1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

ब्रिटेन में अफगान: सरहदें पार करने से नहीं छूटता वतन

स्वाति बक्शी
३१ अगस्त २०२१

यूरोपीय संघ के देशों में इस समय तालिबान शासन से भागने वाले अफगानों को शरण देने के सवाल पर तीखी बहस चल रही है. अफगानिस्तान से भागकर पिछले दशकों में यूरोप आए अफगानों की जिंदगी आसान नहीं रही है. यहां ब्रिटेन से एक रिपोर्ट.

https://p.dw.com/p/3zkPg
In Pictures: The Kabul evacuation mission
तस्वीर: U.S. Air Force/Getty Images

अफगान नागरिकों के पुनर्वास से जुड़ी ब्रिटेन की नई नीति के तहत इस साल पांच हजार अफगान नागरिकों को ब्रिटेन में पनाह मिलेगी. लंबी अवधि में कुल मिलाकर बीस हजार लोगों को शरण देने के लिए ब्रिटेन राजी हुआ है. सीमित शरणार्थी स्वीकार करने की बात पर ब्रिटेन की इस नीति की आलोचना हो रही है. बॉरिस जॉनसन सरकार को अफगानिस्तान के लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी की दुहाई दी जा रही है. धर्म और राजनीति की बहसों से आगे निकलकर, ये मौका है इस बात को समझने का कि अपना देश और समाज छोड़कर एक अनजाने देश में रिफ्यूजी बनने से शुरू होने वाले इस सफर में लोगों के साथ क्या होता रहा है.

अफगान लोगों के ब्रिटेन में पनाह लेने का सिलसिला 1980 के दशक से चल रहा है. साल 2019 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन में ऐसे 79000 लोग रह रहे हैं जिनका जन्म अफगानिस्तान में हुआ था. ताजा आंकड़ें बताते हैं कि 30 जून 2021 तक 3213 अफगान शरणार्थियों के मामले में शुरूआती फैसला बाकी है जबकि कुल अर्जियां 8374 तक पहुंच चुकी हैं. मतलब ये है कि शरण लेने के लिए अर्जियों और लोगों के आने का सिलसिला बदस्तूर जारी है. हालांकि आंकड़े ये नहीं बताते कि जो ब्रिटेन में बस गए उनके लिए अफगानिस्तान से बाहर जिंदगी बसर करने के मायने क्या रहे हैं? अपने घर-बार से उजड़े लोग, एक अलग दुनिया में आशियाना ढूंढते हुए किन हालात का सामना करते हैं?

जिंदगी की लय छूटी

नब्बे के दशक में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद आतंक का जो माहौल पैदा हुआ, उसमें अपने परिवार को बचाने की जद्दोजहद में लोग एक बार नहीं कई बार विस्थापित हुए. अपनी किशोरावस्था में ब्रिटेन में कदम रखने वाली सनोबर सलीम की कहानी भी ऐसी ही है जिनका यहां पहुंचने का रास्ता वाया पाकिस्तान होकर गुजरा. सनोबर कहती हैं, "देश छोड़ना मेरे पूरे अस्तित्व के लिए उथल-पुथल लेकर आया. अफगानिस्तान में अपनी जमीन से उखड़कर मुझे यहां शून्य से शुरूआत करनी पड़ी. हमेशा ऐसा लगता रहा कि मुझे अपनी उम्र से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है वरना मैं पीछे छूट जाउंगी. मैंने ना ठीक से बचपन जिया है ना युवावस्था, अब जब मैं अधेड़ उम्र की दहलीज पर हूं तो लगता है कि जिंदगी की लय बिगड़ गई, सब बेतरतीब सा गुजर गया."

