भारतीय राजनीति का अटल सितारा
राजनीति की रपटीली राहों में बड़े बड़े नेता फिसल जाते हैं. लेकिन कुछ विरले ही शालीनता, गरिमा और सम्मान के साथ दिलों में बस जाते हैं अटल बिहारी वाजपेयी को ऐसे ही विलक्षण नेताओं में गिना जाएगा.
राजनीति में कदम
धारा 370 का विरोध करने के लिए 1953 में भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर गए. वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हिरासत में उनकी मौत हो गई. मुखर्जी की मौत से तत्कालीन पत्रकार अटल बिहारी वाजपेयी बेहद व्याकुल हुए. इसके बाद वाजपेयी ने राजनीति में उतरने का फैसला किया.
नेहरू की भविष्यवाणी
1957 में चुनाव जीतकर लोक सभा में आने के बाद वाजपेयी का सामना पहली बार प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से हुआ. नेहरू सरकारी खर्चे पर बन रहे एक होटल की तरफदारी कर रहे थे. इसके जबाव में वाजपेयी ने कहा, "देश को होटल नहीं, हॉस्पिटल चाहिए." वाजपेयी का जबाव सुनने के बाद नेहरू ने कहा कि यह नौजवान प्रधानमंत्री जरूर बनेगा.
आखिरी नेहरूवादी प्रधानमंत्री
राजनीतिक रूप से तर्क वितर्क करने के बावजूद वाजेपयी, जवाहरलाल नेहरू की नीतियों के कायल रहे. उनके भीतर नेहरूवादी समाजवाद की छाप हमेशा मौजूद रही. नेहरू के निधन पर वाजपेयी ने कहा, "यह एक परिवार, समाज या पार्टी का नुकसान भर नहीं है. भारत माता शोक में है, क्योंकि उसका सबसे प्रिय राजकुमार सो गया. मानवता शोक में है क्योंकि उसे पूजने वाला चला गया."
हम रहें या ना रहें
1996 में विश्वासमत पर हो रही बहस के दौरान 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने वाजपेयी ने कहा, मैं अभी प्रधानमंत्री हूं. कुछ देर में नहीं रहूंगा. लेकिन इसे मेरे में मन को कोई पीड़ा नहीं होगी. कोई शोक नहीं होगा. "सत्ता का खेल तो चलता रहेगा, सरकारें आएंगी, जाएंगी. पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी. मगर ये देश रहना चाहिए. इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए."
पार्टी हित से ऊपर देश
वाजपेयी शायद आखिरी नेता थे जो देशहित के मामलों में पार्टी की बंदिशें तोड़ने का साहस जुटा पाए. 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने विपक्ष के नेता होने के बावजूद वाजपेयी को जेनेवा में मानवाधिकार सम्मेलन में देश का पक्ष रखने के लिए भेजा. वाजपेयी जेनेवा पहुंचे. कांग्रेस सरकार द्वारा विपक्षी पार्टी के नेता को देश का प्रतिनिधित्व करने भेजने का यह फैसला पूरी दुनिया को हैरान कर गया.
शालीन नेता
वाजपेयी की गिनती हमेशा शालीन नेताओं में होती रही. तमाम किस्म राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों के बीच उन्होंने कभी किसी पर निजी हमला नहीं किया. घोर आलोचना करने वाले नेताओं से भी वाजपेयी की जबरदस्त दोस्ती रही. इससे जुड़ी उनकी एक कविता भी है, "मेरे प्रभु. मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना, गैरों को गले न लगा सकूं."
विलक्षण वाणी
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशरर्फ ने आतंकवाद के मुद्दे बोल रहे थे. मुशरर्फ ने कहा, भारत आतंकवाद का आरोप लगाता है लेकिन "ताली एक हाथ से नहीं बजती." इसके जवाब में वाजपेयी ने कहा, "ताली एक हाथ से नहीं बजती, लेकिन चुटकी बजती है. बजाते रहिए." लेकिन मतभेदों के बावजूद मुशरर्फ बाद में जब भी दिल्ली आए, वह वाजपेयी से मिलने जरूर पहुंचे.
अपनों में पराए, परायों में अपने
अध्योध्या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने से वाजपेयी बेहद खिन्न हुए. उनका मानना था कि इस मामले को आपसी बातचीत और अदालत के जरिये सुलझाया जाना चाहिए. लेकिन पार्टी राम मंदिर आंदोलन में कूद चुकी थी. इस दौर में वाजपेयी अपनी ही पार्टी के भीतर अकेले पड़ गए थे.
एकांतवास का दर्द
वाजपेयी पर गहन रिसर्च कर किताब लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी के मुताबिक, ऐसे कई मौके थे जब आरएसएस के इशारों पर वाजपेयी को पार्टी ने किनारे कर दिया. लेकिन जब जब चुनाव आए तब बीजेपी के पास वाजपेयी जैसा कोई और दूसरा नेता नहीं था. तमाम मतभेदों को झेलने वाले वाजपेयी ने इस भावना को "आओ मन की गांठें खोलें" नाम की कविता में तब्दील किया.
भावुक शख्सियत
राजनीति के साथ ही वाजपेयी के जीवन में कला और दर्शन के लिए बड़ी जगह रही. वाजपेयी के मुताबिक कविता, शांति मांगती है और राजनीति शांति नहीं देती. जीवन, मित्रता, संघर्ष और मृत्यु को लेकर भी उन्होंने कविताएं लिखी. उनकी एक कविता है, "जन्म-मरण अविरत फेरा, जीवन बंजारों का डेरा आज यहां, कल कहां कूच है, कौन जानता किधर सवेरा."