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भारत में साइंटिफिक रिसर्च के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति

विनम्रता चतुर्वेदी
२० जुलाई २०१८

दुनिया भर में साइंटिफिक रिसर्च के नाम पर बड़ा घोटाला हो रहा है. इसकी चपेट में भारतीय रिसर्चर और प्रकाशकों की बड़ी संख्या भी है जो रिसर्च के नाम पर खानापूर्ति भर कर रहे हैं. शिक्षा की गुणवत्ता कटघरे में है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP

किसी भी रिसर्च स्कॉलर या प्रोफेसर के लिए देशी-विदेशी जर्नलों में अपने लेख को छपवाना लगभग अनिवार्य होता है. इसी का फायदा उठा कर भारत समेत अन्य देशों में ऐसी फर्जी कंपनियों का गिरोह सक्रिय है जो पैसे लेकर लेख के नाम पर कुछ भी छाप देती हैं. भारतीय अखबार इंडियन एक्सप्रेस, जर्मन सरकारी चैनल एनडीआर, डब्ल्यूडीआर और दैनिक जुइडडॉयचे साइटुंग समेत अन्य मीडिया संस्थानों के पत्रकारों की नौ महीने तक की गई पड़ताल में ये बातें सामने आई हैं. इंडियन एक्सप्रेस ने ऐसी तीन भारतीय कंपनियों के बारे में खबर प्रकाशित की है.

दरअसल जर्नल में प्रकाशित होने से पहले पब्लिकेशन की यह जिम्मेदारी होती है कि वह रिसर्च को अन्य वैज्ञानिकों के पास रिव्यू के लिए भेजे. इससे क्वॉलिटी कंट्रोल और रिसर्च का महत्व सुनिश्चित हो जाता है और फिर इसे लोगों के पढ़ने-समझने के लिए रिलीज किया जाता है. आधे-अधूरे काम करने वाले पब्लिशर्स रिसर्च का रिव्यू नहीं कराते है. पब्लिशर्स पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों और कंपनियों से संपर्क में रहते हैं और उन्हें जर्नल में रिसर्च वर्क प्रकाशित करवाने के लिए कहते रहते हैं. रिपोर्ट बताती है कि करीब चार लाख शोधकर्ताओं ने दुनिया भर में ऐसे फर्जी जर्नलों का सहारा लेकर अपने लेख प्रकाशित करवाए हैं.

जर्मनी में रिसर्च के मौके

भारत में बढ़ रहे फर्जी जर्नल के मामले

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ऑनलाइन जर्नल की मानो बाढ़ आ गई है. सबसे अधिक संदिग्ध प्रकाशक हैदराबाद में हैं जिनमें से एक ऑमिक्स ऑनलाइल जर्नल पब्लिश करते हैं. दफ्तर भले ही हैदराबाद में हो, लेकिन उन्होंने पता यूके या अमेरिका का दिया हुआ है. ऐसा भारतीय शोधकर्ताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए किया गया है. पब्लिकेशन के सीईओ श्रीनुबाबा गेडेला बताते हैं कि उन्होंने 10 लाख से भी अधिक लेख प्रकाशित किए है. एक लेख के लिए शोधकर्ताओं से 10 हजार से 1.25 लाख रुपये तक लिए जाते हैं.

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इस मुद्दे पर डॉयचे वेले ने बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में मैटीरियल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर टी.ए. अभिनंदन से बात की तो उन्होंने कहा, ''यह सच है कि फेक आर्टिकल और जर्नल की बाढ़ आ गई है. जर्नल में लेख छपने से पहले उसे रिव्यू के लिए नहीं भेजा जाता है और न ही प्लेेजेरिज्म जैसे मापदंडों पर परखा जा रहा है. फीस देकर अपने आर्टिकल को पब्लिश होने देना गलत नहीं है क्योंकि कई सम्मानित जर्नल ऐसा कर रहे है. दिक्कत यह है कि आधे-अधूरे काम करने वाले प्रकाशकों ने भी पैसे लेने शुरू कर दिए हैं और लेख को जल्दी छपवाने के चलते शोधकर्ता वहां पैसे देने को तैयार है. प्रो. अभिनंदन ने बताया कि कुछ साल पहले मशहूर साइंस मैगजीन की पड़ताल से मालूम चला कि वहां छपे लेखों को 300 अलग-अलग जर्नल में प्रकाशित किया गया है. विज्ञान के लिए यह दयनीय स्थिति है. चीन में इसके लिए सख्त कानून बनाए गए हैं, लेकिन भारत में इसे लेकर जागरूकता नहीं है.