In Pictures: The Kabul evacuation mission
काबुल से निकलने में कामयाब हुए अफगान जर्मन सेना के जहाज मेंतस्वीर: Marc Tessensohn/Bundeswehr/Reuters

लंदन में अनुवादक के तौर पर काम करने वाली सनोबर (बदला हुआ नाम) मानती हैं कि ब्रिटेन ने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका दिया लेकिन देश छोड़ने से परिवार और सांस्कृतिक दायरे पीछे छूट जाएं ऐसा नहीं होता. वो बताती हैं, "ब्रिटेन ने मुझे अपनी मर्जी से कुछ करने से नहीं रोका लेकिन मेरे परिवार और सांस्कृतिक नजरिए ने बेड़ियां डालीं. किसी पश्चिमी देश में आकर रहने से अपने परिवार की रूढ़िवादी सोच को बदला नहीं जा सकता. मेरे लिए अफगानिस्तान से बाहर होने का सुकून सिर्फ ये है कि इस वक्त जो हो रहा है मैं उस बर्बरता के लिए जिम्मेदार महसूस नहीं करती."

एक महिला के तौर पर सनोबर के अनुभवों की कई परतें हैं जो उनके पति सलीम (बदला हुआ नाम) से जुदा हैं. हालांकि शरणार्थी बनने से लेकर ब्रिटेन में बेहतर जिंदगी गढ़ने तक सलीम का सफर भी उलझनों और मजबूरियों से भरा रहा. 1993 में पढ़ाई के लिए वीजा लेकर लंदन पहुंचे सलीम ने 1994 में अफगानिस्तान के हालात देखते हुए घर लौटने की बजाय ब्रिटेन में ही शरणार्थी बनना बेहतर समझा.

तालिबान के महिमामंडन पर बिफरीं अफगान महिला नेता

सलीम कहते हैं, "मां-बाप से दूर अकेले रहने और संघर्षों के लिए मैं तैयार नहीं था. ना भविष्य का कोई भरोसा, ना ही दोस्त या पहचान के लोग थे. बहुत कड़ी परिस्थितियों से गुजरते हुए आज मेरे पास सब कुछ है लेकिन आप जहां पैदा होते हैं वो जगह अगर आपसे छीन ली जाए तो फिर आप कहीं के हो नहीं पाते. लंबे वक्त तक बाहर रहने के बाद आप लौटते भी हैं तो लोग आपको मेहमान की तरह देखते हैं. ये एहसास आपके अंदर कुछ तोड़ सा देता है." बिखराव के इस एहसास के बावजूद सनोबर और सलीम जैसे लोगों ने अपनी जिंदगी की इमारत दोबारा खड़ी की. जमीन छोड़ देने से देश छूट गया हो, ऐसा नहीं लगता और ब्रिटेन में उन्हें अपनापन मिल गया हो ये कहना भी मुश्किल है.

अफगान मतलब तालिबानी

साल 2001 में अमेरिका की अगुआई वाली सेनाओं के तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिए जाने के बाद भी अफगानिस्तान के अलग-अलग इलाकों से लोग ब्रिटेन पहुंचते रहे. बदलते हालात में देश से निकलकर यहां बसने का मतलब शांति और सुकून रहा होगा, इस धारणा पर सवालिया निशान लगाते हैं, शोक्रिया मोहम्मदी जैसी अफगान युवतियों के अनुभव. चौदह बरस की शोक्रिया अफगानिस्तान के एक गांव से 2008 में लंदन आईं. अंग्रेजी ना बोल पाने की दिक्कत तो सामने थी ही लेकिन स्कूल शुरू होने के बाद कुछ ऐसा हुआ जिसका अंदाजा उन्हें दूर तक नहीं था. शोक्रिया बताती हैं, "मुस्लिम होने के नाते मैं सिर पर स्कार्फ पहनकर स्कूल जाती थी. स्कूल में मेरे साथियों ने कहा कि तुम आतंकी हो, तुम तालिबान हो. मैं बिल्कुल हैरान थी क्योंकि मैं जहां पली-बढ़ी वहां मेरा सामना किसी तालिबानी से कभी नहीं हुआ. ये अनुभव आपको बता देते हैं कि आप इस समाज के लिए हमेशा बाहरी रहेंगे." 

