नेशनल मीडिया या टीवी चैनलों पर नहीं आई हैं जिसने राज्य के लोगों का जीना मुहाल कर रखा है. इसकी वजह से जरूरी वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों और नोटबंदी के चलते नकदी की भारी किल्लत राज्य में चुनावी माहौल पर भारी पड़ रही है.

असम में चुनाव जीत कर और अरुणाचल प्रदेश में पूरी सरकार के पाला बदलने की वजह से बीजेपी इलाके के इन दोनों राज्यों में सत्ता पर काबिज है. पूर्वोत्तर में पांव पसारने की रणनीति के तहत अब उसकी निगाहें मणिपुर पर हैं. राज्य में बीते 15 वर्षों से कांग्रेस की सरकार है और ओकराम ईबोबी सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं. यहां पर्वतीय इलाकों और घाटी के बीच राजनीतिक खाई काफी चौड़ी है. राज्य के दो-तिहाई हिस्से में फैले होने के बावजूद पर्वतीय क्षेत्र में विधानसभा की महज 20 सीटें हैं. बाकी 40 सीटें मणिपुर घाटी में हैं और यही सीटें राज्य में सरकार का स्वरूप तय करती हैं. घाटी में मैतेयी वोटर बहुमत में हैं और पर्वतीय इलाकों में नगा तबके की बहुलता है. इस विभाजन ने सत्ता के दावेदार बीजेपी के समक्ष भी मुश्किलें पैदा कर दी हैं. अगर वह अपने साझीदार नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) या यूनाइटेड नगा कौंसिल के साथ कोई तालमेल करता है तो मैतेयी वोटरों के उससे दूर जाने का खतरा है. नए जिलों के गठन के मुद्दे पर नगा व मैतेयी तबके के मतभेद चरम पर हैं. शायद यही वजह है कि बीजेपी ने यहां अकेले अपने बूते मैदान में उतरने का एलान किया है. 

बीजेपी ने विधानसभा चुनावों के लिए किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाने का फैसला किया है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि पार्टी चुनाव से पहले किसी को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश नहीं करेगी. इसका फैसला चुनावी नतीजों के बाद किया जाएगा. मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के एलान से पार्टी की चुनावी तैयारियों को झटका लग सकता है. इसकी वजह यह है कि कई नेता इस पद के दावेदार हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

क्षेत्रीय दलों की भूमिका अहम

यहां भले मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच हो, अबकी विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों की भूमिका भी निर्णायक रहने की उम्मीद है. दो बार राज्य में सरकार का गठन वाली मणिपुर पीपुल्स पार्टी (एमपीपी) को बीते विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं   मिली थी. लेकिन इस बार वह 60 में से 39 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का मन बना रही है. पार्टी को अबकी बेहतर प्रदर्शन का भरोसा है. मेघालय की विपक्षी पार्टी नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) भी पहली बार 30 उम्मीदवारों के साथ यहां चुनाव मैदान में उतारेगी. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष पी.ए. संगमा की ओर से गठित इस पार्टी ने प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति का भी गठन कर लिया है. इनके अलावा इन चुनावों में जिस क्षेत्रीय पार्टी पर सबकी निगाहें टिकी हैं वह है मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला की पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस पार्टी यानी प्रजा. यह देखना दिलचस्प होगा कि आम लोग इस पार्टी को कितना समर्थन देते हैं.

राज्य में 20 सीटें नगाबहुल पर्वतीय इलाके में हैं और 40 मणिपुर घाटी में. आर्थिक नाकेबंदी ने नगा और मैतेयी तबके के मतभेदों को बढ़ा दिया है. जहां तक मुद्दों की बात है राज्य में बीते चार दशकों से हर चुनाव में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को खत्म करना ही सबसे बड़ा मुद्दा रहा है. इसके अलावा अबकी नए जिलों का गठन, इनर लाइन परमिट और आर्थिक नाकेबंदी भी एक प्रमुख मुद्दा होगी. बीते पांच-छह वर्षों से मणिपुर आर्थिक नाकेबंदी का पर्याय बन चुका है. यह मुद्दा यहां बेहद संवेदनशील है. किसी भी पार्टी के लिए राज्य के नगा व मैतेयी वोटरों को एक साथ साधना टेढ़ी खीर है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर आर्थिक नाकेबंदी शीघ्र खत्म नहीं हुई तो राज्य के नगाबहुल इलाकों की सीटों पर चुनाव कराना चुनाव आयोग और प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है.

रिपोर्टप्रभाकर