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भूस्खलन की भविष्यवाणी से बच सकेंगी जानें

प्रभाकर मणि तिवारी
२६ सितम्बर २०१८

देश में अब भूस्खलन से जान-माल की रक्षा के लिए तकनीक का सहारा लिया जा रहा है. ज्वालामुखी और भूकंप की तरह भूस्खलन की भी भविष्यवाणी की जा सकेगी.

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Darjeeling Hills Indien
तस्वीर: DW/S.Bandopadhyay

दार्जिलिंग की पहाड़ियों में सबसे संवेदनशील क्षेत्र गिद्दापहाड़ में भूस्खलन की समय से पहले चेतावनी देने वाली एक प्रणाली (लैंडस्लाइड-अर्ली वॉर्निंग सिस्टम) की स्थापना की गई है. यह देश में अपने किस्म की पहली प्रणाली है. परीक्षण के तौर पर शुरू हुई इस लोककेंद्रित प्रणाली की कामयाबी के बाद इसे पूरे देश के भूस्खलन प्रभावित इलाकों में लगाया जा सकता है. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) ने पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिल कर इसे लगाया है. इसमें आम लोगों की भादीगारी बेहद अहम है. उनको इस प्रणाली के तहत संभावित खतरों का पूर्वानुमान लगाने का प्रशिक्षण दिया गया है.

क्या है प्रणाली?

खतरे का हल्का संकेत मिलते ही स्थानीय लोग एक व्हाट्सऐप ग्रुप के जरिए तमाम गांव वालों के अलावा जिला प्रशासन से लेकर आपदा प्रबंधन समूह तक को अलर्ट कर सकते हैं. कोलकाता स्थित जीएसआई के महानिदेशक दिनेश गुप्ता बताते हैं, "खतरे का ज्ञान, निगरानी, विश्लेषण, चेतावनी जारी करने, खतरे की सूचना समय रहते संबंधित एजेंसियों तक पहुंचाने और समय पर राहत व बचाव कार्यों की तैयारी जैसे पहलुओं में तालमेल नहीं होने की वजह से भूस्खलन की सटीक भविष्यवाणी संभव नहीं हो पाती थी. इसी वजह से इस जनकेंद्रित प्रणाली की जरूरत महसूस की जा रही थी"

जीएसआई का कहना है कि एक सक्रिय पहाड़ी चट्टान पर बसे होने की वजह से गिद्दापहाड़ इलाका भूस्खलन के लिहाज से काफी संवेदनशील है. बीते दो दशकों में यहां दर्जनों बार भूस्खलन की घटनाएं हो चुकी हैं. इलाके के तमाम घरों में और जमीन पर दरारें पड़ गई हैं.

2016 में जीएसआई के भू-आपदा शोध व प्रबंधन केंद्र ने अर्ली वॉर्निंग सिस्टम विकसित करने के लिए आधुनिकतम तकनीक के जरिए इस इलाके में होने वाले भूस्खलनों का अध्ययन किया था. अब जीएसआई भूस्खलन के दूसरे पहलुओं पर भी काम कर रहा है. एक अधिकारी बताते हैं कि दुर्गम पहाड़ी इलाकों में खासकर रात के समय होने वाले भूस्खलन की घटनाओं में लोगों को पहले से सतर्क करना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है. यही वजह है कि स्थानीय लोगों को भी इस प्रणाली का हिस्सा बनाया गया है. इसके लिए उनको बाकायदा प्रशिक्षण दिया गया है.

कैसे काम करती है?

गिद्दापहाड़ इलाके में कुछ स्थानों पर बारिश की मात्रा को मापने वाले उपकरण लगाए गए हैं. भारी बारिश की स्थिति में उस इलाके के तीन गांवों, गलाझोड़ा, गिद्दापहाड़ और 14 माइल के चुनिंदा प्रशिक्षित लोग बारी-बारी से लगातार उस उपकरण की निगरानी करते रहते हैं. इन गांवों के दो सौ लोगों को इसका प्रशिक्षण दिया गया है.