In Großbritannien lebende Afghanen
ब्रिटेन में रह रही शोक्रिया मोहम्मदीतस्वीर: Privat

नैन-नक्श और रंग से जुड़े रेसिज्म यानी जातीय भेद-भाव की कहानियां ब्रिटेन में लगभग हर अफगान की जुबान पर मिल जाएंगी चाहे वो किसी भी दशक में यहां क्यों ना पहुंचे हों. हालांकि शोक्रिया ये भी मानती हैं कि अगर उन्होंने अपना देश नहीं छोड़ा होता तो जिंदगी उनके हिसाब से नहीं बल्कि उनके रूढ़िवादी दादा के हिसाब से चलती और आज नौकरीशुदा होने के बजाय वो पांच बच्चों की मां होतीं. अफगान औरतें ये स्वीकार करती हैं कि ब्रिटेन में उन्हें पढ़ने और काम करने के वो मौके मिले जो अपने देश में मुमकिन नहीं होते यानी पहचान का एक नया संकट देने वाले देश में नई पहचान तलाशने और तराशने के मौके भी मौजूद थे. 

जीने का मौका और अपनों का दर्द

पहचान का संकट नए देश में बड़ा नजर आता है लेकिन कुछ अफगान लोगों की निगाह में ये जान जाने के खतरे से कम डरावना है. खासकर हजारा समुदाय के लोगों के लिए जिनके खिलाफ हिंसा का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. परवेज करीमी इसी समुदाय के हैं. वो साल 2012 में, सोलह बरस की उम्र में अपने पिता के साथ ब्रिटेन पहुंचे. वुल्वरहैंप्टन में रहने वाले परवेज कहते हैं कि पिछले नौ सालों में बहुत कुछ देखा है. "जब स्कूल जाना शुरू किया तो साथियों ने बहुत परेशान किया. मैं मुश्किल से अंग्रेजी के शब्द बोल पाता था. जिस स्कूल में था वहां मुस्लिम बहुत कम थे जिसकी वजह से मुझे काफी कुछ झेलना पड़ा. वो मुझसे पूछते थे कि क्या मेरे पास बंदूक है. बहुत मुश्किल वक्त रहा फिर भी मुझे नहीं लगता कि अगर मैं यहां नहीं आता तो यूनिवर्सिटी की सूरत देख पाता. शायद जिंदा ही नहीं होता."

In Großbritannien lebende Afghanen
परवेज़ करीमी कहते हैं कि ब्रिटेन नहीं आता तो शायद जिंदा नहीं होतातस्वीर: Privat

परवेज की इसी बात को दोहराते हैं बर्टन अपॉन ट्रेंट शहर में रहने वाले ओमिद जाफरी. अफगानिस्तान के गजनी प्रांत के रहने वाले ओमिद भी हजारा हैं और जान बचाने के लिए साल 2000 में ब्रिटेन में शरण ली. बर्टन शहर में अफगानों की मदद के लिए एक संस्था चलाने वाले ओमिद बहुत साफ शब्दों में कहते हैं, "मुझे ब्रिटेन में नई जिंदगी शुरू करने का मौका मिला. यहां मुझे हिकारत से नहीं देखा गया. मेहनत करनी पड़ी पर काम मिलता गया और मैं अपने बीवी-बच्चों को भी यहां ला सका. मेरी अपील है कि ब्रिटेन को अफगानिस्तान में फंसे अल्पसंख्यकों और महिलाओं को निकालना चाहिए."

ओमिद तालिबानी हिंसा के चश्मदीद रहे हैं. शोक्रिया और परवेज जैसे युवा जिन्होंने तालिबानी कब्जे का दौर तब नहीं देखा, वो अब दूर से देख रहे हैं. उन्हें अपनी बेहतर स्थिति का अंदाजा है लेकिन देश ना छोड़ पाने वाले अपने जैसे अफगान लोगों के दर्द में वो खुद को साझेदार भी मानते हैं. घर की याद, विस्थापन और पहचान के मकड़जाल में फंसे ब्रिटेन के अफगान लोगों ने अपने नए देश को घर बनाने की कोशिश की और कामयाब भी रहे. फिलहाल उन्हीं की तरह सैकड़ों लोग नई जिंदगी की आस लिए ब्रिटेन में कदम रख रहे हैं. शरणार्थियों को देखकर आंखें टेढ़ी करने वालों को ये समझने की जरूरत है कि अगर अपने देश में हालात जीने लायक हों तो रिफ्यूजी बन जाने का ख्वाब कोई नहीं पालता.

(कुछ नाम पहचान गुप्त रखने के उद्देश्य से बदले गए हैं).