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भारत के गणतंत्र बनने की दास्तान

उज्ज्वल भट्टाचार्य (संपादनः आभा मोंढे)२१ जनवरी २०१०

भारत में लोकतंत्र की जड़ें कम से कम 150 साल पुरानी हैं. जब पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह हुआ था. राजनैतिक घटनाक्रम आज़ादी और इसके बाद भारत के गणतंत्र बनने की की कहानी

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तस्वीर: UNI

अगर पिछले दो चुनावों के बाद भारत में एक ही पार्टी यानी कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी है, तो उससे पहले के दस सालों के दौरान हुए पांच चुनावों में चार बार सरकार बदली थी. अगर कुछ प्रेक्षक पिछले दो चुनावों को स्थिरता की तस्वीर के रूप में पेश करेंगे, तो साथ ही कहना पड़ेगा कि उससे पहले पांच में से चार चुनावों में सरकार बदलना और उसके बावजूद संवैधानिक प्रणाली की निरंतरता बेशक भारत में लोकतंत्र की गहरी जड़ों का सबूत है और यह एक सफ़र है, जिसकी शुरुआत कम से कम डेढ़ सौ साल पहले हुई थी.

बहुलवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था

1857 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को उखाड़ फ़ेंकने के लिए विद्रोह हुआ, तो उसके विभिन्न केंद्रों के बीच किसी हद तक एक समझ बनी थी, जिसकी वजह से उसका असर इतना व्यापक रहा. दूसरी ओर, इन केंद्रों के एक सामूहिक नेतृत्व के अभाव के कारण विद्रोह को कुचला भी जा सका. आने वाले दशकों की सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों में इस अनुभव की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है. सन 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, तो देश की आज़ादी उसके एजेंडे में नहीं थी, लेकिन संगठन का चरित्र शुरु से ही लोकतांत्रिक रहा. कांग्रेस अधिवेशन में मौजूद प्रतिनिधि उसके अध्यक्ष को चुनते थे, अधिवेशन की गतिविधियां और उसके प्रस्ताव संवाद पर आधारित होते थे.

अधिवेशन स्थल से लोकतंत्र की भावना को जनता के स्तर तक ले जाना, उसकी संरचनाएं तैयार करना - इस मूल प्रक्रिया के तहत स्वराज से लेकर स्वतंत्रता तक की मांगें सामने आईं. कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा बनी, लेकिन उसके तले व समानांतर अन्य धाराएं भी बहती रहीं, जिनके आधार पर आज़ादी से पहले व उसके बाद अन्य राजनीतिक दल बने, उनके बीच सहयोग और द्वंद्व की प्रक्रिया से भारत की बहुलवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था पनपी.

लोकतंत्र बना रहा

एक देश, जहां दर्जनों मान्यताप्राप्त व कुल मिलाकर सैकड़ों भाषाएं और हज़ारों उपभाषाएं हों, जहां विश्व के लगभग सभी धर्मों को मानने वाले लोग हों, एक शासन व्यवस्था सिर्फ़ आपसी सहमति और हितों के बीच सामंजस्य पर आधारित हो सकती है. यही कारण है कि हालांकि दक्षिण एशिया के अन्य देशों में लोकतंत्र की प्रक्रिया में अक्सर रुकावटें आई हैं, भारत में कभी कोई दूसरी प्रणाली अस्तित्व में नहीं आ सकी. 1975 में आपात स्थिति के तहत नागरिक अधिकारों पर अंकुश लगाए गए, लेकिन यह दौर अस्थाई रहा और जनता ने स्पष्ट रूप से इसे ठुकरा दिया.

भारत में लोकतंत्र राष्ट्र की परिकल्पना पर भी आधारित है, आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही जिसे अनेकता में एकता के रूप में परिभाषित किया गया था. इसकी जड़ें जहां एक ओर प्राचीन भारतीय चिंतन की मुख्य धाराओं तथा मुगल दौर की शासन प्रणाली में पाई जा सकती हैं, वहीं यूरोप, ख़ासकर ब्रिटेन के उदारवादी चिंतन का भी इस सिलसिले में उल्लेखनीय योगदान रहा है. लेकिन भारत में लोकतंत्र के विकास को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तोहफ़े के रूप में देखना भी ग़लत होगा, क्योंकि दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में हमें ऐसा विकास देखने को नहीं मिला है.

'असंभाव्य लोकतंत्र'

ख़ासकर विदेशी प्रेक्षकों की दृष्टि में भारत के इस अनुभव को अक्सर एक संयोग के रूप में देखा गया है. लोकतंत्र पर अध्ययन के विशेषज्ञ समझे जाने वाले राजनीति शास्त्री रॉबर्ट डाल ने भारत को काफ़ी हद तक सफल लोकतंत्र, लेकिन साथ ही, एक असंभाव्य लोकतंत्र कहा है.

और इस सफ़र के दौरान आज़ादी के आंदोलन व स्वतंत्र भारत के मूर्धन्य नेताओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है. महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू दोनों ऐसे नेता थे, जिनके लिए राजनीतिक मूल्यों पर समझौता करना कतई मुमकिन न था, इसके बावजूद संवाद और सहमति के रास्ते से वे कभी नहीं हटे. महात्मा गांधी की इच्छा के ख़िलाफ़ जब देश का विभाजन हुआ, तो वे अकेले अपने रास्ते पर चलते हुए संप्रदायों के बीच सामंजस्य और प्रेम की ख़ातिर काम करते रहे.

और आज? अनसुलझे सवाल रह गए हैं. शासन व्यवस्था में प्रतिनिधित्व के साथ साथ आधुनिक बाज़ार, तकनीक, और हाल के वर्षों में भूमंडलीकरण की मजबूरियों का ख़्याल रखा जाता है. लेकिन उसकी वैधता बनाए रखने के लिए कम से कम पांच साल में एक बार पक्के मकानों के साथ साथ झोपड़ियों के दरवाज़ों पर भी जाना पड़ता है. और संसदीय लोकतंत्र के बदले कोई दूसरी प्रणाली? देश - और विदेश - के प्रेक्षक शायद ही उसकी कोई संभावना देखते हैं.