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‘बेशर्म’ के दौर में ‘आवारा’

९ अक्टूबर २०१३

जब मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा में भरपूर विकार और नाना हाहाकार आ घुसे हैं, ऐसे समय में उस दौर की याद आती है जब सिनेमा मासूम स्वप्नों और स्वाभाविक आकांक्षाओं का पारदर्शी पर्दा था. ऐसे ही दौर के एक फिल्मकार थे राज कपूर.

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तस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Picture Library

हिन्दी फिल्मों के पहले शोमैन कहे जाने वाले राज कपूर के निधन को 25 साल हुए. अपनी मौत के डेढ़ दशक बाद भी राज कपूर के सिनेमा की प्रासंगिकता बनी हुई है. उधार की ही सही लेकिन चैप्लिनीय छवि के सहारे राज कपूर ने ब्लैक एंड व्हाइट पर्दे पर स्वप्न, आकांक्षा, संघर्ष और रोमान के अंधेरे उजाले को पेश किया था. मजे की बात ये है कि नाइंसाफी और शोषण से प्रतिरोध के उनके सिने विषय ऊबड़खाबड़ और पथरीली जमीन से नहीं निकलते थे, वे स्वप्निल लैंडस्केप के कलाकार थे. वहां खुरदुरापन नहीं था. यहां तक कि उनका आवारा और उनका 420 भी सामान्य अर्थों में मवाली, गुंडा और बदमाश नहीं दिखता था. राज कपूर की शायद यही कामना थी. वो उन किरदारों में जान फूंकने से पहले उनका एक अघोषित रूपांतरण कर देना चाहते थे. उनमें नायकत्व से ज्यादा नायिका की आत्मा थी. दुनिया से बेगाने, दुनिया के सताए और धकियाए हुए उनके ये नायक असल में अपनी स्त्रैण अनुभूति से ही दिल लूटते थे.

ये एक बड़ी बात थी कि एक पुरुष के भीतर एक स्त्री की खोज और उसका संरक्षण राज कपूर की फिल्मों का एक अननोटिस्ड पर बुनियादी लक्षण रहा है. हो सकता है कि राज कपूर के इस काम में उन्हें बहुत बड़ी मदद अपने कैमरामैन, संगीतकारों और गीतकारों और गायकों से भी मिलती रही हो. आखिर वे सब भी अपने समय के माहिर लोग थे, उस्ताद थे. उन्होंने राज कपूर के नायक के खुरदुरेपन को और घिसा. उनकी नायिका को और रोमानी और दिलकश बनाया. कुल मिलाकर ये टीम एक जादू की रचना में सफल रही. स्टूडियो के भीतर एक नकली आसमान, एक नकली चांद, एक नकली पेड़ और एक नकली रात की नकली हवा है, बेशक है, सब जानते थे लेकिन सब जैसे उन्हीं कृत्रिमताओं में डूब जाते थे जैसे वे वास्तविक रूप हों. चांदनी मधुर थी, आसमान झूमता था और मिलन की उस मीठी तड़प वाले रोमानी अनुभव से न सिर्फ किरदार बल्कि उन्हें देखने वाली ऑडियंस भी थरथराती थी. ये कैसे होता था, ये होता था उस भावप्रणता और उस सिनेमाटोग्राफी और उस गीत संगीत से जो अब सुनें तो लगता है कि क्या हमारा सिनेमा वाकई ऐसी विलक्षण करामात और ऐंद्रिक क्रांति का सिनेमा रहा होगा.

Raj Kapoor
तस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Picture Library

राज कपूर ने नेहरुवियन समाजवाद के स्वप्न को पर्दे पर साकार करने की कोशिश की, ये हम जानते हैं, वे भारतीय इथोज की सृजना करने वाले आकांक्षी रचनाकारों में से थे. वहां समाजवाद भी था, लेकिन पूंजीवाद का तिरस्कार नहीं था. उस सिनेमा में समाजवादी टकराहटें किसी बड़े जलजले की ओर बढ़ने से पहले पूंजीवादी नैतिकता में विलीन हो जाती हैं. वर्ग शत्रु फिल्म के आखिर में एक ओर ही जाते दिखाई देते थे. राज कपूर की ये अपनी एक पॉलिटिक्स थी. वे सिनेमा के जरिए एक बदलाव के अभिलाषी बेशक थे लेकिन ये बदलाव सामाजिक व्यवस्थाओं में बहुत निर्णायक खिलवाड़ या रद्दोबदल की ओर जाती हुई अभिलाषा नहीं थी. हां भाईचारा और प्रेम इसकी बुनियादी मांग हमेशा रहती थी.

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संयोग से राज कपूर की मशहूर फिल्म आवारा के 62 साल भी पूरे हुए हैं. चैप्लिन की नकल के किरदार का आगमन इसी फिल्म से हुआ था. ये भी एक अजीब संयोग है कि “आवारा” अपनी तीसरी पीढ़ी में “बेशर्म” के रूप में सामने आया है. 62वीं सालगिरह पर राज कपूर के नाती और आज के हीरो रणवीर कपूर की फिल्म आई है बेशर्म जिसमें उनके माता पिता यानी ऋषि कपूर और नीतू कपूर ने भी अभिनय किया है. आवारा में असल जिंदगी के पिता पुत्र यानी राज और पृथ्वीराज कपूर थे तो बेशर्म में भी कपूर पिता पुत्र हैं.

कपूर खानदान में आवारा से बेशर्म तक आने के सफर में आप हिन्दी फिल्मों में आए बदलावों को भी देख सकते हैं. “आवारा” राज कपूर से लेकर “बेशर्म” रणवीर कपूर तक आप फिल्म की विषयवस्तु, समाज, एम्बियंस, तनाव और कला में भी एक बड़ा फर्क देख सकते हैं. आवारा में आत्मा की अनुगूंजें और उसकी फटकार है, बेशर्म तक आते आते अपनी खोजबीन और अपने अस्तित्व की टकराहटों के सवाल मिट जाते हैं, सारे तनाव ढीले पड़ जाते हैं, सारी कलाएं शिथिल. पर्दे पर सिर्फ नक्कालों का जोर और शोर रह जाता है.

बहरहाल राज कपूर की संतानों को अपनी थाती का पता है. उस विरासत का एक हिस्सा है आवारा. फिल्म के 62 साल पूरे होने के मौके पर मीडिया में ख़बर आई कि कपूर पिता पुत्र इस फिल्म का रीमेक करना चाहते हैं. लेकिन बाद में यही तय किया गया कि ऐसी फिल्म का रीमेक न ही बनाया जाए तो अच्छा क्योंकि बताया गया कि न्याय नहीं हो पाएगा. खैर. खबर ये भी आई है कि रीमेक के बजाय कपूर चाहते हैं कि इस फिल्म को रंगीन बनाकर पेश किया जाए. कलर्ड संस्करण में आवारा अगर आती है तो क्या उसका वो महत्त्व रह पाएगा जो उसके ब्लैक एंड व्हाइट रूप में है. क्योंकि वो सिर्फ एक आवारापन की ही नहीं, अच्छाई बुराई की टकराहटों और दिलो दिमाग में घुमड़ते कई अंधेरों उजालों की कहानी भी है. वहां कालेपन और सफेदी का सतत संघर्ष है. वे एकदूसरे में आतेजाते हैं. कलर चढ़ाकर एक मासूम आवारा को बेशर्म न बनाया जाए, हम तो यही चाहेंगे. पर हमारे चाहने से क्या होता है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः एन रंजन