दोष नियामक संस्थाओं का भी

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ फिजिकल साइंस में प्रोफेसर देबाशीष घोषाल इसके लिए दोष यूजीसी को भी देते हैं. उनके मुताबिक, भारत में शोध संस्थान स्वंतत्र हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी यूजीसी के दायरे में आती है. पहले यूजीसी ने सूची तय की थी कि किन जर्नलों में लेख प्रकाशित होने पर उसे सही माना जाएगा, लेकिन प्रोफसरों व यूनिवर्सिटी के दबाव के चलते इस सूची को बढ़ा दिया गया. इस सूची में ही कई ऐसे फर्जी जर्नल है और शोधकर्ता इतने दबाव में रहते हैं कि वहां लेख भेज देते हैं. कई को तो मालूम ही नहीं होता कि वह जर्नल उनके लेख को रिव्यू के लिए भेज रहा है कि नहीं. दोष शोधकर्ता और प्रकाशक दोनों का है.

अन्य दिक्कत है कि जब भी कोई शोधकर्ता नौकरी के लिए अप्लाई करता है तो बजाए उसके काम को देखने के यह देखा जाता है कि कौन से जर्नल में उसका लेख छपा था. इससे कुछ खास जर्नल की मांग बढ़ जाती है. फर्जी जर्नल शोधकर्ताओं को मेल भेजकर उनका रेफरेंस देने के लिए कहते हैं और इससे एक आर्टिफिशियल रेप्युटेशन बन जाती है जो साइंस के लिए बेहद खतरनाक है. प्रो. घोषाल कहते हैं कि भारत में 60-70 फीसदी लेख फर्जी प्रकाशकों के जरिए पब्लिश हो रहे हैं, यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.  

फर्जी जर्नल में नोबल पुरस्कार विजेता का भी लेख

मीडिया हाउसों की साझा जांच में मालूम चला कि 2013 के बाद जर्मनी में ऐसे जर्नल में रिसर्च पब्लिश करवाने में तीन गुना इजाफा हुआ है, वहीं प्रकाशकों की संख्या में पांच गुने की बढ़ोतरी देखी गई है. कई शोधकर्ता पब्लिक फंडेड रिसर्च पर काम कर रहे थे. जलवायु परिवर्तन, कैंसर का इलाज, ऑटिज्म और पार्किंसन जैसी बीमारियों पर हुई रिसर्च के लेख इन जर्नलों में प्रकाशित हुए है. रिपोर्ट से मालूम चला कि बायर जैसी जर्मन फार्मास्यूटिकल कंपनी ने भी अपने प्रोडक्ट्स के बारे में कर्मचारियों से लेख लिखवाए. तंबाकू बनाने वाली कंपनियों ने ध्रूमपान के असर के बारे में छपे लेख को इस्तेमाल किया. 

जर्मनी के अग्रणी वैज्ञानिकों ने जब ऐसे फर्जी जर्नल के बारे में जाना तो दंग रह गए. ब्रेमेन यूनिवर्सिटी के बैर्न्ड शॉल्स राइटर के 13 लेख ऐसे संदिग्श जर्नल में छपे. उन्होंने जुइडडॉयचे साइटुंग को बताया कि उन्हें प्रकाशक के संदिग्ध होने का कोई अंदाजा नहीं था. नोबल विजेता भी ऐसे फर्जी जर्नलों की चपेट में आ चुके हैं. हालांकि अखबार ने उनका नाम नहीं छापा है. हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर योआखिम फुंके ऐसे प्रकाशकों की फर्जीवाड़े की आलोचना करते हुए कहते हैं कि ऐसे जर्नल साइंस के लिए बड़ी त्रासदी लेकर आए हैं.

रिबेका स्टाउडेनमाएर

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