119 में से 100वें स्थान पर भारत
१४ अक्टूबर २०१७विभिन्न वैश्विक संगठनों के समय-समय पर होने वाले अध्ययनों व रिपोर्टों से सरकार के दावों की कलई खुलती रही है. बावजूद इसके न तो सरकार और नेताओं का चरित्र बदलता है और न ही उनके वादों को हकीकत में बदलने की दिशा में कोई ठोस पहल होती है. ऐसी रिपोर्ट्स आने के बाद कुछ दिनों तक सरगर्मी रहती है लेकिन उसके बाद फिर पहले की तरह सबकुछ एक ही ढर्रे पर चलने लगता है. बीते सप्ताह विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की विकास दर में गिरावट का दावा किया था. उसके बाद अब वैश्विक भूख सूचकांक में देश के 100वें स्थान पर होने के शर्मानक खुलासे ने विकास और प्रगति की असली तस्वीर पेश कर दी है.
भुखमरी और कुपोषण से घिरे भारत के लोग
उत्तर कोरिया से भी बदतर भारत
वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) की ओर से वैश्विक भूख सूचकांक पर जारी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के 119 विकासशील देशों में भूख के मामले में भारत 100वें स्थान पर है. इससे पहले बीते साल भारत 97वें स्थान पर था. यानी इस मामले में साल भर के दौरान देश की हालत और बिगड़ी है.
इस मामले में भारत उत्तर कोरिया, इराक और बांग्लादेश से भी बदतर हालत में है. रिपोर्ट में 31.4 के स्कोर के साथ भारत में भूख की हालत को गंभीर बताते हुए कहा गया है कि दक्षिण एशिया की कुल आबादी की तीन-चौथाई भारत में रहती है. ऐसे में देश की परिस्थिति का पूरे दक्षिण एशिया के हालात पर असर पड़ना स्वाभाविक है. इस रिपोर्ट में देश में कुपोषण के शिकार बच्चों की बढ़ती तादाद पर भी गहरी चिंता जताई गई है.
आईएफपीआरआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पांच साल तक की उम्र के बच्चों की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा अपने कद के मुकाबले बहुत कमजोर है. इसके साथ ही एक-तिहाई से भी ज्यादा बच्चों की लंबाई अपेक्षित रूप से कम है. रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तस्वीर विरोधाभासी है. दुनिया का दूसरा सबसे खाद्यान्न उत्पादक होने के साथ ही उसके माथे पर दुनिया में कुपोषण के शिकार लोगों की आबादी के मामले में भी दूसरे नंबर पर होने का धब्बा लगा है. संस्था ने कहा है कि देश में बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रमों के बावजूद सूखे और ढांचात्मक कमियों की वजह से देश में गरीबों की बड़ी आबादी कुपोषण के खतरे से जूझ रही है.
कैसे धुलेगा धब्बा?
भूख पर इस रिपोर्ट से साफ है कि तमाम योजनाओं के एलान के बावजूद अगर देश में भूख व कुपोषण के शिकार लोगों की आबादी बढ़ रही है तो योजनाओं को लागू करने में कहीं न कहीं भारी गड़बड़ियां और अनियमितताएं हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और मिड डे मील जैसे कार्यक्रमों के बावजूद न तो भूख मिट रही है और न ही कुपोषण पर अंकुश लगाने में कामयाबी मिल सकी है.
समाजशास्त्रियों का कहना है कि इस मोर्चे पर लगातार बदतर होती तस्वीर को सुधारने की लिए भूख व कुपोषण के खिलाफ कई मोर्चों पर लड़ाई करनी होगी. इनमें पीडीएस के तहत पर्याप्त गेहूं व चावल मुहैया कराने के अलावा बच्चों व माताओं के लिए पोषण पर आधारित योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन, पीने का साफ पानी, शौचालय की सुविधा और स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच सुनिश्चित करना शामिल है. एक समाजशास्त्री प्रोफेसर देवेन नस्कर कहते हैं, "प्रगति व विकास के तमाम दावों के बावजूद भूख के मुद्दे पर होने वाले ऐसे खुलासों से अंतरराष्ट्रीय पटल पर देश की छवि को धक्का लगता है. ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने पर जोर देना चाहिए ताकि भूख व कुपोषण जैसी गंभीर समसियाओं पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाया जा सके."
विशेषज्ञों का कहना है कि तमाम योजनाओं की नये सिरे से समीक्षा करने के साथ ही देश के माथे पर लगे इन धब्बों को धोने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है. लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या तमाम राजनीतिक दलों में इसके लिए सहमति बन सकेगी.
(खुद को खोजता भारत)