बारिश की मात्रा 123 मिमी पहुंचते ही लोग सतर्क हो जाते हैं. उसके बाद एक व्यक्ति लगातार यह देखता रहता है कि यह मात्रा 143 मिमी तक तो नहीं पहुंच रही है. जीएसआई के एक अधिकारी बताते हैं, "बारिश की मात्रा 143 मिमी तक पहुंचते ही निगरानी करने वाला व्यक्ति एक व्हाट्सऐप ग्रुप पर संदेश भेज कर गांव वालों को अपने कीमती सामानों के साथ घर छोड़ कर फौरन पहले से तय सुरक्षित स्थानों पर जाने की चेतावनी जारी कर देता है. भूस्खलन के संभावित खतरे से लोगों को आगाह करने के लिए सीटियों के साथ स्थानीय स्कूलों की घंटियां भी बजाई जाती हैं."

जीएसआई महानिदेशक दिनेश गुप्ता बताते हैं, "इस व्हाट्सऐप ग्रुप में तीनों गावों के हर परिवार के एक-एक सदस्य के अलावा पंचायत सदस्यों, जिलाशासक और राज्य और केंद्रीय स्तर के आपदा प्रबंधन विभाग के अधिकारी शामिल हैं. एक ही संदेश से सबको अलर्ट कर दिया जाता है." वे बताते हैं कि आपदा की स्थिति में स्थानीय लोग ही सबसे पहले राहत व बचाव कार्यों के लिए आगे आते हैं. इसी वजह से उनको इस प्रणाली के केंद्र में रखा गया है.

जीएसआई के पूर्व वैज्ञानिक और पहाड़ियों में आपदा प्रबंधन पर यूनिसेफ के सलाहकार रहे तापस घटक कहते हैं, "हमारा मकसद इस प्रणाली को चौबीसों घंटे सक्रिय रखना है. बारिश मापने वाले उपकरण ऐसी जगह लगाए गए हैं, जहां तक आसानी से पहुंचा जा सके. इसके अलावा गांवों में आपदा की स्थिति में क्या करें और कैसे करें की विस्तृत जानकारी देने वाले दो बार्ड भी लगाए गए हैं."

युवा हैं पहाड़ियां

दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और पड़ोसी सिक्किम की पहाड़ियां सीस्मिक जोन चार में शामिल हैं और हर साल इन इलाकों में भूस्खलन की छोड़ी-बड़ी सौ से ज्यादा घटनाएं होती हैं. 2015 में दार्जिलिंग में भूस्खलन से 33 लोगों की मौत हो गई थी. उसके अगले साल यह तादाद सात थी. भूस्खलन की वजह से अकसर इस इलाके का संपर्क देश के बाकी हिस्सों से कटता रहता है. बारिश के सीजन में हालत काफी गंभीर हो जाती है.

पूर्वी हिमालय की ये पहाड़ियां अपेक्षाकृत युवा हैं और यहां होने वाली भारी बारिश इसे भूस्खलन के प्रति संवेदनशील बनाती है. तापस घटक कहते हैं, "इन पहाड़ियों के  लगातार विस्तार की वजह से यह इलाका प्राकृतिक आपदाओं के प्रति काफी संवदेनशील है. इसके अलावा दुनिया में पहाड़ी झरनों का सबसे ज्यादा घनत्व इसी इलाके में है. इससे पहाड़ियों की मिट्टी नरम बनी रहती है."

जीसआई ने दो साल पहले इन पहाड़ियों के अध्ययन के बाद उनको भूस्खलन के प्रति संवेदनशीलता के लिहाज से तीन वर्गों में बांटा था. इनमें से 17 फीसदी इलाके को उच्च-खतरे वाला इलाका बताया गया था. उक्त अध्ययन के प्रमुख रहे वैज्ञानिक पंकज जायसवाल बताते हैं, "इस दौरान दार्जिलिंग की पहाड़ियों में होने वाले भूस्खलन की तमाम घटनाओं का भी अध्ययन किया गया था."

कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्लाय में समुद्रविज्ञान अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर तुहिन घोष कहते हैं, "सूचना के प्रसार में आम लोगों की भागीदारी बेहद अहम है. लेकिन अपने मकसद में कामयाब होने के लिए इस प्रणाली की नियमति रूप से निगरानी जरूरी है." जीएसआई महानिदेशक गुप्ता को उम्मीद है कि इस प्रणाली के जरिए इलाकों के घरों की नहीं तो लोगों के जान-माल की रक्षा तो की ही जा सकती है. वह कहते हैं, "इस प्रणाली के प्रभावी इस्तेमाल से भूस्खलन की वजह से होने वाले जान-माल के नुकसान पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है. हालात के आकलन के बाद स्थानीय लोग संभावित खतरे के बारे में फैसला लेकर चेतावनी जारी कर सकते हैं."

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