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सींखचों के पीछे भारत का मीडिया 

मारिया जॉन सांचेज
२५ अप्रैल २०१८

भारत प्रेस की आजादी के अंतरराष्ट्रीय सूचकांक में लगातार नीचे खिसक रहा है. कुलदीप कुमार इसके लिए सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं.

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Gauri Lankesh
तस्वीर: twitter/gaurilankesh

जो बात सबको पता है उसे पत्रकारों की अंतरराष्ट्रीय संस्था "रिपोर्टर्स विद आउट बॉर्डर्स" ने फिर से पुष्ट कर दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो बात-बात में इमरजेंसी और कांग्रेस शासन की याद दिलाते रहते हैं और सभी कमियों के लिए पिछली सरकारों को दोष देते रहते हैं, उनके अपने शासनकाल में भारत में मीडिया की हालत लगातार खराब होती जा रही है और इसके लिए मुख्यतः हिन्दुत्ववादी आक्रामकता, उस पर अंकुश लगाने के प्रति सरकारी उदासीनता और मीडिया पर अनौपचारिक रूप से दबाव बनाकर उसे प्रभावित करने की सरकार की नीति जिम्मेदार है. यह संस्था प्रति वर्ष दुनिया भर के 180  देशों में मीडिया को मिली आजादी के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट जारी करती है और मीडिया की आजादी के सूचकांक में विभिन्न देशों का स्थान निर्धारित करती है. इस सूचकांक में भारत का स्थान लगातार गिरता जा रहा है. वर्ष 2016 में वह 133वें स्थान पर, 2017 में 136वें स्थान पर और 2018 में 138वें स्थान पर है. दिलचस्प बात यह है कि इसी सूचकांक में अफगानिस्तान 118वें स्थान पर रखा गया है. 

रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि हिन्दू राष्ट्रवादी राष्ट्रीय बहस में से हर उस विचार को "राष्ट्रविरोधी" कह कर निकाल बाहर कर रहे हैं जिससे वे सहमत नहीं हैं. मुख्य धारा के मीडिया में स्वयं ही अपने ऊपर सेंसरशिप लगाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और पत्रकारों के खिलाफ सोशल मीडिया में उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी तत्वों द्वारा उनकी छवि पर कीचड़ उछालने का कुत्सित अभियान चलाया जा रहा है और उन्हें शारीरिक हिंसा की धमकियां भी दी जा रही हैं. वर्ष 2017 में कम से कम गौरी लंकेश समेत तीन पत्रकारों की उनके प्रोफेशनल काम के कारण हत्या की गई और उसके पहले उनके खिलाफ सोशल मीडिया और नेटवर्क पर घृणा का अभियान चलाया गया.

अकेले मार्च 2018 में ही तीन अन्य पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. पत्रकारों का मुंह बंद करने के लिए अक्सर मुकदमों का सहारा लिया जाता है और अभियोजन पक्ष की ओर से उन पर भारतीय दंड संहिता की "राजद्रोह" संबंधी धाराएं थोप दी जाती हैं जिनमें उम्र कैद तक की सजा का प्रावधान है. अच्छी बात यह है कि अभी तक किसी पत्रकार को राजद्रोह के आरोप में सजा नहीं हुई है. कश्मीर जैसे क्षेत्रों में अक्सर स्थानीय पत्रकारों को पुलिस और सेना की हिंसा का सामना करना पड़ता है. अक्सर इंटरनेट आदि सुविधाएं बंद कर दी जाती हैं और विदेशी पत्रकारों को वहां जाने ही नहीं दिया जाता. 

"रिपोर्टर्स विद आउट बॉर्डर्स" की रिपोर्ट तो अपनी जगह ठीक है ही, लेकिन इसमें भी भारतीय मीडिया की सम्पूर्ण तस्वीर नहीं मिलती. समाचारपत्रों और पत्रिकाओं पर निगाह रखने के लिए भारतीय प्रेस परिषद है तो टीवी चैनलों के लिए ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन. प्रेस परिषद तो अर्ध-सरकारी है लेकिन एसोसिएशन पूर्णतः गैर-सरकारी. इनके पास किसी प्रकार के अधिकार नहीं हैं और भारतीय मीडिया निर्बाध रूप से बिना किसी नैतिक अंकुश के काम किए जा रहा है.

बड़े अखबार, पत्रिकाएं और टीवी चैनल बड़े व्यापारिक और औद्योगिक घरानों के स्वामित्व में चल रहे हैं जिनके लिए मुनाफा सबसे बड़ा धर्म बन चुका है. इसलिए अक्सर ये सभी मीडिया मंच संतुलित और निष्पक्ष समाचार और विश्लेषण प्रस्तुत करने के बजाय अक्सर नितांत गलत और आधारहीन खबरें प्रकाशित-प्रसारित करते हैं, कुछ खास राजनीतिक दलों को फायदा और कुछ को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से बाकायदा लक्ष्य निर्धारित करके अभियान चलाते हैं और पाठक एवं दर्शक के विवेक को प्रभावित करते हैं. पिछले चार वर्षों में लगभग सभी मीडिया संस्थान कमोबेश सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में अभियान चलाते देखे गए हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सकारात्मक छवि का निर्माण करना भी इनका एक प्रमुख लक्ष्य बन गया है.

इसका कोई प्रमाण तो नहीं है लेकिन माना यही जाता है कि साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर सरकार इन मीडिया मंचों को बहुत हद तक झुकाने में सफल हुई है. फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया मंचों पर तो बाकायदा हजारों की संख्या में ऐसे लोग हमेशा सक्रिय रहते हैं जो विरोधियों को गाली-गलौज देकर, उनके बारे में पूरी तरह झूठी खबरें और तस्वीरें प्रसारित करके और तरह-तरह के हथकंडे अपना कर उनका मनोबल तोड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं. यही नहीं, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे महापुरुषों के बारे में भी निराधार बातें, नकली तस्वीरें और नकली दस्तावेज सोशल मीडिया पर प्रसारित किए जाते हैं. लेकिन पुलिस और अन्य सरकारी मशीनरी अक्सर तभी हरकत में आती है जब हिंदुत्ववादी हितों पर किसी प्रकार की चोट पहुंचती है. कुल मिलाकर भारतीय मीडिया की हालत बेहद नाजुक है.